बिहार का वो किसान जो खेत में साहित्य लिखता है, मिलिए गिरींद्र नाथ झा से

Update: 2019-11-19 06:18 GMT

चनका (पूर्णिया-बिहार)। बिहार की राजधानी पटना से करीब पौने चार सौ किलोमीटर दूर पूर्णिया जिले में एक गाँव है चनका। यहां कदंब के हजारों पेड़ों और खेतों के बीच बना एक घर इस गाँव को दूसरे गाँवों से अलग करता है। ये गिरींद्र नाथ झा का घर है। दिल्ली विश्वविद्यालय से इकोनॉमिक्स में स्नातक और पेशे से पत्रकार गिरींद्र अब अपने खेतों में बैठकर साहित्य लिखते हैं, और दूसरों को लिखने का मौका देते हैं। चनका गिरींद्र का पैतृक गाँव है, जिसे वो विदेशों के तर्ज़ पर साहित्य पर्यटन का केंद्र बनाने में जुटे हैं।


गिरींद्र बताते हैं, "डीयू से पढ़ाई के बाद सीएसडीएस से जुड़ा और प्रवासी इलाकों में टेलीफोन बूथ संस्कृति पर शोध किया। सन् 2005-06 की बात है, उस वक्त टेलीफोन का जमाना था। मैं लिखकर कमाना चाहता था, तो पत्रकारिता में जुड़ गया। कई साल पत्रकारिता करने के बाद मैं गाँव लौट आया, लेकिन पत्रकारिता नहीं छोड़ी। मैं अब फ्रीलांश लिखता हूं। हिंदी में मैं पैसे के लिए लिखता हूं। मैं मुफ्त में लिखने को गुनाह मानता हूं।"

दिल्ली-कानपुर जैसे शहरों से गाँव वापसी के बाद गिरींद्र ने एक किताब 'इश्क में माटी सोना' लिखी उनकी दूसरी किताब भी जल्द आने वाली है। उनकी नई किताब किसानों पर आधारित होगी। किताबों के बारे में बात करते हुए गिरींद्र नाथ झा कहते हैं, "इश्क में माटी सोना' में प्रेम का वो अंश है जो गाँवों में बिखरा पड़ा है। मैंने उन्हीं सारी चीजों को लिखने की कोशिश की है। जीवन की यात्रा में मैं कलम स्याही करते हुए किसानी करता हूं।"

"धरती मां, धरती मां ये कहना बंद कीजिए, धरती को प्रेमिका के तौर पर लें, वो मेरी गर्लफ्रेंड है। मां एक साड़ी में खुश हो जाती है। गर्लफ्रेंड एक साड़ी से खुश नहीं होगी। उसे हर दिन कुछ नया चाहिए। वो आपके साथ घूमना चाहती है। गाड़ी में घूमना और मॉल जाना चाहती है। किसान को ये समझना होगा। हम मां को एक फ्रेम में ढाल लेते हैं, लेकिन आपकी प्रेमिका फ्रेम में नहीं ढलेगी। उसे सजावट चाहिए। तो धरती की सजावट कीजिए।"

अपनी बात जारी रखते हुए वो कहते हैं, किसान एक बार में चार-चार फसलें उगाते हैं। लगातार एक जैसी फसल लेने से जमीन बोर हो रही है। किसान को फसल चक्र अपनाना होगा। खेत, बाग का सामांजस्य बैठाना होगा। किसानी ऐसे करना है कि जमीन बेजान न होने पाए। बाग लगाइए, सब्जी बोइए, मक्का, कदंब, सब लगाएं, लेकिन जमीन का दोहन न करें।"


अपने इन्हीं ख्यालों और सपनों को गिरींद्र अपने खेतों में साकार करते हैं। नौकरी छोड़ने के बाद खेतों में बड़े स्तर पर पेड़ लगवाए, खेतों में अंधाधुंध खादों का इस्तेमाल बंद करवाया। अपने लिए खेती शुरु की और लिखने पढ़ने के लिए माहौल बनाया।

"मैं एक ऐसी जगह की कल्पना किया करता था, जहां शांति हो, ग्रामीण संस्कृति में रुचि रखने वाले लोग ठहरें, रहें, पढ़ें और लिखें और उसके बदले मुझे पैसे दें। कई लोगों से बातचीत की। तो लोगों ने कहा तुम्हारे खेत चनका में ऐसा हो सकता है। फिर खेत में ये घर बना। रुकने की व्यवस्था है। पिछडे डेढ़ साल में देश विदेश से करीब 250 लोग यहां आकर रुक चुके हैं।"

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गिरींद्र बताते हैं विदेशों में ऐसा कल्चर काफी पहले से है। शहरों के लोग गाँवों में कुछ समय जाकर बिताते हैं। अपने परिवारों को ले जाते हैं। पढ़ने-लिखने वाले ऐसी जगहों का चुनाव करते हैं। भारत में ऐसी जगहों की जरुरत के लिए वो एक कहानी सुनाते हैं, "बहुत लोग बिहार के ही हैं, उनकी परवरिश दिल्ली-मुंबई वगैरह में हुई। उनका एक बच्चा आया हुआ था। जब वो धान के खेत में गया, तो उसे पता नहीं कि इसमें चावल होता है, तो वो बोला, 'वाओ! दिस इज राइस…' मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि हम अपने ही परिवार के लोग, हमें किसानों-खेतों की बातें पता नहीं होतीं।"

खेती के मौजूदा स्वरूप को किसानों के लिए घाटे का मानते हुए गिरींद्र कई सुझाव भी देते हैं। किसान को चाहिए वो सिर्फ अपने लिए खेती शुरु कर दे, जितनी उसे जरुरत है सिर्फ उतनी दाल, उतने धान बोएं। हमें अपने लिए उपजाना शुरु करना होगा। बाजार पर निर्भरता खत्म करनी होगी।"

वो आगे कहते हैं, "जिसके पास एक एकड़ खेत है। वो पेड़ लगाए। लकड़ी बेचे, अपनी जरुरत के मुताबिक खेती करे और दूध के लिए गाय पाले। वो मंडी में कुछ न दे। तो जो शहर के लोगों को लगता है कि किसान हमारे पैसे पर पलता है, उन्हें समझ जाएगा। जब उनकी प्लेट में खाना नहीं होगा। उन्हें जिस दिन किसान की अहमियत समझ आएगी, सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।"


पेड़ मतलब फिक्स डिपॉजिट

वो अपनी खेती के पैटर्न को कुछ यूं बताते हैं। "मेरे खेतों में लाइन से कदंब के पेड़ लगे हैं। बीच में मक्का और धान जैसे फसलें होती हैं। ये डबल क्रॉप सिस्टम है। ये जो बड़े कदंब के पेड़ हैं ये फिक्स डिपाजिट हैं जो 10-15 साल बाद एक साथ ज्यादा पैसा देंगे, दूसरा इनके बीच की मौसम के अनुसार होने वाली फसलें घर चलाएंगी।" कदम के पेड़ का फर्नीचर आदि में काफी इस्तेमाल होता है। "कदंब का प्लाई में बहुत इस्तेमाल होता है। दस साल बाद इससे लकड़ियां मिलनी शुरु हो जाती हैं। पौधे की गैर जरुरी टहनियों को काटने (झाड़ने) से अच्छी खासी लकड़ी मिल जाती है। जो अच्छे रेट पर बिक जाती है। बाद में यही पेड़ प्लाई के लिए बिक जाते हैं।

किसान के पास कोई जमा पूंजी नहीं होती है। ऐसे में पौधे पेंशन की तरह या फिक्स डिपाजिट की तरह काम करते हैं। मेरे लिए खेती का कोई व्याकरण नहीं है। मैं किसानों के साथ बातचीत करके की सारा काम करता हूं। मेरा मानना है कृषि की जो पढ़ाई है, वो अकेडमिक लहज़े पर, भाषण देने के लिए ठीक हो। लेकिन जो असली किसान होगा, आप उससे बात करेंगे वो किसी भी प्रोफेसर से लाख बेहतर ढंग से बताएगा।"

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