हड़तालें-तालाबन्दी देशद्रोह न भी हों, देशहित के विपरीत हैं

Update: 2016-06-01 05:30 GMT
गाँव कनेक्शन

हमारे देश में औद्योगिक मजदूरों के लिए लेबर लॉज़ बने हैं जिनके अनुसार उन्हें हड़ताल और तालाबन्दी का अधिकार है। मजदूर लोग संगठित होकर हड़ताल करके सरकार के साथ सौदेबाजी करते और मांगें मनवाते हैं। श्रमजीवियों की तरह बुद्धिजीवियों ने भी यूनियन बनाकर हड़तालें आरम्भ कर दी हैं, क्या यह संविधान सम्मत है? क्या इन्हें भी लेबर लॉज़ का लाभ मिलना चाहिए? जो भी हो, श्रम द्वारा पूंजी का सृजन होना चाहिए, विनाश नहीं।

अभी कुछ दिन पहले परीक्षाओं के नाज़ुक समय में अध्यापकों ने हड़ताल किया था, उसके पहले डाक्टरों ने और नर्सों ने, सरकारी बैंकों में हड़तालें होती रहती हैं, सरकारी कर्मचारियों की हड़तालें तो आम बात हैं। इन हड़तालों से अरबों रुपए का देश का नुकसान होता है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकों में हड़तालें नहीं होती थीं। उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने सोचा भी ना होगा कि राष्ट्रीयकरण से देश को इतना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। जिस विभाग का सरकारीकरण होता है वहीं हड़तालें होती हैं। आम आदमी को होने वाले नुकसान और असुविधा का हिसाब नहीं लगाया जा सकता। 

सोचिए कि डाक्टर को भगवान के बाद दूसरा स्थान दिया जाता है और गुरु को भगवान से भी बड़ा स्थान और वे हड़तालें करते हैं, लेकिन यदि एक दिन भगवान भी हड़ताल पर चला जाए तो क्या होगा। बहुत पहले चार साल तक मैं कनाडा में रहा था वहां ऐसी हड़तालें कभी नहीं देखीं, कुछ तो कारण होगा कि हड़तालें सबसे अधिक हमारे देश में ही होती हैं। पुराने समय में अध्यापकों का वेतन कम होते हुए भी वे हड़ताल नहीं करते थे। अब हड़तालें आमतौर से वेतन बढ़ाने या वेतन विसंगतियां दूर करने के लिए होती हैं। और नारा होता है ‘‘चाहे जो मजबूरी हो मांग हमारी पूरी हो।”

रोचक बात यह है कि पूंजीवादी देशों में हड़तालें कम होती हैं और शायद साम्यवादी देशों में भी नहीं होतीं। हमारी मिलीजुली अर्थव्यवस्था में ना तो पूंजीवादी उत्पादन पर आग्रह रहा और ना ही साम्यवादी अनुशासन पर। हड़तालों का एक कारण है अलग-अलग विभागों में अलग-अलग वेतनमान।  अच्छा हो यदि देशभर में केवल एक ही वेतनमान हो और उसी में योग्यता, क्षमता और अनुभव के आधार पर कर्मचारियों की नियुक्ति हो। 

यदि ऐसा सम्भव नहीं तो सारे उद्योग और व्यापार को प्राइवेटाइज़ कर देना चाहिए क्योंकि जब सरकारी बैंकों में हड़ताल हुई तो प्राइवेट बैंकें खुली थी। हड़तालें घटाने का एक सरल उपाय है जॉब सिक्योरिटी यानी नौकरी की सुरक्षा की धारणा से छुटकारा पाना। अमेरिका जैसे देशों ने कांट्रैक्ट आधार पर नौकरियां देनी आरम्भ की है। कांट्रैक्ट की अवधि में सन्तोषजनक काम होने पर ही नवीनीकरण होता है। यहां भी प्रोबेशन पीरियड जैसा ही तो होता है और उस अवधि में कर्मचारी अनुशासित रहता है। 

पिछले 68 साल में देश के कर्मचारियों ने एक ही बात सीखी है ‘‘ हर जोर जुलूम के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है।” यानी बात-बात में हड़ताल, कभी इस विभाग में कभी उस विभाग में। एक तरफ करोड़ों लोगों के पास काम नहीं है तो दूसरी तरफ जिन्हें रोजगार मिल जाता है वे काम की नहीं हड़ताल की राह पकड़ लेते हैं। जब पहली बार दफ्तरों में कम्प्यूटर का प्रयोग आरम्भ हुआ था तो उसका विरोध इस आधार पर हुआ था कि तमाम लोग बेरोजगार हो जाएंगे। समय के साथ यह सोच गलत निकला।

हड़तालों और तालाबन्दी की जड़ हैं यूनियनें और उनके नेता जो हड़तालों की अवधि में काम न करने का वेतन चाहते हैं, निकाले गए लोगों को दुबारा लेने के लिए फिर हड़ताल करते हैं, अनुशासनहीनता और जानबूझकर ड्यूटी न करने का अधिकार चाहते हैं। सरकार को हड़तालों का निदान हमेशा के लिए खोजना चाहिए। पेंशन की व्यवस्था समाप्त कर दी है उसी प्रकार यूनियन बनाने का अधिकार भी समाप्त होना चाहिए। श्रमजीवियों और बुद्धिजीवियों के लिए अदालतें बननी चाहिए जो समयबद्ध तरीके से फैसला सुना दें। अन्याय से निपटने की लड़ाई सड़कों पर नहीं ट्रिब्यूनल या अदालतों में होनी चाहिए।

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