कृषि वैज्ञानिकों से जानिए कैसे पीला रतुआ से बचाएं गेहूं की फसल?

इस समय कई प्रदेशों में गेहूं की फसल पीला रतुआ बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है, ऐसे में समय रहते किसानों को इस रोग का प्रबंधन करना चाहिए।

Update: 2021-01-16 12:43 GMT
इस समय गेहूं में बढ़ सकता है पीला रतुआ रोग का प्रकोप, समय से करें प्रबंधन। फोटो: डॉ. अनुज कुमार

पीला रतुआ गेहूं के सबसे हानिकारक और विनाशकारक रोगों में से एक है जो फसल की उपज में शत प्रतिशत नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है। इस बीमारी से उत्तर भारत में गेहूं की फसल का उत्पादन और गुणवत्ता दोनों ही प्रभावित होती है।

फसल सत्र के दौरान उच्च आर्द्रता और बारिश पीला रतुआ के संक्रमण के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा करती हैं। पौधों के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में इस रोग के संक्रमण से अधिक हानि हो सकती है। उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र जिसमें मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान (कोटा और उदयपुर संभाग को छोड़कर), पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र और उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र जिसमें जम्मू कश्मीर (जम्मू व कठुआ जिलों को छोड़कर), हिमाचल प्रदेश (ऊना जिला व पोंटा घाटी को छोड़कर) उत्तराखंड (तराई क्षेत्रों को छोड़कर) सिक्किम, पश्चिमी बंगाल की पहाड़ियां और पूर्वोंत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं इन दोनों क्षेत्रों में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।


गेहूं भारत में उगाई जाने वाली अनाज की प्रमुख फसलों में से एक है जो लगभग 30 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल पर उगाई जाती है। साल 2019-2020 के दौरान 107.59 मिलियन टन गेहूं का रिकॉर्ड उत्पादन दर्ज किया गया है। उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र और उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में लगभग 13.15 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूं की खेती की जाती है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की जनसंख्या लगभग 170 करोड़ हो जाएगी। इतनी बड़ी आबादी के भरण-पोषण के लिए लगभग 140 मिलियन टन गेहूं की जरूरत होगी। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल निरन्तर घटता जा रहा है। इसलिए अब प्राथमिकता है कम क्षेत्रफल में अधिक उत्पादन की, साथ ही खेत में लगी फसल का समुचित प्रबंधन तथा बीमारियों की रोकथाम अति आवश्यक है। घरेलू मांग और निर्यात की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उच्च उपज वाली रोगरोधी किस्मों का विकास आज की जरुरत बन गई है।

पीला रतुआ की पहचान

इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारियां दिखाई देती हैं जो धीरे-धीरे पूरी पत्ती पर फैल जाती हैं। खेतों में इस रोग का संक्रमण एक छोटे गोलाकार क्षेत्र से शुरू होता है जो धीरे-धीरे पूरे खेत में फैल जाता है। इस रोग से प्रभावित खेतों में फसल की पत्तियों से जमीन पर गिरा हुआ पीले रंग का पाउडर (हल्दी जैसा) देखा जा सकता है। पत्तियों को छूने पर यह हल्दी जैसा पाउडर हाथों पर लग जाता है। इस रोग से संक्रमित खेतों में प्रवेश करने पर यह पीले रंग का पाउडर कपड़ों पर भी लग जाता है। आमतौर पर इस रोग के संक्रमण होने की संभावना जनवरी माह के प्रारम्भ से रहती है जो मार्च तक चलती रहती है। लेकिन कई बार दिसम्बर माह में भी इस रोग का संक्रमण देखा गया है जिससे फसल को अधिक हानि होने की संभावना रहती है।


ऐसे करें पीला रतुआ का प्रबंधन

इस रोग के प्रभावी प्रबंधन के लिए उत्पादन क्षेत्रों के अनुसार अनुमोदित की गई गेहूं की नवीनतम किस्मों की ही बुवाई करनी चाहिए। आमतौर पर नई किस्मों में पीला रतुआ के प्रति रोग रोधिता/सहिष्णुता रहती है। इसलिए हमेशा ही अच्छी उपज और पीला रतुआ से बचाव के लिए नई किस्में ही लगानी चाहिए।

उत्पादन क्षेत्र

गेहूं की नई किस्में

उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र

एचएस 507 (पूसा सुकेती), एचपीडब्ल्यू 349, वीएल 907, वीएल 804, एसकेडब्ल्यू 196, एचएस 542, एचएस 562, वीएल 829, एचएस 490 एवं एचएस 375 इत्यादि।

उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र

समय से बुवाई: डीबीडब्ल्यू 303, डब्ल्यूएच 1270, डीबीडब्ल्यू 222 (करण नरेन्द्र), डीबीडब्ल्यू 187 (करण वंदना), एचडी 3226 (पूसा यशस्वी), पीबीडब्ल्यू 723 एवं एचडी 3086 इत्यादि।


देर से बुवाई: पीबीडब्ल्यू 771, डीबीडब्ल्यू 173, डब्ल्यूएच 1124, डीबीडब्ल्यू 71, डीबीडब्ल्यू 90, एचडी 3298 एवं एचडी 3059 इत्यादि।

रोग प्रबंधन की रणनीतियां

हमेशा क्षेत्र के लिए अनुमोदित किस्मों की ही बुवाई करें।

किसी भी एक किस्म की बीजाई अधिक क्षेत्र में न करें।

उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग करें।

जनवरी माह के प्रथम सप्ताह से खेतों का लगातार निरीक्षण करें। खेतों में लगे पॉपलर जैसे पेड़ों के बीच या उनके आस-पास उगाई गई फसल पर विशेष निगरानी रखें।

पीले रतुआ के लक्षण दिखाई देने पर नजदीक के कृषि विशेषज्ञों से जल्द ही सम्पर्क करें।

पीला रतुआ रोग की पुष्टि होने पर प्रॉपीकोनाजोल 25 ई.सी. या टेब्यूकोनाजोल 250 ई.सी. नाम की दवा का 0.1 प्रतिशत (1.0 मिलीलीटर दवा को एक लीटर में घोलकर) का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। एक एकड़ खेत के लिए 200 मिलीलीटर दवा को 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

दवा का छिड़काव ओस के हटने या दोपहर के बाद करें।

रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए यदि आवश्यक हो तो 15-20 दिन के अंतराल पर पुनः छिड़काव करें।

यदि फसल छोटी अवस्था में है तो पानी की मात्रा 100-120 लीटर प्रति एकड़ रखी जा सकती है।

समुचित मात्रा में पानी व दवा का प्रयोग पीला रतुआ के प्रभावी नियन्त्रण के लिए आवश्यक है। 

स्रोत: (अनुज कुमार, मंगल सिंह, सत्यवीर सिंह, सेन्धिल आर, राकेश देव रंजन व ज्ञानेन्द्र प्रताप सिंह।  भाकृअनुप-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल, हरियाणा  बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू), साबौर, भागलपुर, बिहार)

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