इस शोध से गेहूं की फसल को बर्बाद करने वाले करनाल बंट रोग का होगा नियंत्रण

Update: 2019-02-19 08:29 GMT

नई दिल्ली। करनाल बंट रोग से हर वर्ष गेहूं की खेती करने वाले किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। वैज्ञानिकों ने गेहूं में करनाल बंट रोग फैलाने वाले टिलेशिया इण्डिका नाम के कवक की सरंचना की पहचान की है। इससे उन्हें समस्या का संभावित समाधान खोजने में मदद मिल सकती है।

पंत नगर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर और रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, झांसी के शोधकर्ताओं ने कवक के आनुवंशिक में विभिन्न प्रोटीनों की पहचान की है जो फसलों को नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं।

करनाल बंट पहली बार 1931 में करनाल में देखा गया था। यह न केवल पैदावार को कम करता है बल्कि अनाज की गुणवत्ता को भी कम करता है। इससे प्रभावित गेहूं की फसल खाने लायक नहीं रह जाती है। गेहूं की फसल में लगने वाली यह बीमारी संयुक्त राज्य अमेरिका, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका, नेपाल, इराक, ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भी होती है। वर्तमान में, गेहूं की फसल को फफूंदनाशकों के छिड़काव से इस बीमारी को नियंत्रित किया जाता है, लेकिन ये बहुत प्रभावी नहीं हैं।


रोग प्रतिरोधी गेहूं की खेती विकसित करने के लिए, आणविक तंत्र को जानना आवश्यक है, जिसके द्वारा कवक रोग के कारण गेहूं के पौधे के साथ संपर्क करता है। शोधकर्ताओं ने कुल 44 प्रोटीनों की पहचान की है जो रोग के विकास में विभिन्न भूमिका निभा सकते हैं।

भारत में इस रोग ने पिछले कुछ वर्षों से महामारी का रूप धारण किया है। जिस बार फरवरी से मार्च के में हवा में जब अधिक आर्द्रता होती है और धीमी-धीमी वर्षा होती है और बादल छाये रहते हैं। साल 2013 से 14 के दौरान भी उत्तरी भारत में मौसम इस रोग के अनुकूल होने के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करनाल बंट का प्रकोप 15 प्रतिशत तक पाया गया। इसलिए इस रोग का प्रकोप मौसम के अनुसार प्रतिवर्ष कम या अधिक होता रहता है।

पहचाने गए प्रोटीनों में से एक है मालेट डिहाइड्रोजनेज। यह ऑक्सालोसेटेट का उत्पादन करने में मदद करता है। टायलेटोफोजेनिक कवक में एक प्रमुख तत्व जैसे कि टलेटिया इंडिका है जो उन्हें बीमारियों का कारण बनता है।

प्रमुख वैज्ञानिक अनिल कुमार बताते हैं "अपने शोध में हमने पाया है कि कवव रोग जनक जिनसे ये रोग फैलता है, उसे कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। ये रोगज़नक़ अनुक्रमण के माध्यम से संयंत्र रोग निगरानी के प्रभावी रोग प्रबंधन रणनीतियों के विकास में मदद कर सकते हैं।" 


गेहूं की फसल में इस गेहूं का करनाल बंट रोग का संक्रमण पौधों में पुष्प आने की अवस्था में शुरू हो जाता है, लेकिन इनकी पहचान बालियों में दाना बनने के समय ही पता लग पाती है। पौधों की सभी बालियों और रोगी बाली में सभी दानों में संक्रमण नहीं होता। कुछ दाने आंशिक या पूर्ण से बंट में बदल जाते है और काले पड़ जाते हैं।

काले पाउडर में टीलियोस्पोर्स होते हैं, अधिक संक्रमण की अवस्था को छोड़कर गेहूं का करनाल बंट रोग में भ्रूण पर कवक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। रोगग्रस्त दाने आंशिक रूप से काले चूर्ण में बदल जाते हैं। गहाई के बाद निकले दानों में बीच की दरार के साथ-साथ गहरे भूरे रंग के बीजाणु समूह में देखे जा सकते हैं।

अधिक संक्रमण की अवस्था में पूरा दाना खोखला हो जाता है। केवल बाहरी परत ही शेष रह जाती है। संक्रमित गेहूं के बीज से सड़ी हुई मछली की दुर्गन्ध आती है। जो ट्राईमिथाइल अमीन नामक रसायन के कारण होती है। इस रोग में कवक की उपस्थिति पेरीकार्प तक ही सीमित होती है और भ्रूण और बीज की पिछली परत पर रोग के प्रकोप का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

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