जीएम सरसों के खिलाफ सड़क पर उतरे देशभर के किसान

Update: 2016-10-02 18:43 GMT
रविवार को देशभर के किसान विभिन्न प्रदेशों में सीड सरसों के विरोध में सड़कों पर उतरे।

नई दिल्ली/लखनऊ। जीएम सरसों के खिलाफ देशभर के किसान विरोध स्वरूप सड़कों पर उतर आए हैं। दो अक्टूबर को देश की राजधानी सहित अन्य सभी प्रदेशों में कृषकों ने इस बीज के विरोध में अपनी आवाज बुलंद की। रविवार को आयोजित इस प्रदर्शन में देशभर के लाखों किसानों ने भाग लिया।

बीज सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की

भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। वे केंद्र सरकार द्वारा जीएम सरसों को मंजूरी देने का विरोध कर रहे थे। इस क्रम में भाकियू ने राजधानी स्थित विधानसभा से गाँधी प्रतिमा तक पैदल मार्च कर प्रदर्शन किया। उन्होंने गांधी प्रतिमा पर धरना देकर बीज सत्याग्रह आंदोलन चलाया। साथ्या ही, यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को एक ज्ञापन देकर भारत सरकार को पत्र लिखकर जीएम सीड सरसों को अनुमति न देने का अनुरोध किया।

किसानों ने दी शिकायत में कहा...

किसानों ने अपने ज्ञापन में लिखा है कि केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) संशोधित जीन वाली जीएम सरसों को अनुमति देने की ओर तेजी से अग्रसर है। पिछले वर्ष 2010 में इस कमेटी द्वारा बीटी बैंगन को अनुमति दिये जाने के बाद इसी मंत्रालय द्वारा बीटी बैंगन पर अनिश्चित काल के लिए प्रतिबंध लगाया था, जो अब तक जारी है। यानी छह साल गुजर जाने के बाद भी इस की सुरक्षा स्थापित नहीं हुई है। ऐसे में इस बीज को अनुमति देना भविष्य में भी दुष्परिणामों को लेकर अाएगा।

किसानों के हित का क्या होगा?

केंद्र सरकार राज्य सरकारों की राय की अनदेखी कर देश की कृषि को विदेशी कम्पनियों के हवाले करने की कोशिश में है। इसलिए जीएम कृषि उत्पादों को मंजूरी देते हुये राज्य सरकारों की राय को भी ध्यान में रखना जरूरी है। बीटी बैंगन पर प्रतिबंध के पीछे यह भी एक अहम कारण था। यह स्पष्ट है कि केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जिससे ऐसे राज्य में, जो नीतिगत तौर पर जीएम फसलों के खिलाफ हैं, वहां ऐसे बीजों को जाने से रोका जा सके। इस स्थिति में अगर केंद्र जीएम सरसों को मंजूरी देने पर जोर देगा तो किसानों का हित नहीं रहेगा।

बीटी कपास का दिया उदाहरण

कृषकों ने अपने ज्ञापन में लिखा है, बीटी कपास का हश्र देश के सामने है। जहां एक ओर बीटी कपास के आने के बाद सदियों से चली आ रही देसी किस्मों की शुद्धता चंद वर्षों में लगभग खत्म हो गई। बाजार में कपास का शुद्ध गैर-बीटी बीज मिलना दूभर हो गया। वहीं, चंद वर्षों में ही पहले बीटी कपास एक, फिर बीटी कपास दो और अब बीटी कपास तीन लाने की नौबत आ गई है। इस तकनीक से उत्पन्न बीज चंद बरसों में खत्म हो जाते हैं। बीज शायद उतने साल भी नहीं चलते जितने साल उन्हें विकसित करने में लगते हैं। कोई सरकार किस प्रकार उस तकनीक पर विश्वास कर के सरसों जैसे रोजमर्रा के खाद्य उत्पाद, में जीएम बीज लाने की सोच सकती है?

शोध के कागजात भी सार्वजनिक नहीं

बता दें कि जीएम सरसों को जिस खरपतवारनाशक, ग्लूफोसिनेट अमोनियम के प्रति सहनशील बनाया गया है वह भारत में प्रमुख तौर पर उस कम्पनी बेयर द्वारा ही बेचा जाता है जिसके पास इसमें प्रयुक्त जीन के बौद्धिक अधिकार हैं। उधर, दिल्ली विश्वविद्यालय की इस जीएम सरसों को बनाने में प्रयोग की गई विभिन्न जीन सामग्री और प्रक्रियाओं के कापीराइट की स्थिति भी अस्पष्ट है क्योंकि जीएम सरसों पर शोध एवं अनुसंधान के लिए किए गए सामग्री हस्तांतरण समझौतों के नियम और शर्तें सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं। इस हवाले के साथ ही ज्ञापन में लिखा गया है कि कहीं ऐसा न हो कि भारत का किसान फिर मोन्सेंटो या किसी ओर ऐसी ही बहुराष्ट्रीय कम्पनी के मकड़ जाल में फंस जाये।

समस्या तकनीक नहीं आर्थिक है

नीतिगत स्तर पर तिलहनों और खाद्य तेल से संबन्धित आयात-निर्यात नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो भारतीय उत्पादकों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित करें न कि सस्ते आयात के चलते उन्हें बाजार से बाहर धकेल दें। तिलहन की समर्थन मूल्य नीति एवं खरीदी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो किसानों को अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करे। इतिहास गवाह है कि जब-जब ऐसा हुआ है, देश खाद्य उत्पादन में आर्थिक निर्भरता की ओर अग्रसर हुआ है। जब विश्व व्यापार संगठन के नियम आयात पर 150 प्रतिशत तक की दर से कर लगाने की अनुमति देते हैं, पिछले कई सालों से यह दर शून्य रही है और अब कुछ समय से मात्र 20 प्रतिशत है। अगर वर्तमान भारत सरकार सचमुच में तिलहन उत्पादन बढ़ाने को उत्सुक है तो स्थायी परिणामों के लिए उसे इन सभी विकल्पों पर गंभीरता से काम करना चाहिए। देश में फसल आने के बाद तिलहन फसलों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी नहीं हो पाती है, जिसके कारण तिलहन का उत्पादन गिरा है।

क्या है जीएम सरसों

जीएम सरसों को लेकर किसानों में बढ़ी बेचैनी।

जीएम मतलब जेनेटिकली मॉडिफाइड। इस शब्द के ज़रिए हम उस टर्म से बावस्ता होते हैं जिनके जीन में कुछ बदलाव लाकर उन्हें कीट प्रतिरोधी, सूखा प्रतिरोधी, लवणता प्रतिरोधी या अधिक उत्पादक बनाया जाता है। जीएम सरसों के पक्ष में दावा यह किया गया है कि सरसों की यह नई किस्म पारंपरिक नस्लों के बनिस्बत 20-25 फीसद अधिक पैदावार देती है और इससे निकले तेल की क्वॉलिटी भी बेहतर होगी। जीएम सरसों के पक्ष में तर्क यह भी है कि देश को हर साल 60 हज़ार करोड़ रुपये का खाद्य तेल आयात करना पड़ता है। अगर सरसों का देशज उत्पादन बढ़ जाएगा तो आयात का भार कम होगा। मगर आरोप यह लगाया जा रहा है कि जीएम सरसों को अपनाने के बाद खेत में उपजने वाले खर-पतवार को खत्म करने के लिए मात्र एक कंपनी पर ही निर्भर होना पड़ेगा। साथ ही, इस बीज के सफल होने को लेकर भी नकारात्मक कयास लगाए जा रहे हैं।


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