एक महीने के अन्तराल के बाद जब संसद के बजट सत्र का दूसरा भाग आरम्भ हुआ तो कांग्रेस के लोग भूले नहीं थे कि उन्हें क्या करना है। वही रफ्तार बेढ़ंगी जो पहले थी वो अब भी है। स्पीकर के सामने वेल में आकर नारेबाजी आरम्भ कर दी ‘‘मोदीशाही तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।” उनकी याद्दाश्त इतनी तो होगी कि तानाशाही देश में 1975 में आरम्भ हुई थी और 1977 तक रही थी। तब सदन में इस तरह चीख नहीं सकते थे इसलिए तानाशाही तो नहीं है।
सारा देश देख रहा था और सोच रहा होगा क्या यही करने के लिए दिल्ली भेजा था। ऐसा हल्ला तो हमारे मजदूर भाई कर लेते हैं, कॉलेजों के छात्र और कर्मचारी भी कर लेते हैं लेकिन सांसदों ने सबको मात दे दी। जनता ने उन्हें भेजा है हल्ले का इलाज खोजने लेकिन वे तो मर्ज़ को ही हवा दे रहे हैं। कांग्रेस सांसद एक तो सदन में आते नहीं और यदि आते हैं तो शोर मचाने के लिए। जब आलोचना होती है तो कहते हैं जब ये विपक्ष में थे तो इन्होंने भी सदन को नहीं चलने दिया था। यानी आप दोनों बारी-बारी से देश के गरीबों का अरबों रुपया बरबाद करते रहें, सदन को न चलने दें, परस्पर दोषारोपण करते रहें और हो गया पगार भर का काम। वैसे जब पगार बढ़ानी होती है तो शोर भी नहीं मचाते।
टीवी पर संसद की कार्यवाही देख कर पता चल जाता है सदन में कितनी कुर्सियां खाली पड़ी हैं और कितने सांसद मौजूद हैं। जब कभी कक्षा में कुर्सियां खाली पड़ी रहती हैं और छात्र लगातार अनुपस्थित रहते हैं तो परीक्षा से वंचित कर दिए जाते है परन्तु यहां तो परीक्षा पांच साल बाद होती है। यदि किसी सांसद की हाजिरी 75 प्रतिशत से कम हो तो उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए और अगली बार चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए। पेंशन में समय नहीं जुड़ना चाहिए लेकिन ऐसा कानून बनाएगा कौन?
पेंशन की सुविधा सभी सांसदों और विधायकों को है भले ही गणना के नियम थोड़ा अलग है। कर्मचारियों और अधिकारियों के मामले में यदि सर्विस ब्रेक होता है तो पेंशन की अवधि कम हो जाती है लेकिन सांसदों के मामले में तो अविरल सेवा महीने दो महीने भी नहीं होती। सांसदों द्वारा जो आदर्श पेश किया जा रहा है, उसी का अनुसरण समाज के अन्य लोग भी करते हैं। सांसदों द्वारा धरना, हड़ताल और आन्दोलन होते हैं और छात्र और कर्मचारी भी यही करते हैं, समाधान कैसे निकलेगा असन्तोष का। यहां तक कि सदन में बहस के लिए सांसद होमवर्क करके भी नहीं आते और चर्चा का स्तर गिरता ही जा रहा है।
सभी सांसद और इनके साथ के नेता मिलकर करोड़ों रुपया चन्दा के रूप में इकट्ठा करते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं रहता। इस पर उन्हीं के द्वारा बनाया गया सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 का कानून भी नहीं लागू होता। पारदर्शिता से बचने का एक ही कारण हो सकता है कि ये लोग काले धन का उपयोग करके काली राजनीति करते हैं। आपस में कोई मतभेद नहीं। समाजसेवा तो एनजीओ भी करते हैं लेकिन उनके चन्दे का ऑडिट होता है तो इनका क्यों नहीं। अभी तक किसी दल ने अच्छा तर्क नहीं दिया है कि पार्टियों का धन सूचना अधिकार की परिधि के बाहर क्यों रहे। संसद में बड़ी संख्या में अापराधिक रिकॉर्ड वाले दागी सांसद मौजूद रहते हैं, शायद इसीलिए दंगाइयों जैसा आचरण देखने को मिलता है संसद में। ऐसे नेता हर पार्टी में हैं किसी में कम किसी में ज्यादा। हमारी पार्टियां और राजनेता जो कुछ कर रहे हैं वह प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
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