मालवा में बासमती की खेती पर दांव, उज्जैन के किसानों को मिली सफलता, इंदौर की जलवायु ने नहीं दिया साथ
मध्य प्रदेश के कई नए इलाकों में धान की खेती शुरु हुई है। सोयाबीन में लगातार नुकसान के बाद इन किसानों ने बासमती धान को विकल्प के रुप में चुना था, लेकिन कुछ को सफलता मिली तो कुछ जगहों पर किसान निराश हुए हैँ।
इंदौर/उज्जैन (एमपी)। अपनी खुशबू और स्वाद की वजह से बासमती चावल दुनियाभर में मशहूर है। यही वजह हैं मालवा के किसानों को इसकी खेती आकर्षित कर रही है। लिहाजा, इस साल मालवा अंचल (इंदौर, उज्जैन के आसपास के जिले) में लगभग 5,000-6,000 एकड़ से अधिक क्षेत्रफल में बासमती तथा चावल की अन्य किस्मों की खेती की जा रही है।
बीते दो वषों से उज्जैन जिले के कई गांवों में किसानों का रूझान बासमती और चावल की दूसरी किस्मों की खेती के प्रति काफी बढ़ा है। उज्जैन से सटे देवास जिले के किसान भी चावल की खेती कर रहे हैं। इंदौर जिले के किसानों ने भी इस साल पहली बार चावल की खेती की है। जहां उज्जैन और देवास जिले के किसान चावल की सफल खेती कर रहे हैं वहीं इंदौर जिले के किसानों को यह नवाचार महंगा पड़ा है।
इंदौर में बीते कुछ सालों से सोयाबीन की खेती में हो रहे हैं नुकसान के मद्देनज़र किसानों की दिलचस्पी चावल की खेती की तरफ बढ़ी थी। हालांकि इस नवाचार में किसानों को सफलता नहीं मिली और हजारों बीघा की फसल बर्बाद हो गई और किसानों ने समय से पहले ही फसल काटनी पड़ी तो कई जगह पशुओं को खिलाना पड़ा।
उज्जैन में कम पानी में पकने वाली किस्मों ने किया आकर्षित
दो साल से बासमती और दूसरी किस्मों की खेती कर रहे हैं उज्जैन जिले की घटिया तहसील के पिपलिया हामा गांव के प्रगतिशील फार्मर अश्विनी सिंह चौहान (43 वर्ष) बताते हैं, ''लगभग 100 एकड़ में चावल लगा रखा है, जिसमें बासमती चावल की पूसा 1509, जवाहर 206 और एमटीयू 1010 किस्में शामिल हैं। जून-जुलाई माह में सीड्रिल से सीधे बुवाई कर दी जाती है। जवाहर 206 किस्म से चिवड़ा और इडली डोसा जैसे उत्पादों को तैयार किया जाता है। इस किस्म को जबलपुर स्थित जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय ने ईजाद किया था। 120 दिनों में यह किस्म पक जाती है।"
उन्होंने आगे कहा, "एमटीयू 1010 किस्म की खेती पहली बार कर रहे हैं, यह किस्म पोहा तैयार करने के लिए उपयोगी है। इसका दाना पतला और पौधा छोटा होता है, जो 110 से 115 दिनों में पक जाती है। इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 50-55 क्विंटल उत्पादन लिया जा सकता है।"
कृषि वैज्ञानिक क्या कहते हैं?
उज्जैन के कृषि विज्ञान केन्द्र के कृषि वैज्ञानिक डीएस तोमर बताते हैं, ''उज्जैन जिले के कुछ किसान बीते दो सालों से चावल की खेती के प्रति रूझान दिखा रहे हैं। पिछले साल की तुलना में इस साल चावल का रकबा बढ़ा है। किसानों ने मध्य अवधि की किस्में लगा रखी है।''
डॉ. तोमर के मुताबिक मालवा में कई बार जून-जुलाई मानसून के समय लंबे समय तक बारिश नहीं होती है। ऐसे में किसानों के पास सिंचाई की व्यवस्था होना आवश्यक है। यदि किसानों के पास शुरूआती फसल में पानी देने की सुविधा है तो सफलतापूर्वक इसकी खेती की जा सकती है।
सोयाबीन की फसल लगातार खराब होने पर लगाया धान
उज्जैन जिले की घटिया तहसील के ककदवाली गांव के किसान अभिजीत सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया कि उनके पास कुल 25 एकड़ जमीन है। कुछ सालों से सोयाबीन की फसल लगातार खराब हो रही है। इस वजह से इस बार लगभग 8 एकड़ में चावल लगाया है। अभी फसल में बालियां आने लग गई हैं। उन्हें उम्मीद है कि चावल का अच्छा उत्पादन होगा।" उन्होंने चावल की जवाहर 206 किस्म बोई है। जिसमें प्रति बीघा 15 से 17 किलोग्राम बीज की जरुरत पड़ती है।
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इंदौर जिले के किसानों को उठाना पड़ा नुकसान
जहां उज्जैन जिले के किसानों को चावल की खेती में सफलता मिली है वहीं इंदौर जिले के किसानों का यह नवाचार असफल रहा है। सांवेर तहसील के बारोद गांव के किसान अर्जुन आंजना बताते हैं, ''उज्जैन जिले के किसानों की देखादेखी उन्होंने इस साल 40-45 एकड़ में चावल लगाया था। लेकिन समय पर बारिश नहीं होने की वजह से उनकी फसल खराब हो गई। इसके चलते फसल को समय से पहले ही काटना पड़ा।" अर्जुन अब अपने खेतों में आलू बोएंगे।
इंदौर में ही देपालपुर के पाड़ल्या गांव के किसान विजेन्द्र पटेल (38 वर्ष) के पास 30 एकड़ जमीन में धान बोया गया था लेकिन खरपतवार की वजह से फसल खराब हो गई। और फसल को चारे के रुप में गाय-भैसों को खिलानी पड़ी।
विजेंद्र पटेल के छोटे भाई और किसान हर्मेंद्र पटेल ( 32 वर्ष) कहते हैं, "चावल की खेती के लिए 40 इंच बारिश होना चाहिए। लेकिन समय पर पानी नहीं गिरा। इस वजह से उचित खरपतवार प्रबंधन नहीं कर सकें। 85 दिनों की फसल के बावजूद पौधों में बालियां नहीं आई थी। इस वजह से फसल की कटाई करवा दी गई।" चावल की खेती में प्रति बीघा 3 हजार का खर्च आता है। उन्होंने बताया कि देपालपुर तहसील के आसपास के गांव पाड़ल्या, जलोदिया, ओसरा, बरोदा, छदोड़ा, सोनाला के 30 से अधिक किसानों ने चावल की खेती की थी। लेकिन फसल पूरी तरह से ख़राब हो गई।
बरोदा गांव के अर्जुन आंजना आगे बताते हैं, 'इस बार इंदौर और उज्जैन जिलों में लगभग 10 हजार बीघा क्षेत्र में चावल की खेती की गई थी। हमारे क्षेत्र के कई किसानों की फसल खराब हो गई। लेकिन उज्जैन उसके आसपास के कई गांवों में किसानों की फसल अच्छी है।''
लेकिन क्या इंदौर जैसे कम पानी वाले इलाकों के लिए धान की खेती मुफीद है? इस सवाल के जवाब में इंदौर के कृषि विभाग के असिस्टेंट डायरेक्टर (ADA) गोपेश पाठक बताते हैं, "इस क्षेत्र की जलवायु, भूमि चावल की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है, जिसके कारण किसानों की फसल ख़राब हुई है। फिलहाल, इसका सर्वे कराया जाएगा कि क्षेत्र में कितने रकबे में चावल की खेती की गई थीं।"
वो आगे बताते हैं, "वैज्ञानिक तौर पर इंदौर और उसके आसपास के क्षेत्र के लिए चावल की खेती अनुसंशित नहीं है। हालांकि, देपालपुर और उसके आसपास के गांवों के कुछ किसानों ने नवाचार के तौर चावल की खेती की थी।"
मौसम विभाग के अनुसार, 1 सितंबर तक इंदौर जिला सूखे की चपेट में था। लेकिन पिछले 20 दिनों में 11 इंच से अधिक बारिश हुई है, जिसकी वजह से जिला सूखे की चपेट से बाहर आ गया है। सामान्यतौर पर इंदौर जिले में 34-35 इंच तक बारिश होती है। अगस्त माह तक 16 इंच बारिश हुई थी। इस लिहाज से जिले को 7-8 इंच बारिश की और जरुरत है।
मध्य प्रदेश जीआई टैग के लिए प्रयासरत
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के अलग हो जाने के बाद भी मध्य प्रदेश में बड़े पैमाने पर चावल की खेती होती है। यहां लगभग 17.25 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की खेती होती है। वहीं बासमती की खेती में प्रदेश में बड़े पैमाने पर होती है। प्रदेश के मुरैना, भिंड, ग्वालियर, शिवपुरी, दतिया, गुना, श्योपुर, विदिशा, रायसेन, होशंगाबाद, सीहोर, जबलपुर और नरसिंहपुर में बासमती का उत्पादन होता है। यही वजह है कि बासमती चावल की भौगोलिक पहचान के लिए मध्य प्रदेश 12 सालों से प्रयासरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट को मध्य प्रदेश में उगाए जाने वाले बासमती चावल को जीआई टैग देने वाली याचिका पर पुनः सुनवाई करने के आदेश दिए हैं। दरअसल, मध्य प्रदेश सरकार ने जीआई टैग की मांग इस तर्क पर की है कि यहां परंपरागत तरीके से बासमती चावल की खेती होती है। मध्य प्रदेश सरकार का कहना है कि एमपी में उत्पादित होने वाला बासमती पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्पादित बासमती की तुलना में बेहतर है।
भारत बासमती का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। भारत से इराक, ईरान, सउदी अरब, यूएई, कुवैत, यमन, यूके, यूएसए, कतर ओमान समेत कई देशों में बासमती निर्यात होता है। कृषि विभाग के मुताबिक मध्य प्रदेश सालाना 59,238 मीट्रिक टन बासमती निर्यात करता है, जो बेहतर क्वालिटी का होता है। बासमती को भौगालिक पहचान दिलाने वाली कानूनी लड़ाई में कई बार मध्य प्रदेश के पक्ष में फैसला आ चुका है, बावजूद एपीडा (कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण) की अपील और विरोध के कारण मामला अटकता रहा है।
बासमती की खेती से मध्य प्रदेश के तकरीबन 4 लाख किसान जुड़े हुए है, ऐसे में सरकार का कहना है कि इन किसानों के हित और बासमती की गुणवत्ता को देखते हुए जीआई टैग दे दिया जाए। इधर, एपीडा के अलावा जीआई रजिस्ट्री भी मध्य प्रदेश के दावे को खारिज करता रहा है। जीआई रजिस्ट्री के मुताबिक, जीआई टैग के लिए 'लोकप्रिय धारणा की मौलिक आवश्यकता' को पूरा करना होता है, जिसे मध्य प्रदेश पूरी नहीं करता है। दरअसल, गंगा के मैदानी क्षेत्र के खास हिस्से में उत्पादित बासमती को जीआई टैग दिया गया है, लेकिन मध्य प्रदेश इस दायरे में नहीं आता है।
भारत में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी यूपी और जम्मू कश्मीर के 77 जिलों को बासमती की अलग-अलग किस्मों के जीआई टैग प्राप्त है। जीआई टैग उत्पाद की भौगोलिक पहचान होता है। यह टैग मिलने के बाद उत्पाद को उस क्षेत्र असली उत्पाद माना जाता है।