कहीं किस्से कहानियों में न रह जाए ये मसकबीन..

आपने शायद बचपन में मसकबीन की धुन सुनी होगी लेकिन आने वाली पीढ़िया शायद इसे न सुन पाएं।

Update: 2018-05-12 09:00 GMT

लखनऊ। आपने मशकबीन या मोरबीन का नाम सुना है ? फिल्मों या फिर पुलिस और सेना के बैंड में देखा होगा। जिसे मुंह से फूंक मारकर बजाया जाता है। बिना मोरबीन शादी बारातें नहीं जाती थीं लेकिन अब ये लुप्त होने के कगार पर है... पहाड़ों में इसे मशकबीन या बीन बाजा भी कहते हैं। लेकिन अब ये सिर्फ कुछ पुराने कलाकारों के पास ही दिखते हैं। 

मोरबीन को, मशकबीन भी कहते हैं। यूपी, राजस्थान, पंजाब, उत्तराखंड से लेकर बिहार और बंगाल से लेकर देश के कई राज्यों में मोरबीन के सुर बोलते थे। लेकिन, वक्त की मार और कलाकारों की कमी के चलते इसका चलन कम हो गया है। मोरबीन की जगह गांव में बैंजों पहुंत रहे हैं। दरअसल मोरबीन को बजाना भी काफी मुश्किल हो हाता था। लेकिन कुछ कलाकार अपनी इस कला को आज भी सहेजे हैं। वो इसे अपने पुरखों की विरासत मानते हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक ऐसा ही गांव है बसहरी।

दुनियाभर में मैंगो बेल्ट यानी आम पट्टी कही जाने वाली माल तहसील के बसहरी गांव में एक टीम है जो आपको मोरबीन की तान सुना सकती है। हालांकि इस गांव तक पहुंचने के लिए गांव कनेक्शन को काफी मशक्कत करनी पड़ी। गांव कनेक्शन की टीम पहले गोमती नदी की तराई में बसे लासा गांव पहुंची, जहां के रामआसरे कभी अच्छे मोरबीन कलाकारों में गिने जाते थे।

बुजुर्ग रामआसरे 78 वर्ष उम्र का तकाजा देते हुए बताते हैं, अरे भैया मोरबीन और लिल्ली घोडी को कौन पूछता है। नहीं तो हमने भी कई सालों तक हजारों बारातों में खूब मोरबून बजाई है। लेकिन अब सांस नहीं रुकती। घर के लड़के नए जमाने के हैं, उन्हें ये सब करने में शर्म आती है।" मायूसी के बीच रामासरे बसहरी गांव का पता देते हैं जहां 5 -6  लोगों की एक मंडली इस कला को जिंदा रखे हैं।

बसहरी पहुचने पर मसकबीन का काम करने वाले 75 वर्षीय बाबू ने बताया, "जब से डीजे और बैंड आ गया तब से बीन और लिल्ली घोड़ी की मांग बहुत कम हो गयी फिर भी अभी काम चल रहा है, हमारी 6 लोगों की मण्डली है, बीन बजाने में कम से कम 6 लोगों की जरुरत होती है, एक शादी का 7 से 10 हजार रुपया मिल जाता है, अब पुराना जमाना तो रहा नहीं तो पहले जमींदार और बड़े लोग खुश होकर अच्छा ख़ासा इनाम भी देते थे, उस समय कला की इज्जत होती थी,एक कलाकार के लिए मजदूरी से ज्यादा महत्व इनाम और कलां की तारीफ़ का होता है अब तो बस लकीर पीटने की बात रह गयी।" 

 बाबू आगे बताते हैं कि अपनी मण्डली के साथ अब तक जिले ज्वार (क्षेत्र) की हजारों शादियों में बीन बजाई है,अब मण्डली के कई पुराने साथी नहीं रहे तो कुछ नए लोगो के साथ मिलकर मण्डली चला रहा हूँ। बाबू के साथ मसकबीन बजाने का काम करने वाले मझिगवां निवासी रामदीन मूंछ पर ताव देते हुए बताते है, " शादी में बीन बजाने के लिए जब तीस रुपए मिलते थे तब से बीन बजा रहा हूँ अब जमाना बहुत बदल गया है,बैंड पर तो सभी नाच रहे है, अब डीजे बजता है तो सास ,बहु ,देवर -भाभी ,लड़का ,बिटिया ,फूफा ,मौसा सब साथ ही नाच रहे हैं और मेहमान देखते हैं ऐसे में मसकबीन ,लिल्ली घोड़ी और लौंडा नाच कोई देखना नहीं चाहता।"
ऐसे ही नहीं बजती बीन.. मसक में साँसों को भरना पड़ता है ... 
बीन दिखाते हुए कलाकर बाबू बताते हैं कि ये जो मुंह में लगाने वाला पाइप है इसे "मुखलाल" कहाँ जाता है,जिस पाइप में बांसुरी की तरह छेद हैं, इसे "टनटन" कहते है और इस बाजे में जो ये झोले जैसा दिखता हैं इसे मसक कहते है ,मसक को रंगबिरंगे कपड़े से कवर किया जाता है और और सहयोग के लिए और पाइप होते हैं ,बीन बजाने से पहले मसक को गुब्बारे की तरह फुलाया जाता है और जब तक मसक में हवा रहती है तब तक धुन बजती रहती है ,बीन बजाने के समय तीन से चार लोग साथ में बीन बजाते है जैसे ही एक मसक में दुबारा हवा भरने की जरूरत होती है तो दूसरा बीन वाले लय को कवर कर लेता है ।
जानिये बीन के बारे में ...
बाबू आगे बताते हैं  मसकबीन बिना साथियों के नहीं बजाई जाती,बीन के साथी है," करताल" ,झुनझुना ,ढोलक ,मंजीरा और जनाना के कपड़े में एक आदमी और एक जोकर ये सब मिलकर बीन की मण्डली तैयार होती है, पिछले 5 दशकों से बीन बजाने का काम करने वाले बाबू निराश स्वर में कहते हैं,"बदलते समय में ये सब अब बहुत समय तक चलेगा ऐसा नहीं लगता नई पीढ़ी में ये हुनर अब हमारे गाँव में किसी के पास नहीं है, खुद मेरे अपने परिवार के बच्चे अब इसे सीखना नहीं चाहते बसहरी की ये बीन मण्डली लगता है मेरे साथ ही खत्म हो जाएगी।"
मण्डली में करताल बजाने वाले और करताल की धुन पर करतब दिखाने वाले 40 वर्षीय जयराम बताते हैं, "बीन मण्डली चलाना बहुत मेहनत का काम हैं सिर्फ इस काम के सहारे परिवार की रोजी रोटी चला पाना अब आसान नहीं है फिर भी सहालग में अभी भी ठीक -ठाक काम मिल जाता हैं पर कोई मेहनत के हिसाब से पैसे नहीं देना चाहता और इन कलाओं के कद्रदान भी अब कम हो गये हैं।"

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