लाला लाजपत राय की एक मुख़्तार से क्रांतिकारी बनने की कहानी

Update: 2019-01-28 09:20 GMT
लाला लाजपत राय।

लाला लाजपत राय को भारत के महान क्रांतिकारियों में गिना जाता है। लालाजी ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए आजीवन ब्रिटिश राजशक्ति का सामना किया। लेकिन बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि एक मुख़्तार (छोटा वकील) की नौकरी करने वाला 18 साल का लड़का लाजपत राय कैसे एक क्रांतिकारी बन गया।

लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 में अपने ननिहाल के ग्राम ढुंढिके, ज़िला फ़रीदकोट, पंजाब में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना ज़िले के जगराँव क़स्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे। पांच वर्ष की उम्र में लाजपत राय ने पढ़ाई शुरू की। सन 1880 में उन्होंने कलकत्ता तथा पंजाब विश्वविद्यालय से एंट्रेंस की परीक्षा एक वर्ष में उत्तीर्ण की और आगे पढ़ने के लिए लाहौर आ गए। यहाँ वे गर्वमेंट कॉलेज में दाखिल हुए और 1882 में एफए की परीक्षा तथा मुख़्तारी की परीक्षा साथ-साथ उत्तीर्ण की।

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लाला लाजपत राय ने एक मुख़्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवास स्थल जगराँव में ही वकालत आरम्भ कर दी थी। लेकिन यह क़स्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके काम के बढ़ने की ज्यादा सम्भावना नहीं थी। इसलिए वे रोहतक चले गये। उन दिनों पंजाब प्रदेश में वर्तमान हरियाणा, हिमाचल तथा आज के पाकिस्तानी पंजाब का भी समावेश था। रोहतक में रहते हुए ही उन्होंने 1885 ई. में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1886 में वे हिसार आए। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

लाला लाजपत राय जब हिसार में वकालत करते थे, तब उन्होंने कांग्रेस की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। 1892 में वे लाहौर चले गए। उनके हृदय में राष्ट्रीय भावना भी बचपन से ही अंकुरित हो उठी थी। 1888 के कांग्रेस के 'प्रयाग सम्मेलन' में वे मात्र 23 वर्ष की आयु में शामिल हुए थे। कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन' को सफल बनाने में लालाजी का ही हाथ था। वे 'हिसार नगर निगम' के सदस्य चुने गए थे और फिर बाद में सचिव भी चुन लिए गए।

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1888 में वे पहली बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे, जिसकी अध्यक्षता मि. जार्ज यूल ने की थी। 1897 और 1899 के देशव्यापी अकाल के समय लाजपत राय पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे आगे मोर्चे पर दिखाई दिए। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की।

लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों- लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षो तक कांग्रेस ने एक राजभवन संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्ष में एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होने और विनम्रतापूर्वक शासनों के सूत्रधारों से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिक से अधिक संख्या में दाखिल कराने का प्रयत्न करते थे।

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जब ब्रिटिश युवराज के भारत आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उनका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच से यह अपनी तरह का पहला तेजस्वी भाषण हुआ था, जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी। 1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निकाल कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नज़रबंद कर दिया गया, लेकिन देशवासियों द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका बड़े भाव के साथ स्वागत किया।

अंग्रेज़ों ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो लालाजी ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेज़ों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। 3 मई, 1907 को ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें रावलपिंडी में गिरफ़्तार कर लिया। रिहा होने के बाद भी लालाजी आज़ादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे। 1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने अपने सहयोगियों के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है।

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20 फ़रवरी, 1920 को जब लाला लाजपत राय स्वदेश लौटे तो अमृतसर में 'जलियांवाला बाग़ काण्ड' हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला में जल रहा था। इसी बीच महात्मा गाँधी ने 'असहयोग आन्दोलन' आरम्भ किया तो लालाजी पूरी तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये, जो सैद्धांतिक तौर पर रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में चलाया जा रहा था। 1920 में ही उन्होंने पंजाब में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण 1921 में लाजपत राय को जेल हुई। इसके बाद लालाजी ने 'लोक सेवक संघ' की स्थापना की। उनके नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल की आग की तरह फैल गया और जल्द ही वे 'पंजाब का शेर' या 'पंजाब केसरी' जैसे नामों से पुकारे जाने लगे।

1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और 'केन्द्रीय धारा सभा' के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पण्डित मोतीलाल नेहरू से राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने 'नेशनलिस्ट पार्टी' का गठन किया और दोबारा असेम्बली में पहुँच गये। लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल को 'लाल-बाल-पाल' के नाम से जाना जाता है। इन नेताओं ने सबसे पहले भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग उठाई थी।

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लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल

लालाजी ने एक बार देशवासियों से कहा था कि मैंने जो मार्ग चुना है, वह ग़लत नहीं है। हमारी कामयाबी एकदम निश्चित है। मुझे जेल से जल्द छोड़ दिया जाएगा और बाहर आकर मैं फिर से अपने कार्य को आगे बढ़ाऊंगा, ऐसा मेरा विश्वास है। यदि ऐसा न हुआ तो मैं उसके पास जाऊंगा, जिसने हमें इस दुनिया में भेजा था। मुझे उसके पास जाने में किसी भी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं होगी।

3 फ़रवरी, 1928 को साइमन कमीशन भारत पहुँचा, जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्टूबर, 1928 को एक बड़ी घटना घटी, जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपत राय पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था- 'मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।' और इस चोट ने कितने ही ऊधमसिंह और भगतसिंह तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली। इस घटना के 17 दिन बाद यानि 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी ने आख़िरी सांस ली और सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

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