स्मिता कहा करती थीं कि जब मैं मर जाऊंगी तो मुझे सुहागन की तरह तैयार करना

Update: 2019-10-17 04:56 GMT
फ़िल्म - बाज़ार

स्मिता पाटिल शायद अकेली एक्ट्रैस थीं जिन्हें कॉमर्शियल फिल्में कुछ खास पसंद नहीं थी
नसीरुद्दीन शाह, एक इंटरव्यू

हिंदी समानांतर सिनेमा में अलग पहचान बनाने वाली स्मिता पाटिल का फ़िल्मी सफ़र यूं तो सिर्फ 10 साल का था, लेकिन अदाकारी इतनी कमाल थी कि उनकी फ़िल्में आज भी भारतीय सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में शुमार होती हैं।17 अक्टूबर 1955 में जन्मीं स्मिता एक सक्रिय नारीवादी होने के साथ मुंबई के महिला केंद्र की सदस्य थी। वो महिलाओं के मुद्दों पर पूरी तरह से वचनबद्ध थीं और इसके साथ ही उन्होने उन फिल्मो मे काम करने को प्राथमिकता दी जो रवायती हिंदुस्तानी समाज मे शहरी मध्यवर्ग की महिलाओं की तरक्की उनकी कामुकता और सामाजिक बदलाव का सामना कर रही महिलाओं के सपनों को बेहतर तरीके से अभिवयक्ति कर सकें।

स्मिता पाटिल

स्मिता की पैदाइश पुणे की थी, उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार मे मंत्री और मां एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। शुरुआती पढ़ाई मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी। उनका कैमरे से पहला सामना टीवी न्यूज़ रीडर के तौर पर हुआ था। हमेशा से थोड़ी विद्रोही रही स्मिता की बड़ी आंखों और सांवले सौंदर्य ने पहली नज़र मे ही सभी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। कहा जाता है कि खबरें पढ़ने के लिए साड़ी पहनना ज़रूरी होता था और स्मिता को जींस पहनना अच्छा लगता था इसलिए स्मिता अक्सर जींस के ऊपर ही साड़ी लपेट लिया करती थीं

हम 'मंथन' की शूटिंग राजकोट से बाहर कर रहे थे। शूटिंग के दौरान स्मिता पाटिल गाँव की औरतों के साथ उन्हीं के कपड़े पहनकर बैठी हुई थीं, वहां पर शूटिंग देखने के लिए कॉलेज के कुछ बच्चे आए और उन्होंने पूछा की इस फ़िल्म की हीरोइन कहाँ है? किसी ने स्मिता की तरफ़ इशारा किया तो उस स्टूडेंट ने कहा, क्या तुम मज़ाक कर रहे हो, ये गाँव की औरत किसी बॉम्बे फ़िल्म की हीरोइन कैसे हो सकती है। यही ख़ासियत थी स्मिता की। वो जो भी करती थीं उस रोल में ढल जाती थीं। वो जो भी कैमरे के सामने करतीं वो उसका हिस्सा बन जाता था 
श्याम बेनेगल 

स्मिता पाटिल

स्मिता के फ़िल्मी करियर की शुरुआत अरुण खोपकर की डिप्लोमा फ़िल्म से हुई, लेकिन मुख्यधारा के सिनेमा में स्मिता ने श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी फिल्म 'चरणदास चोर' से अपनी मौजूदगी दर्ज की। दरअसल स्मिता के एक दोस्त हुआ करते थे हितेंदर घोष, जोकि श्याम बेनेगल के साउंड रिकॉर्डिस्ट और अच्छे दोस्त थे। उन्होंने एक बार श्याम बेनेगल से स्मिता का ज़िक्र किया था। बेनेगल ने उनकी न्यूज़ रीडिंग देखी और फिर ऑडिशन के लिए बुला लिया। स्मिता की प्रतिभा देखकर श्याम बेनेगल को यकीन हो गया था कि उन में काफी संभावनाएं हैं।

स्मिता पाटिल

साल 1977 स्मिता पाटिल के लिए एक अहम पड़ाव साबित हुआ इसी साल उनकी फ़िल्म भूमिका आई इस फ़िल्म के लिए स्मिता पाटिल को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भूमिका से स्मिता पाटिल का जो सफ़र शुरू हुआ वो चक्र, निशांत, आक्रोश, गिद्ध, मिर्च मसाला जैसी फ़िल्मों तक जारी रहा। 1981 में आई फ़िल्म चक्र के लिए उन्हें एक बार फिर से नेशनल आवर्ड मिला।

स्मिता पाटिल को जहां उनके किरदारों के लिए सराहा गया वहीं दूसरी तरफ़ एक्टर और पॉलिटिशियन राज बब्बर से जुड़े उनके सम्बन्ध को लेकर उनकी आलोचना भी की गई। राजबब्बर के साथ रिश्ता भी कुछ बहुत सहज नहीं रह गया था। स्मिता अपने आखिरी दिनों में बहुत अकेला महसूस करती थीं। सिर्फ 31 साल की उम्र में उनकी अचानक मौत आज भी रहस्यमयी है

मिर्च मसाला के लिए जब मैं लोकेशन देखने गुजरात गया तो मैंने देखा की मिर्च का सीजन शुरू हो चुका है और ये सीज़न दो महीने बाद ख़त्म हो जाएगा और शूट इसी सीज़न में होना ज़रूरी थी। मैं भाग कर बॉम्बे आया और स्मिता को ये बात बताईं। स्मिता ने बाकी फ़िल्मों की डेट आगे बढ़ा दी और इस फ़िल्म की शूटिंग शुरू की
केतन मेहता

स्मिता पाटिल

स्मिता पाटिल की एक आखिरी इच्छा थी। उनके मेकअप आर्टिस्ट दीपक सावंत बताते हैं, "स्मिता कहा करती थीं कि दीपक जब मर जाउंगी तो मुझे सुहागन की तरह तैयार करना। एक बार उन्होंने राज कुमार को एक फ़िल्म में लेटकर मेकअप कराते हुए देखा और मुझे कहने लगीं कि दीपक मेरा इसी तरह से मेकअप करो और मैंने कहा कि मैडम मुझसे ये नहीं होगा। ऐसा लगेगा जैसे किसी मुर्दे का मेकअप कर रहा हूं लेकिन ये दुखद है कि उनकी मौत पर, मैंने उनका ऐसे ही मेकअप किया।

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