बहुत पहले, विश्वबैंक द्वारा चलाए गए ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड के अन्तर्गत बनाए गए स्कूलों के आकर्षक भवन और उनमें सजाए गए उपकरण बच्चों को आकर्षित करके स्कूल की छत के नीचे नहीं ला सके हैं। तब लालू यादव जैसे नेताओं ने चरवाहा विद्यालय बनाए जहां बच्चे अपने जानवर ला सकते थे या फिर मिड-डे मील जिससे उन्हें स्कूल में गरम भोजन मिल सके।
कई साल पहले सरकारी स्कूल कुनौरा गाँव में तैनात एक अध्यापिका ने कहा था बच्चे कापी किताब लाना भूल सकते हैं लेकिन प्लेट लाना नहीं भूलते। पता नहीं अब क्या हाल है।
इस स्कीम की सीमाएं हैं सरकारी स्कूलों और सहायता प्राप्त विद्यालयों तक लेकिन बाकी स्कूलों के बच्चों के पेट की भूख भी मिटाने की आवश्यकता है। यदि स्कीम का उद्देश्य है स्कूली बच्चों का कुपोषण दूर करना और उन्हें स्कूल की तरफ प्रेरित करना तो दूसरे मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों को ‘झउवा के नीचे ढकने से काम नहीं चलेगा। बचे हुए बच्चे भी सर्व शिक्षा अभियान से आच्छादित हैं और वे भी भूखे व कुपोषित हैं इसलिए यह स्कीम भेदभाव करती है।
चूंकि इसका संचालन पंचायत के माध्यम से होना है और पंचायत तो सभी की है केवल कुछ बच्चों की नहीं। समस्या भोजन की नहीं है, समस्या है इसे पकाने और वितरित करने की, अध्यापक-अध्यापिकाओं द्वारा अपने उद्देश्य की पूर्ति की।
अब यह स्कीम आइसीडीएस (इन्टीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेन्ट स्कीम) की देख-रेख में रहेगी, आशा है कुछ बदलाव आए। स्कूल में खाना बनाने, परोसने और बर्तन मांजने के लिए जो कर्मचारी रहते हैं उनका कार्य विभाजन जातीय आधार पर सोच समझ कर किया जाता है। यदि जातीय पूर्वाग्रह समाप्त करने का लक्ष्य भी था तो वह पूरा नहीं हो रहा है।
दोपहर भोजन का कार्यक्रम ठीक प्रकार नहीं चल रहा है यह तत्कालीन प्राथमिक शिक्षा मंत्री किरण पाल सिंह ने स्वीकार किया था (हिटा, लख़नऊ 8 सितम्बर,2008) कि मिड-डे मील कार्यक्रम ठीक से नहीं चल रहा है और इसे ठीक करने के लिए टास्क फोर्स गठित करना होगा। सरकार वर्ष 2012 में बदलने के बाद सरकारी प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है लेकिन मीनू बदला है, पौष्टिक तत्वों पर विचार हुआ है और फल वितरित किया जाने लगा है।
मिड-डे मील में छिपकली से लेकर चूहा तक मिलने की खबरें मीडिया में आ चुकी हैं और बच्चों के बीमार होने से लेकर मरने तक की खबरें आई हैं। कुछ मुस्लिम बच्चे दोपहर का भोजन नहीं खाते शायद इसलिए कि वह खैरात का भोजन है या फिर गुणवत्ता ठीक नहीं। जो भी हो मिड-डे मील शिक्षा का विकल्प तो कतई नहीं है।
योजना में बदलाव के बाद बच्चे स्कूली भोजन के प्रति आकर्षित हुए होंगे लेकिन स्कूल में योजना और अध्यापकों द्वारा संचालन निश्चित रूप से पढ़ाई को प्रभावित करता है। अभिभावकों की प्राथमिकताएं स्पष्ट है, वे दोपहर के भोजन के बजाय गुणवत्तापरक शिक्षा को बेहतर मानते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि स्कूल एक स्कूल होता है जहां अच्छी शिक्षा की अपेक्षा है, उसके बाद दूसरी सुविधाएं।
सरकार के लिए यह चिन्ता का विषय होना चाहिए कि मुफ्त में किताबें, मुफ्त पढ़ाई और यूनिफार्म, दोपहर भोजन, वजीफा के बावजूद अभिभावक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों को भेजना बेहतर समझते हैं जहां यह सुविधाएं नहीं हैं, केवल अच्छी शिक्षा है। सरकारी अध्यापक यदि हड़तालों से फुरसत पाएंगे तो जरूर पढ़ाएंगे। प्रशिक्षण विहीन शिक्षामित्रों को जैसे-तैसे ट्रेनिंग देकर तैयार तो कर दिया गया है लेकिन उनसे अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती।
उचित यह होगा कि दोपहर का भोजन सभी ग्रामीण बच्चों के लिए प्रधान से बनवाया और बंटवाया जाए और अध्यापकों को अध्यापन करने दिया जाए। मां-बाप को अपने बच्चों की चिन्ता है और उन्हें ही समर्थ बनाकर जानकारी दी जाए तो छिपकली और चूहा नहीं मिलेंगे। स्कूल को स्कूल ही रहने दो, विद्या मन्दिर में विद्या ही बंटने दो।