गरीबी व जाागरूकता की कमी के चलते पैड का इस्तेमाल नहीं कर पातीं यहां किशोरियां

Update: 2018-02-17 17:10 GMT
सेनेटरी नैपकीन का इस्तेमाल करना हमारी मजबूरी 

“माहवारी के दौरान हम तो कपड़े का ही इस्तेमाल करते हैं, मां भी वही करती है और दादी कहती हैं कि पैड बेकार होता है, उससे तो बीमारी हो जाती है।“ ये कहना है उत्तराखंड के पिथौराखंड जिले के सरकारी स्कूल में पढ़ रहीं प्रियंका (18 वर्ष) का। प्रियंका आगे बताती हैं, “वैसे भी पैड खरीदना हमारे लिए महंगा पड़ता है, ये हमारे बस की बात नहीं है। हर महीने 50 से 55 रुपए सिर्फ इसके लिए कहां से दें।“

माहवारी आज भी कई राज्यों, गाँवों और कस्बों में एक शर्म का मुद्दा है, जिसपर कोई खुलकर बात नहीं करता और यही कारण है कि जागरूकता की कमी में इससे जुड़ी कई स्वास्थ्य समस्याओं को सामना किशोरियों को आगे चलकर करना पड़ता है।

सेनिटरी प्रोटेक्शन एवरी वूमेन हेल्थ राइट्स के एक शोध के अनुसार, करीब 71 फीसदी महिलाओं को प्रथम मासिक स्राव से पहले मासिक धर्म के बारे में जानकारी ही नहीं होती। इतना ही नहीं, करीब 70 फ़ीसदी महिलाओं की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि सेनिटरी नेपकिन खरीद पाएं, जिसकी वजह से वे कपड़े इस्तेमाल करती हैं।

देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी माहवारी को लेकर भ्रांतियां हैं। आदिवासी क्षेत्रों की ज्यादातर महिलाओं को सेनेटरी पैड के बारे में अभी भी जानकारी नहीं है। वहां की लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं आज भी माहवारी के दौरान गंदे कपड़े, घास, राख का उपयोग करती हैं। ऐसा ही हाल उत्तराखंड राज्य का है, यहां ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां राख, घास, गंदे कपड़े का इस्तेमाल इस दौरान करती हैं।

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पिथौरागढ़ की रहने वाली छात्रा ज्योति शर्मा (22 वर्ष) बताती हैं, “हम में से कई लड़कियां ऐसी होगीं जिन्हें पीरियड होने से पहले ये नहीं पता होता कि ये क्या है, क्यों होता है, क्योंकि इसके बारे में हम बात करना जरूरी नहीं समझते।“ आगे बताया, “जब मुझे पहली बार ये हुआ तो मुझे लगा था कि मुझे एड्स हो गया क्योंकि उन दिनों टीवी पर उसका बहुत विज्ञापन आता था और ये पता था कि कोई बुरी बीमारी है ये।”

दूसरी ओर अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों पर कस्बों में रहने वाली महिलाओं के लिए पैड खरीदना एक चुनौती है। जहां महिलाओं के लिए इस पर हर महीने इतना पैसा खर्च करना मुश्किल है, वहीं दुकान से जाकर इसे खरीदना भी उनके लिए कठिन है।

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पिथौरागढ़ जिले में गवर्नमेंट गर्ल्स इंटर कॉलेज की अध्यापिका लता पाठक ने ‘गाँव कनेक्शन’ से बातचीत में बताती हैं, “हमारे यहां मुश्किल से आठ फीसदी लड़कियां ही पैड का इस्तेमाल करती हैं। इसके दो कारण हैं, एक तो पैड का मंहगा होना और दूसरा इसकी जानकारी कम होना। अगर घर में तीन से चार महिलाएं हैं तो वो अपने मासिक धर्म के दौरान 40 से 45 रुपए प्रति महिला नहीं खर्च कर सकती हैं।“

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लता आगे बताती हैं, “यहां स्कूलों में ऐसी कोई योजना भी नहीं है, जिससे लड़कियों को हम फ्री में पैड दिला सकें, इमरजेंसी पड़ने पर ही देने की व्यवस्था है। यहां सरकारी स्कूल में वही लड़कियां आती हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं होती, इसलिए पैड खरीदना उनके बस की बात नहीं होती।

बता दें कि सेनेटरी नैपकीन को जीएसटी के 12 फीसदी स्लैब के दायरे में रखा गया था, इसका भारी विरोध भी हुआ था। हाल में रिलीज हुई फिल्म पैडमैन के बाद एक बाद फिर सोशल मीडिया पर ये विरोध शुरू हुआ है, जिसमें सेनेटरी पैड से जीएसटी हटाने की मांग की जा रही है।

माहवारी आज भी चुप्पी का विषय।

इन बातों का रखें ध्यान

वहीं माहवारी के दौरान होने वाली बीमारियों के बारे में महिला रोग विशेषज्ञ डॉ सुमित्रा मल्होत्रा बताती हैं, “पैड या कपड़ा दिन में कम से कम चार बार बदलना जरूरी है। लंबे समय तक एक ही कपड़े या पैड का इस्तेमाल इंफेक्शन का खतरा पैदा करता है। दूसरा बिना हाथ धोए पैड चेंज न करें, इसके बाद भी हाथ को अच्छी तरह धोए। इसे डिस्पोज़ करते समय अच्छे से लपेटकर ही कूड़ेदान में डालें।”

वो आगे बताती हैं, “इस दौरान कई तरह के इंफेक्शन हो सकते हैं जो आगे चलकर यूट्रस कैंसर या प्रजनन अंगों से जुड़े संक्रमण का कारण बनते हैं।”

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