राजनेताओं को विश्वसनीयता वापस लानी होगी

Update: 2016-08-04 05:30 GMT
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भारत के राजनेता पिछली अर्धशताब्दी में विश्वसनीयता की ढलान पर जाते रहे हैं। वे राष्ट्रहित के नाम पर दल बदलते रहते हैं। अपने परिवार को आगे बढ़ाने के लिए पार्टियां बनाते और बिगाड़ते हैं तथा गठबंधन बनाते और तोड़ते हैं। भारत में प्रजातंत्र के निर्माताओं ने राजनैतिक संस्कृति, परम्पराओं और मूल्यों की नींव डाली थी।

आज के नेता उस नींव में मट्ठा डाल रहे हैं। सोचिए वल्लभभाई पटेल के विषय में जिन्हें देशभर की सभी समितियां प्रधानमंत्री बनाना चाहती थीं लेकिन नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया क्योंकि गांधी जी ने राष्ट्रहित के नाम पर ऐसा करने की राय दी। आज के नेता झगड़ा करते हैं नेता विरोधी दल बनने के लिए, मुख्यमंत्री बनने, मंत्री बनने या फिर चुनाव लड़ने के लिए टिकट पाने के लिए।

तमाम मतभेदों के बावजूद नेहरू, अम्बेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपनी मान्यताओं पर बिना समझौता किए एक ही कैबिनेट में काम किया था। सिद्धान्तहीन राजनीति का आरम्भ 1967 में तब हुआ जब विभिन्न दलों का संयुक्त विधायक दल बनाकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई गई। उसके बाद 1971 में विविध दलों का ग्रैंड अलाएंस बनाकर सत्ता हथियाने का असफल प्रयास हुआ। कम्युनिस्ट, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, समाजवादी पार्टी, और गणतंत्र परिषद में कुछ भी समानता नहीं थी सिवाय सत्ता लोलुपता के।

सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक दलों का एक साथ आना और आपातकाल का विरोध तो समझ में आ सकता है लेकिन अस्सी के दशक में वीपी सिंह के नेतृत्व में कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ना बिल्कुल सिद्धान्तहीन था। राजनैतिक दलों में जब सिद्धान्तहीन समझौता भी नहीं हो पाता तब एक-दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़ते हैं।

चुनाव बाद मिलकर सरकार बना लेते हैं और मतदाता को ठेंगा दिखाते हैं। राजनेताओं का पतन तब अधिक हुआ जब उन्होंने डाकुओं, बदमाशों और बाहुबलियों की मदद से सत्ता हासिल करना आरम्भ कर दिया और असामाजिक तत्वों को संरक्षण देना शुरू किया। कालान्तर में असामाजिक तत्वों ने स्वयं सत्ता पर काबिज होना आरम्भ कर दिया। अच्छे दलों में जाकर वे शुद्ध नहीं हुए बल्कि दलों को ही गन्दा कर दिया।

कल्याण सिंह ‘जय श्री राम’ बोलते हुए मुख्यमंत्री बने, जब अनबन हुई तो कहा भाजपा को नेस्तनाबूत कर दूंगा। इस दल और उस पार्टी में घूमते हुए फिर भाजपा में आए और जय श्रीराम बोलने लगे। अब राज्यपाल हैं। राजनेता घासफुदक्का की तरह इधर-उधर कूदते रहते हैं, सिद्धान्त और विचारधारा कागजों तक सीमित हो जाती है। अब आयाराम-गयाराम की कहावत केवल हरियाणा तक सीमित नहीं है।

राजनेताओं के स्वार्थ सिद्धि के लिए आज सैकड़ों पार्टियां कुकुरमुत्ते की तरह उग रही हैं। इनमें से कई तो अल्पमत सरकारें बनवाने के लिए अपनी पार्टी और अपने को भी बेच देते हैं। दिवंगत कांशीराम तो ईमानदारी से कहते थे वह अवसरवादी हैं। अधिकांश दल व्यक्तियों के इर्द-गिर्द बनी हैं और उनके परिवारों के ही स्वार्थ सिद्ध करती हैं। यदि हमें स्वस्थ प्रजातंत्र के रूप में रहना है तो राष्ट्रनिर्माताओं के आदर्श अपनाने होंगे औरं वल्लभभाई पटेल और पुरुषोत्तम दास टंडन की तरह पद लोलुपता से हटकर त्यागभाव से काम करना होगा।

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