मैं पत्रकार हूं, एक लड़की हूं, लेकिन कठुआ जैसी ख़बरें मुझे भी डराती हैं...

Update: 2018-04-12 22:41 GMT
रिपोर्टर डायरी 

खबरें जो समसामायिक घटनाओं पर आधारित हो...कुछ नई जानकारी देती हों...हर किसी से सरोकार रखती हों...पत्रकारिता में कुछ ऐसी ही परिभाषा खबर की बताई गयी थी...लेकिन अब मैं जो खबरें पढ़ती हूँ, लिखती हूँ, जिनकी रिपोर्टिंग करती हूँ। ये खबरें अब उस परिभाषा से बिलकुल विपरीत हैं...ये खबरें अब हमें डराती हैं, असहनीय पीड़ा देती हैं, ऐसी घटनाओं से हमारा अपनों से और समाज से भरोसा उठता है। ये खबरें हमें घर के अन्दर कैद होने को विवश करती हैं।

आठ साल की आसिफ़ा के साथ आठ दरिंदों ने हैवानियत की, खुले में शौच के दौरान रेप फिर गला घोटकर हत्या, रेप के बाद 12 साल की बच्ची बनी माँ, पिता कर रहा कई महीने से अपनी बेटी का रेप...इस तरह की खबरें लिखते-लिखते एक पत्रकार होने के नाते खुद से कोफ़्त होने लगी है। हम इन खबरों की गहराई और पीड़ा को समझते तो हैं पर अफ़सोस हमारी लेखनी कुछ कर नहीं पाती...

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जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले के रसाना गांव की 8 साल की आसिफ़ा ? इस आठ साल की बच्ची को कई दिन तक भूखा-प्यासा रखा, नशे की गोलियां खिलाकर आठ लोग सामूहिक रेप कर हैवानियत की सारी हदें पार करते रहे...एक और आसिफ़ा चली गयी...देश में ऐसी न जाने कितनी आसिफ़ा मर जाती हैं...इसमें से कुछ ख़बरें ही हम और आप पढ़ पातें हैं, बाकि आयी गयी हो जाती हैं।

जैसा की हर रेप घटना के होता आया है, आसिफ़ा के साथ हुई दरिंदगी की चर्चा सत्ता के गलियारे, अख़बार और चैनलों की हेडिंग्स और हमारे जेहन में कुछ दिन तक ही जिन्दा रहेगी। कैंडल मार्च निकलेगा...सरकार और समाज के लोग एक दूसरे को कोसेंगे...पक्ष-विपक्ष इसे राजनीति और चुनावी मुद्दा बनाएंगे, हफ्ते पन्द्रह दिन में सब शांत हो जाएगा...

लेकिन आसिफ़ा अब कभी वापस नहीं लौटेगी ? एक माँ को क्या उसकी बेटी मिलेगी, शायद कभी नहीं। अगर दोषियों को सजा मिल भी गयी तो क्या ऐसी घटनाएं रुक जाएंगी? शायद कभी नहीं रुकेंगी...ऐसी न जाने कितनी बेटियों के साथ सामूहिक रेप होता रहेगा। कभी खेतों में कभी बंद कमरों में, कभी दूर जंगलों में इनकी चीखें दम तोड़ती रहेंगी।

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आसिफ़ा

30 दिसंबर 2017 को मैंने एक रेप पीड़िता को लोहिया अस्पताल में अपनी आँखों के सामने माँ बनते देखा था, तब उसकी उम्र मात्र 12 साल थी। इस ख़बर ने मुझे हिला दिया था, झकझोर दिया था। उस बच्ची की चीखें अभी तक मेरी कानों में गूंज ही रही थीं कि अब आसिफा के साथ हुई दरिंदगी से मैं एक बार फिर सहम सी गयी हूं। हमनें क्या किया ? कुछ नहीं...

पिछले दो सालों में अपनी रिपोर्टिंग के दौरान दुर्भाग्यवश ऐसी कई बेटियों से मिलना हुआ जिनके साथ रेप हुआ था। कुछ उन परिवार वालों से भी मिली जिनकी बेटियां सामूहिक रेप के बाद मर गईं थी। ये दोनों ही परिस्थियाँ तकलीफ़देह और मन को बेचैन करने वाली रहीं। इस तरह घटित होने वाली खबर लिखते हुए हमेशा मैं यही दुआ करती थी कि मुझे दोबारा कभी इस तरह की ख़बरें न लिखनी पड़ें। पर कभी ऐसा हुआ नहीं...दस पन्द्रह दिन में ही कोई न कोई खबर लिखनी पड़ जाती थी।

आसिफ़ा की घटना की पूरी जानकारी होने और चार्जशीट रिपोर्ट पढ़ने के बाद आज पूरे दिन काम करने में मन नहीं लगा। आसिफ़ा की तरह अपने गाँव और आसपास क्षेत्र की हजारों मासूम बेटियों की तस्वीर उभरकर सामने आने लगी। सोचने लगी जो बेटियां स्कूल पढ़ने जाती हैं, बकरियां चराने जाती हैं, जंगल से लकड़ियां बीनती हैं, खेतों में मजदूरी करती हैं, अपने घरों में अकेले रहती हैं...क्या ये बेटियां अपने गाँव, घर, पड़ोस, खेत-खलिहान में सुरक्षित हैं? जवाब न है...

जैसे मुझे चिंता हो रही है, वैसे ही अब आपको अपनी बेटी की चिंता हो रही होगी। कैसा हो गया हमारा देश, कैसा हो गया समाज...क्यों इतना ख़ुदगर्ज हो गए हम..आए दिन बेटियों के साथ हो रही छेड़खानी और रेप को कभी जाति का मुद्दा बना दिया जाता है तो कभी राजनीति का। कई घटनाओं में बेटियों को ही दोषी करार देते हैं, तो कहीं आरोपियों को दबंगई और सत्ता में होने की वजह से सजा ही नहीं मिलती।

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निर्भया घटना के बाद कानून तो कठोर बनाए गए लेकिन उनका असर देखने को ही नहीं मिला। अगर कानून का असर होता तो शायद आसिफ़ा जैसी घटना दोबारा कभी न होती। निर्भया के बाद आसिफ़ा जैसी न जाने कितनी घटनाएं घटी होंगी, कुछ घटनाएं चर्चाओं में रही तो कुछ ने ख़ामोशी से दम तोड़ दिया। ऐसी कितनी और घटनाएं घटित होंगी...कितनी और बेटियों को अपनी कुर्बानी देनी होगी... जब सरकार सक्रिय होकर हलचल में आएगी। दोषियों को कब ऐसी कठोर सजा मिलेगी जिससे दूसरा कोई व्यक्ति घटना को अंजाम देने से पहले सौ बार सोचे, उसकी रूंह कांपे...क्या हमारे देश की सरकार कभी ऐसे फैसले ले पाएगी ?

जब गाँव में कोई अपनी लड़की को कहीं अकेले नहीं जाने देता या फिर स्कूल दूर होने की वजह से पढ़ाई छुड़वा देते या फिर कम उम्र में शादी कर देते ऐसे माता-पिता से हमारी हमेशा शिकायतें रहीं। जब उनसे पूंछती थी आप कैसा क्यों करते हैं तो वो बताते थे, ‘बिटिया जमाना ख़राब है, कोई ऊँच-नीच बात हो गयी सब हमें ही दोष देंगे। तब उनकी इस सोच को मैं पुराने जमाने की सोच समझती थी । आसिफ़ा की इस घटना के बाद आज मुझे समझ आ रहा है कि आख़िर उनकी ऊँच-नीच बात का क्या मतलब था।

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कुछ गिने-चुने दरिंदो की वजह से आज देश की हजारों बेटियां जन्म लेने से पहले ही कोख़ में मार दी जाती हैं, खेलने-कूदने की उम्र में उन्हें घर में कैद कर दिया जाता है, पढ़ने-लिखने और कुछ बनने की उम्र में उनका बाल-विवाह कर दिया जाता है। आख़िर देश की बेटियों के साथ कब तक ये बदसलूकी होती रहेगी, कब तक उन्हें खुलकर खुले आसमान में जीने का मौका नहीं मिलेगा ? मेरा ये सवाल है खुद से और आप सबसे भी...किसी के पास इन सवालों का जबाब हो तो जरुर बताएं...?

आज से दो साल पहले तक जब तक मैंने इस तरह की घटनायें सिर्फ सुनी थी, पढ़ीं थी, तब तक मैं बेखौफ़ होकर इधर-उधर जाने से कभी डरती नहीं थी। बहुत यात्राएँ करती थी... देर रात, जल्द सुबह इधर-उधर आना-जाना हमारे लिए सामान्य बात थी। घर, परिवार, दोस्त, मेरी इस निर्भीकता को हमेशा टोकते थे। कहते थे सब, ‘तुम डरती नहीं हो, कभी कुछ हो जाएगा तब तुम्हें समझ आएगा।

मैं उनकी इस चिंता को हमेशा नजरअंदाज कर हंसकर टाल देती थी, लेकिन अब कठुआ जैसी ख़बरें मुझे डराती हैं। देर रात घर से बाहर निकलना अब मेरे लिए सामान्य बात नहीं है। अब मैं जल्दी किसी के साथ जाना सहज महसूस नहीं करती। देर रात जब कभी यात्रा करती हूँ एक अनहोनी का डर हमेशा लगा रहता है। सोचती हूँ जब मैं लखनऊ में खुद को सुरक्षित और सहज नहीं पाती हूँ तो गाँव की बेटियों की क्या स्थिति होगी। बहुत कुछ लिखने को है...इन दो सालों में पीड़ा देने वाले कई अनुभव रहे हैं...लेकिन आज इतना ही...हर बार की तरह इस बार भी यही दुआ करूंगी...इस तरह दर्दनाक घटना हमारे देश में दोबारा कभी न हो...इस तरह की ख़बरें पढ़नें और लिखने की अब मुझमें हिम्मत नहीं बची है।

नोट- ये मेरी व्यक्तिगत राय है।

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