आर्थिक ऑपरेशन की पीड़ा में बार्टर प्रणाली मददगार होती

Update: 2016-11-17 20:23 GMT
साभार: इंटरनेट

बार्टर प्रणाली यानी वस्तु विनिमय, पुराने समय में आपस में वस्तुओं की अदला-बदली करके काम चलाया जाता था। ऐसा नहीं है कि यह बाबा आदम के जमाने की बात है, मैंने यह प्रणाली मध्य प्रदेश के बस्तर और सीधी व बिहार के संथल पनरगना में आदिवासियों में चलते हुए देखी थी। वे सीधे लोग होते हैं और उनके पास महुआ, कोलैया, मड़वा, सावां जैसे पदार्थ होते हैं जिसके बदले वे मसाले, गुड़, तम्बाकू आदि लेते हैं। सभ्य समाज के लोग उन्हें खूब ठगते हैं लेकिन उनका काम चलता रहता है। जब गांधी जी ने जब स्वावलंबी गाँवों की बात कही थी तो उसमें नोट छापना शामिल नहीं होगा, बार्टर सिस्टम का परस्पर सहयोग रहा होगा।

बचपन में लगभग 65 साल पहले मेरे गाँव करुवा में एक जोधे साह की दुकान थी। हम वहां एक छोटी टोकरी भर अनाज ले जाते थे और नमक, तेल, मसाले, गुड़ जो भी घर से कहा जाता था हम ले आते थे। वह बच्चों को ठगता नहीं था। बाद में देवरा में भी लछिमन बाजपेयी ने दुकान आरम्भ की थी और तब तक वस्तु विनिमय के साथ सिक्के भी प्रचलित हो गए थे। खेतों में बहुत काम रहता था और घर में पैसे की कमी, मजदूरी करने वाले अनाज नहीं लेते थे क्योंकि अनाज तो उनके घर में रहता था। तब एक आदमी दूसरे के खेत में काम कर देता था और दूसरा वाला पहले के खेत में। इसे जित्ता प्रणाली कहते थे। इससे श्रम और पूंजी के बीच सन्तुलन रहता था और बिना नोट या सिक्कों के काम चल जाता था।

पुराने समय में कुछ लोग गाँवों और शहरों में भी बर्तन लेकर घूमते रहते थे और घर के पुराने कपड़े लेकर कुछ न कुछ बर्तन दे देते थे। मैं कभी समझ नहीं पाया था कि पुराने कपड़े और बर्तनों का मूल्य निधार्रण कैसे करते होंगे। श्रम के बदले किसान अनाज देता था यह सामान्य सी बात थी। धोबी, नाई, कुम्हार, लोहार, माली सब फसल पर खेत से अनाज लेते थे। मैंने उनके घरों में खाने की कभी तंगी नहीं देखी। गाँवों में सब्जी बेचने वाले या महिलाओं को चूड़ियां पहनाने मनिहार आते थे और उन्हें बदले में अनाज ही मिलता था। सिस्टम काम करता था। इमरजेंसी में गाँवों में अब भी यह काम कर सकता है।

सब्जी वालों की तरह गाँव-गाँव मिठाई बेचने वाले अथवा कलाबाजी दिखाकर मनोरंजन करते वाले आते रहते थे और कला के बदले अनाज लेते थे। जमींदार को भी मासूल या लगान के बदले अनाज दिया जाता था और कभी कठिनाई नहीं हुई। मैं स्कूल जाता था और स्याही, पेन, निब, कॉपी खरीदने के लिए कुछ अनाज दे दिया जाता था और हमारा काम चल जाता था। खेत के लिए बीज खरीदने को पैसे नहीं हुए तो गाँव के ही लोग बीज देकर फसल पर डेढ़ गुना वही अनाज ले लेते थे। गरीब के लिए घाटे का सौदा था लेकिन काम चल जाता था।

मोदी ने नोटों पर सर्जिकल स्ट्राइक तो किया लेकिन गाँव का गरीब कितने दिन तक नमक रोटी खाएगा, यह नहीं सोचा। सरकार को प्रधानों पर निर्भरता कबूल नहीं लेकिन पंचायत मित्र, बैंक मित्र, शिक्षा मित्र, स्वास्थ्य मित्र जैसे ना जाने कितने मित्र बनाए हैं उनका उपयोग करके उन गरीबों की, जो कैशलेस आदान-प्रदान को नहीं जानते केवल वस्तु विनिमय को समझ सकते हैं, जिन्दगी आसान कर सकते थे। गाँववालों का जीवन कम कष्टकर बनाया जा सकता था। जो हुआ वह वैसा ही था कि नाक में काले धन की मक्खी घुस गई थी तो आदमी भड़भूजे के भाड़ में कूद गया, यह नहीं सोचा मक्खी तो मरेगी साथ में वह खुद भी नहीं बचेगा।

मैं उम्मीद करता हूं भविष्य के आर्थिक सुधारों में ऑपरेशन करते समय मरीज़ को कम से कम दर्द देने की व्यवस्था करनी होगी। करना बहुत है और लक्ष्य सराहनीय है लेकिन मार्ग इतना दुष्कर न हो कि वहां तक पहुंच ही न पाएं।

sbmisra@gaonconnection.com

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