मौजूदा मानसिकता में स्वच्छ भारत आसान नहीं है 

Update: 2016-11-02 12:29 GMT
फोटो: विनय गुप्ता।

दीपावली का त्योहार आया और चला गया लेकिन पीछे छोड़ गया पटाखों का कचरा, हवा में कार्बन डाइ ऑक्साइड और ध्वनि प्रदूषण। अच्छी बात है कि यह पिछले साल से कुछ कम था। लक्ष्मी गणेश की मूर्तियां कुछ लोग तो धातु की बनाकर साल दर साल पूजते रहते हैं लेकिन अधिकांश लोगा रंग-बिरंगी मिट्टी की मूर्तियों की पूजा करते और जल में प्रवाह कर देते हैं। फूल, मिठाई, खील और मूर्तियों को रखने और बेचने में प्लास्टिक की बड़ी मात्रा उपयोग में लाई जाती है और प्रदूषण का अंग बनती है। ऐसा त्योहारों या विशेष आयोजनों के समय होता है लेकिन दिन प्रतिदिन के जीवन में भी कोई बेहतर हालात नहीं हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गांधी का स्वच्छ भारत का सपना पूरा करने का बीड़ा उठाया है। यह एक सराहनीय कदम है परन्तु क्या हमारा देश इसके लिए मानसिक रूप से तैयार है? गाँव कनेक्शन के संवाददाताओं ने जो देखा और रिपोर्ट किया उसके अनुसार गाँवों में शौचालय तो बने पड़े हैं फिर भी गाँव के लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं। आगे भी ऐसे ही शौचालय बनते रहेंगे और आगे भी ग्रामीण उन्हें बेहतर विकल्प नहीं मानेंगे। गाँवों में शौचालय बन रहे हैं लेकिन शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं की जाती, जमादार बड़ी संख्या में अच्छे वेतन पर नियुक्त किए गए हैं परन्तु वे नालियां, गलियां और गाँव ही नहीं साफ करते तो शौचालय क्या करेंगे।

ग्रामीण लोग खेतों में शौच जाते हैं तो वह मल तो खाद बनकर मिट्टी बन जाता है लेकिन शहरों में लोग पान, तम्बाकू और मसाला खाकर सड़क पर या बिल्डिंग के कोने पर दस्तावर पिचकारी मारते हैं तो इसे रोकने के लिए शौचालय बनाने की नहीं मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। सड़कों पर झाड़ू लग जाने के साथ ही जरूरी है कचरा विसर्जन। अस्पतालों का कचरा, मन्दिरों के फूल पत्ते और पूजा सामग्री, कारखानों का कचरा, लोगों का मल मूत्र, खेतों से बहकर आए कीटनाशक और उर्वरक, मेलों और धार्मिक आयोजनों से निकली प्लास्टिक और गन्दगी यह सब भी हटानी होगी। नदियों के किनारे शवदाह से मोक्ष मिले या न मिले, नदी में अधजले शव डालने से जल प्रदूषण की गारन्टी है।

जो कचरा आस्थाजनित है उसका समाधान आसान नहीं होता। हर साल मूर्तियां स्थापित की जाती हैं और उसे नदी, झील या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है। दुर्गा, गणेश, लक्ष्मी या फिर अन्य देवी-देवताओं के नाम पर ये आयोजन होते हैं। कुछ मन्दिरों में तो चढ़ावा के फूलों से पवित्र खाद बनाने का काम आरम्भ हुआ है, यह सराहनीय कदम है लेकिन प्लास्टिक की थैलियों के बारे में भी सोचना होगा। गायें इसे खाती हैं और मरती हैं, कई किलो तक प्लास्टिक उनके पेट से निकलता है मरने के बाद। जो लोग गोमाता की जय बोलते रहते हैं उन पर प्लास्टिक खाकर गाय मरने के बाद गोहत्या का पाप लगता है। जब तक प्लास्टिक की थैलियां बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध नहीं लगेगा, इस बीमारी से निजात नहीं मिलेगी। गाँवों की बाजारों में उल्टा टंगे खालरहित बकरों का खून, सब्जी मंडी अथवा मांस मछली की मंडी की गन्दगी सब अन्ततः नदियों में ही जाते हैं। जब तक मुरादाबाद का पीतल उद्योग, कानपुर और उन्नाव का चमड़ा उद्योग और बनारस के कपड़ा कारखाने और उन शहरों के बुचड़खाने स्थारनान्तरित नहीं किए जाते तब तक स्वच्छ गंगा की बात सोचना नादानी होगी। भारत को स्वच्छ दिखना ही नहीं, होना भी पड़ेगा। मिट्टी, पानी और हवा के प्रदूषण की जड़ में हमारी मानसिकता है।

स्वच्छ भारत के मार्ग में बाधक है घनी आबादी और गरीबी की जीवन शैली। यदि यहां के भी स्कूल कॉलेजों में छात्रों से अपनी कक्षाएं साफ करने के लिए कहा जाए तो पत्रकार कैमरा लेकर पहुंच जाते हैं। गाँव में या शहरों में भी घरों से कूड़ा उठाने की उचित व्यवस्था नहीं है। जानवर मर जाने पर ठेकेदार उसकी खाल उधेड़कर निकाल ले जाते हैं और मांस छोड़ जाते हैं जो खुले में सड़ता रहता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्देश दे रखा है कि शहर में गाय-भैंसे पालकर डेयरी ना चलाई जाए फिर भी सड़कों पर घूमते हुए जानवर गोबर और मूत्र फैलाते रहते हैं।

स्थानीय मेला, यहां तक कि कुम्भ जैसे आयोजनों में भी मल और कचरा विसर्जन की उचित व्यवस्था नहीं रहती। भीड़ इकट्ठी कर ली जाती है चाहे नेताओं द्वारा, साधु-संन्यासियों द्वारा, धार्मिक आयोजनों पर हो तो भीड़ अपने, द्वारा फेंका गया कचरा और मलमूत्र छोड़कर चली जाती है। हमारे धर्म में व्यक्तिगत स्वच्छता पर जोर है परन्तु सामूहिक स्वच्छता पर नहीं। इसके लिए मानसिकता में बदलाव की जरूरत है।

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