पीने के पानी का बाज़ारीकरण दु:खदायी

Update: 2017-01-21 18:10 GMT
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार प्रदूषित और संक्रमित जल के सेवन से प्रतिवर्ष 3.4 मिलियन (34 लाख) लोगों की मृत्यु हो जाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार प्रदूषित और संक्रमित जल के सेवन से प्रतिवर्ष 3.4 मिलियन (34 लाख) लोगों की मृत्यु हो जाती है जो यह साबित करता है कि सारी दुनिया में लोगों की असमय मौत की यह एक मुख्य वजह है। इन लोगों में मुख्यत: बच्चे होते हैं जो संक्रमित जल में पनप रहे सूक्ष्मजीवों के आक्रमण की वजह से मारे जाते हैं।

मेडिकल जर्नल “लांसेट” में प्रकाशित एक रपट के अनुसार अपर्याप्त शुद्ध पेयजल, जल संक्रामकता, जलजनित रोगों की वजह से जितनी मौतें होती है उतनी मौतें आतंकवाद, भारी तबाही के हथियारों के उपयोग और युद्ध आदि के बाद हुई मौतों के सारे आंकड़ों को मिलाने के पश्चात भी नहीं होती। यूनाईटेड नेशन्स द्वारा किए एक आकलन के अनुसार प्रदूषित जल के सेवन की वजह से दुनियाभर में प्रतिदिन 4000 बच्चों की मौत होती है और इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अफ्रीका और एशिया के हर 10 बच्चों में से चार बच्चों की मौत की वजह भी यही होती है क्योंकि यहां शुद्ध पेयजल का अभाव अनेक हिस्सों में देखा जा सकता है।

स्वस्थ जीवन और लंबी आयुष के लिए शुद्ध पेयजल को प्राणदायी और अतिमहत्वपूर्ण माना जाता रहा है किंतु पिछले दो दशकों में शुद्ध पेयजल या प्राकृतिक खनिजयुक्त जल के नाम पर जिस तरह का व्यवसायीकरण हुआ है, वो नितांत चिंतनीय है। प्राकृतिक संसाधनों की बाहुल्यता के बावजूद हमारे देश में पानी का बाजारीकरण होना दु:खदायी लगता है। माजरा कुछ इस तरह है कि स्वस्थ पेयजल के नाम पर हिन्दुस्तानी बटुए का काफ़ी हिस्सा बहुराष्ट्रीय कंपनियां छीन ले जाती हैं जबकि हमारे देश के गरीब तबके के लिए यह कदापि संभव नहीं कि वो तथाकथित बाजारू शुद्ध पानी का उपभोग कर पाए, वो भी एक लीटर पानी उस कीमत में जो उसकी दिनभर की कमाई का आधा हिस्सा हो।

यद्यपि प्राचीनकाल से अनेक जन सभ्यताओं में शुद्ध पेयजल प्राप्ति के लिए पारंपरिक नुस्ख़ों का उपयोग होता रहा है लेकिन भागदौड़ भरी इस शहरीकरण की जिंदगी में हम अपनी प्राचीन परंपरागत तकनीकियों और पद्धतियों को दरकिनार करते गए और तथाकथित तौर पर अपने आप को विकसित करने की होड़ में लग गए। विकसित होने की इस अंधाधुंध दौड़ में हमने क्या खोया और क्या पाया, ये जग जाहिर है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक और रिपोर्ट के अनुसार स्वास तंत्र संक्रमण और दस्त जनित रोगों दुनिया भर में 10 प्रतिशत लोगों की मृत्यु का कारण है जो कि एड्स (4.9 प्रतिशत), फ़ेफ़ड़ों का कैंसर (2.2 प्रतिशत), पेट का कैंसर (1.5 प्रतिशत), सड़क दुर्घटनाओं (2.1 प्रतिशत), आत्महत्या (1.5 प्रतिशत) और मलेरिया (2.2 प्रतिशत) की तुलना में कहीं ज्यादा है। अब यदि यह देखा जाए कि श्वास तंत्र संक्रमण और दस्तजनित रोगों के बचाव के लिए दुनियाभर में कुल कितना खर्च किया जाता है तो बाकि कारणों की तुलना में काफ़ी कम दिखाई देगा। एड्स, कैंसर जैसे रोगों के निवारण, उपचार आदि के लिए कई बिलियन और ट्रिलियन डालर्स का खर्च किया जा चुका है, लेकिन दुनियाभर के बहुत बड़े हिस्से आज भी शुद्ध पेयजल प्राप्ति से परे हैं।

विज्ञान जगत के पिछले कुछ वर्षों की शोधों के परिणामों को देखा जाए तो आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान का लोहा मानने में हमें देरी नहीं करनी चाहिए। निर्गुंड़ी, तुलसी, सहजन, निर्मली जैसी वनस्पतियों की मदद से पारंपरिक जानकार आज भी जल शुद्धीकरण की प्रक्रिया को अंजाम देते हैं, क्या इस तरह के पारंपरिक उपायों पर आधुनिक विज्ञान की मदद से नए जुगाड़ तैयार नहीं किए जा सकते? शुद्ध पेयजल की प्राप्ति से ना सिर्फ आमजनों की सेहत में फ़ायदा होगा अपितु विश्वमंच पर भारत वर्ष को तकलीफ़ देने वाले जलजनित रोगों से मृत्युदर के आंकड़ों में एक हद तक सुधार आ जाएगा।

जब तक हमारे देश में स्वच्छ पेयजल का अभाव होगा, तब तक देश के सुनहरे भविष्य की सोच भी करना मुश्किल है, आखिर जल ही जीवन है, जीवन का आधार है। हमारे देश में शुद्ध पेयजल की प्राप्ति एक विकराल समस्या है और इसके लिए ना जाने कितना पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, आदिवासियों के पारंपरिक हर्बल ज्ञान को स्रोत मानकर इस पर गहन अध्धयन किया जाए तो निश्चित ही आमजनों तक शुद्ध पेयजल आसानी से पहुंच जाएगा। बायोरेमेडियेशन जैसी तकनीकियों से पारंपरिक ज्ञान का परीक्षण किया जाना चाहिए ताकि प्राप्त परिणाम आदिवासियों के इस पारंपरिक हर्बल ज्ञान की पैठ दुनिया को दिखा सके, अनुभव करा सके।

(लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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