देश अब योजनाओं से ज्यादा उनमें पारदर्शिता चाहता है

Update: 2017-02-03 20:30 GMT
इस बार के बजट का ना तो उत्पादकता पर फोकस है और न यह विकासोन्मुख है, इसे लोकलुभावन भी नहीं कहा जा सकता।

डाॅ. एसबी मिश्रा

देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत वर्ष 2017-18 के बजट का ना तो उत्पादकता पर फोकस है और न यह विकासोन्मुख है, इसे लोकलुभावन भी नहीं कहा जा सकता। अच्छी बात है कि इसमें कर्जा माफी की बात नहीं है बल्कि कम ब्याज अथवा ब्याज रहित कर्जा किसानों को देने की बात है। सम्भव है फ्री बिजली, पानी और कर्जा माफी का काम प्रान्तीय सरकारों पर छोड़ दिया गया है। किसानों में कर्जा अदा करने की आदत बनी रहेगी।

मनरेगा, आवास योजना और फसल बीमा के पुराने नुस्खे अजमाए गए हैं लेकिन यदि उनके काम का ऑडिट करके पारदर्शिता लाकर दोष दूर न किए गए तो अप्रभावी और अनुत्पादक ही रहेंगे। क्या मनरेगा में केवल फावड़ा चलाने का काम होता रहेगा और क्या आवास की कुंजी प्रधान के हाथ ही रहेगी। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानी कच्चे माल और कृषि उत्पादों की उपलब्धता के आधार पर उद्योग लगाने को कोई प्रोत्साहन नहीं है तब शहर छोड़कर उद्योग लगाने कोई गाँवों को क्यों जाएगा। गाँव का नौजवान वहां किसके सहारे रुकेगा।

महंगाई और मन्दी के बीच सन्तुलन स्थापित करना आसान नहीं था और हुआ भी नहीं लेकिन, जिस देश में 65 प्रतिशत आबादी नौजवानों की है और गाँवों से शहर की ओर पलायन एक बड़ी समस्या है वहां इस पलायन को रोकने के उपाय होने चाहिए थे। महिला सशक्तीकरण के लिए व्यवस्था की गई है और इस दिशा में आरक्षण देकर महिला प्रधान जो बनाए गए थे उनकी जगह प्रधानपतियों का सशक्तीकरण हुआ है, उनका नहीं। उन्हें शिक्षण प्रशिक्षण और मशीनी सुविधाएं देकर खाद्य प्रसंस्करण से जुड़े उद्योगों के लिए प्रेरित किया जा सकता था।

बुजुर्गों को 60 साल के बाद आधार कार्ड के माध्यम से चिकित्सा सेवाएं देने का प्रस्ताव है लेकिन पहले आयकर में भी कुछ विशेष रियायत हुआ करती थी वह दिखाई नहीं देता। तीन लाख तक सभी को करमुक्त आय मान्य है लेकिन 80 साल से अधिक आय वालों के लिए 5 लाख तक यह आय करमुक्त है। यदि 60, 70 और 79 साल के बुजुर्ग एक जैसे हैं तो 80 साल में क्या विशेषता। इसी तरह खेती की आय चाहे जितनी हो उसे नहीं छुआ गया।

पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और भारत के आम चुनाव 2019 में होने हैं। ऐसी परिस्थिति में लोकलुभावन बजट एक स्वाभाविक प्रयास होता है और प्रत्येक बीपीएल खाताधारकों को कुछ खैरात मिलेगी ऐसा संभव था। दूरगामी विकास की आशा थी बहुतों को लेकिन मूलभूत ढांचा पर ध्यान अपेक्षा से कम गया है। मध्यम वर्ग किसी समाज की रीढ़ होता है। इसे ध्यान में रखकर बजट प्रस्ताव किए गए हैं। कितनी आय पर कितना कर लगा इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि गाँवों में रहने वाली देश की 70 प्रतिशत आबादी के लिए रोजगार सृजन का कितना प्रावधान हुआ।

मोदी सरकार पर सूट-बूट की सरकार होने, उद्योगपतियों की पोषक और किसान विरोधी होने के इल्जाम लग रहे थे। सरकार ने इस इमेज से बाहर निकलने का प्रयास किया है। जो प्रावधान गरीबों के लिए किए गए हैं उनका पूरा रुपया वहां तक पहुंचते हैं या राजीव गांधी के समय की तरह एक रुपए की जगह 14 पैसा ही पहुंचता है। रक्षा और चिकित्सा पर ध्यान गया है लेकिन शिक्षा को इससे अधिक की अपेक्षा थी। किसान और मजदूर को तात्कालिक राहत की अपेक्षा उनकी क्रयशक्ति बढ़ाने की जरूरत थी।

यह मानकर चला जा सकता है कि विकास की पटरी पर सबसे तेज दौड़ने का दम भरने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था आने वाल साल में ऐसा नहीं कर सकेगी। देश के पास बैंकों में बहुत पैसा आ गया था। इसलिए बचत योजनाओं पर ध्यान नहीं गया है। यह बात समझ में आती है परन्तु इतना अधिक जमा धन लेकर आशा थी कि कृषि के साथ ही ग्रामीण उद्योग स्थापित करने पर आग्रह होगा।

समाज की मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा, और शिक्षा में से मकानों के निर्माण और विपणन की गति धीमी हो रही थी, उस पर ध्यान गया है लेकिन रोजगार सृजन पर इससे अधिक की अपेक्षा थी। शेयर बाजार पर अनुकूल प्रभाव दिख रहा है और भारी उद्योग से जुड़े लोग सन्तुष्ट दिखाई पड़ रहे हैं तो फिर शायद मन्दी से उबर जाएंगे। अभी महंगाई के मामले में दालें और सब्जियां स्थिर हैं लेकिन बाकी चीजों पर बजट के बाद क्या असर होगा यह देखने की बात है। युवाओं के लिए रोजगार सृजन एक बड़ी चुनौती है। विशेषकर अमेरिका का दरवाजा बन्द होता दिख रहा है तब चुनौती और भी बड़ी हो जाएगी। इस दिशा में ध्यान जाना चाहिए था।

sbmisra@gaonconnection.com

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