प्याज और लहसुन का आयात किसान विरोधी है

जखीरेबाजों की धूर्तता साठ के दशक में सामने आई थी जब उन्होंने गेहूं को गोदामों में भर लिया था और भारत भुखमरी के कगार पर पहुंच गया था।

Update: 2019-12-09 05:45 GMT

आप प्याज, लहसुन, चीनी, तेल, अरहर दाल, अंडे, टमाटर और जीरा का आयात करते हैं तो करोड़ों किसानों के नगदी फसल का रास्ता बन्द करके उनका जीवन कष्टकर बनाते हैं। किसी भी खाद्य पदार्थ का आयात नहीं होना चाहिए जब तक वह जीवन रक्षक न हो। यदि प्याज और लहसुन की तलब है तो बाजार में जो भाव मिले खरीदिये, किसान को लागत वसूलने और जीवन चलाने दें। अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हुई तो प्याज का आयात लेकिन किसानों की लागत की भरपाई कौन करेगा?

प्याज की महंगाई के साथ सरकारों का बड़ा ही विचित्र संयोग बनता है। प्याज महंगा हुआ था 1979 में जब केन्द्र में सरकार थी मोरार जी की और प्याज महंगा हुआ था 2004 में जब अटल जी की सरकार थी। अब फिर प्याज महंगा हुआ है जब मोदी की सरकार है। यह मात्र संयोग है।Full View

यह भी पढ़ें : ग्रामीण अभाव में जीते हैं, मंदी हो या महंगाई


वास्तव में यह सब जखीरेबाजों का खेल है और ऐसी चीजों का स्टॉक रखने को दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए जिनकी आवक कम है। जखीरेबाजों की धूर्तता साठ के दशक में सामने आई थी जब उन्होंने गेहूं को गोदामों में भर लिया था और भारत भुखमरी के कगार पर पहुंच गया था। तब की सरकार ने गोदामों पर कब्जा करके जखीरे जप्त कर लिए थे। किसान अपनी उपज रखे उसमें कोई गुनाह नहीं लेकिन व्यापारी केवल खरीदे और बेंचे।

जो लोग लहसुन, तेल और अरहर दाल के लिए हाय-तौबा मचाते हैं, वे जब अमेरिका या यूरोप जाते हैं तो ये चीजें क्या भाव खरीदते हैं उनसे पूछिए। मैंने तो कनाडा में चार साल तक अरहर दाल नहीं खाई थी और जीवित रहा।

हमारे देश में बीसों प्रकार की दालें उपलब्ध हैं, थोड़ा संयम की आवश्यकता है। पश्चिमी देशों में केवल उबला भोजन करते हैं मांस और मछली भी उबली ही खाते हैं। उनसे क्यों नहीं सीखते?

यह समझ में आ सकता है कि इस साल वर्षा की अनियमितता के कारण प्याज और लहसुन की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है लेकिन ये वस्तुएं कोई जीवन रक्षक नहीं जो आयात की जाएं। आयात तो शिक्षा और चिकित्सा की वस्तुएं की जा सकती हैं।

किसान हित की रक्षा के लिए आलू और प्याज सड़ने न पाएं मन्दी के कारण और अभाव की स्थिति पैदा न हो। आवश्यक है कि गेहूं-धान की तरह आलू-प्याज आदि का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाय और इन फसलों का भी बीमा हो अन्यथा सब बाजार गति पर छोड दिया जाए।  

यह भी पढ़ें : वर्तमान मानसिकता के चलते पर्यावरण बचाना आसान नहीं


Similar News