भारत से दुश्मनी ख़त्म, तो पाकिस्तान की नींव ख़त्म

Update: 2016-11-03 17:50 GMT
भारत और पाकिस्तान के झंडे 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबको अचम्भे में डाल दिया था अचानक पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के जन्मदिन और उनकी नातिन की शादी के मौके पर उनके घर लाहौर पहुंचकर। कठिनाई यह है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री सेना से पूछे बगैर अपना जन्मदिन भी नहीं मना सकते हैं। जब अटल जी और शरीफ प्रेमभाव से लाहौर में मिले थे तब पाकिस्तानी सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ के दिमाग में बैरभाव हिलोरें ले रहा था और उसका नतीजा था कारगिल का युद्ध। सच तो यह है कि मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा बोए गए हिन्दू-मुस्लिम बैरभाव की नींव पर पाकिस्तान खड़ा है और जिस दिन यह बैरभाव समाप्त होगा पाकिस्तान के रहने का कोई कारण नहीं बचेगा।

पाकिस्तान में बेलगाम फौजी हुकूमत रही है और फौज का काम है लड़ना न कि बैरभाव मिटाना। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में राजीव गांधी ने 1988 में और अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में शान्ति की चाह में पाकिस्तान का दौरा किया था। फिर भी बैरभाव मिटा नहीं घटा भी नहीं, मोदी भी भरसक प्रयास करके देख चुके हैं बैरभाव मिटाने के सब प्रयास बेनतीजे रहे हैं। अब समय है भारत में भारतीयता जगाने का, पाकिस्तान को भारत की ताकत दिखाने का।

पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि हिन्दू और मुसलमानों के हीरो अलग-अलग हैं, उनका खान-पान और रहन-सहन अलग है इसलिए वे एक मुल्क में एक कौम की तरह नहीं रह सकते। उनका कहना था कि हिन्दू मेजॉरिटी में मुस्लिम माइनॉरिटी के हितों की रक्षा नहीं हो सकती लेकिन मौलाना आजाद ने मुसलमानों को समझाया कि पाकिस्तान चले जाओगे तो भारत में मुसलमानों की संख्या और भी कम हो जाएगी और आवाज कमजोर हो जाएगी फिर भी पाकिस्तान जाने पर आमादा मुसलमानों ने उनकी एक नहीं सुनी। विभाजन के बाद बहुत से लोग यह पचा नहीं पाए कि दोनों सम्प्रदाय शेष भारत में क्या एक कौम की तरह रह सकेंगे। पचास के दशक में यह मानना कठिन नहीं था कि दो नए देश बने हैं एक मुसलमानों के लिए और एक हिन्दुओं के लिए। तब हमारा देश एक राष्ट्र के रूप में खड़ा हो सकता था। नेहरू सरकार ने मुसलमानों के लिए अलग पर्सनल कानून को मंजूरी दी और बड़ी मशक्कत से मुसलमानों का अलग अस्तित्व कायम रखा, मुख्यधारा से अलग रखा।

पिछले 60 साल में हमारे राजनेताओं ने समाज में जिन्ना की सोच को मजबूत किया है। हमारे नेताओं ने मुसलमानों की आइडेन्टिटी यानी पहचान की चिन्ता तो की है लेकिन भारतवासियों की मुश्तर्का कौम नहीं बनने दी। मैं समझता हूं कि नेहरू, पटेल, अम्बेडकर या लोहिया ने कभी रोज़ा अफ़्तार की रस्म नहीं निभाई होगी। रोजा अफ़्तार के बहाने उनके चेलों ने रमजान की कद्र नहीं बढ़ाई बल्कि एकमुश्त मुस्लिम वोट की चाहत बढ़ाई है। कठिनाई तब होती है जब बात-बात में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के नाम पर राजनीति होती है।

सबसे पहले भारत में हिन्दू और मुसलमान के बीच की दीवार गिरनी चाहिए फिर भारत और पाकिस्तान के बीच का बैरभाव शायद घटे। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के लोगों ने बंटवारे की दीवार खुद ही ढहा दी। जरूरत है ऐसी सहनशीलता की जिसमें होली और ईद के त्योहार कहीं भी गम के त्योहार न बनें, ताजिए और मूर्ति विसर्जन के समय रास्ते को लेकर झगड़े न हों। हिन्दू और मुसलमानों की लड़कियां और लड़के कोई गुनाह करें तो उन्हें भारतीय संविधान के हिसाब से सज़ा मिले ना कि फ़तवा, खाप या महापंचायत के हिसाब से।

भारत के ही हिन्दू-मुसलमानों की बात नहीं, भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश की दस हजार साल पुरानी साझा विरासत की बात है । जब पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की तरह उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम एक देश हो सकते हैं तो कड़वाहट भुलाकर भारत और पाकिस्तान अच्छे पड़ोसी तो हो ही सकते हैं लेकिन यदि पाकिस्तानी गुर्गे यह कहते रहे ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे” तो उसका जवाब है ‘‘हो चुके तुम्हारे दो टुकड़े, कितने और चाहिए।” भारतीय मुसलमानों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए और पाकिस्तान को उसके किए का दंड दे सकें तो देना ही चाहिए।

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