जीवन के बाकी पक्षों की तरह हमें पर्यावरण के विषय में भी इतिहास से सीखना चाहिए। मध्ययुग में स्पेन एक समुद्री महाशक्ति बन गया था परन्तु जहाजों के बनाने में स्पेन वासियों ने इतने जंगल काट डाले कि स्पेन वीरान हो गया। उन्हीं दिनों भारत की धरती शस्य श्यामला थी, सुख और समृद्धि का जीवन था, अब वह बात नहीं रही। इतिहास का यही सन्देश है कि जो सभ्यताएं प्रकृति का सम्मान करेंगी वही भविष्य में फलें और फूलेंगी। भारतीय मानसिकता, आस्थाएं और जीवन शैली में बिगड़ते पर्यावरण की चुनौतियों को झेलने की शक्ति विद्यमान है, लेकिन उसका उपयोग करेंगे तभी सम्भव होगा।
दुनिया की अनेक सम्यताएं विलुप्त हो चुकी हैं जैसे ग्वाटेमाला की टिकाल सभ्यता, पीरू की चैन सभ्यता, मेक्सिको की माया सभ्यता और मध्यपूर्व की बेबिलोनियन सभ्यता। मध्यपूर्व की बेबिलोनियन सभ्यता के समय वहां सिंचाई की नहरों का जाल बिछा था, हरियाली, खुशहाली और सम्पन्नता थी। वहां की नहरें बालू मिट्टी से इसलिए भर गईं कि ऊंचे भागों में जंगलों का बेहद कटान और मिट्टी का क्षरण हुआ। इस प्रकार सीरिया, ईराक, लेबनान और तुर्की की भूमि रेगिस्तान बन गई और जलवायु की दुर्दशा हुई।
हमारे पूर्वजों का मानना था कि यह पृथ्वी बहुत पुरानी है, इसके साथ हमारा नाता भी उतना ही पुराना है और इस पर हमें बार बार आना है अतः इसे बचाकर रखना है। अपनी आवश्यकताओं को सीमित करते हुए जीवन बिताने की भारतीय आदत पर्यावरण की रक्षा में सहायक थी, इसीलिए हमारी संस्कृति जीवित है। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति और प्राणी यानी जीव और जगत का सम्बन्ध बड़ी बारीकी से समझा था और निष्कर्ष निकाला था ‘‘यत् पिण्डे तथैव ब्रह्माण्डे” । इसे और स्पष्ट करते हुए कहा गया कि ‘‘क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंच तत्व मिलि बनेहु शरीरा”। इनमें से यदि एक भी घटक न रहे या प्रदूषित हो जाए तो शरीर संकट में पड़ सकता है।
इस देश की मान्यता रही है कि पंच तत्वों से बना हुआ यह शरीर तभी तक स्वस्थ रह सकता है जब तक इन घटकों का बाहरी जगत में सन्तुलन बना है। मनुष्य का जीवन तभी तक है जब तक वायुमंडल में प्राण वायु यानी आक्सीजन है और प्राण वायु तभी तक है जब तक उसका निर्माण करने वाले पेड़ और वनस्पति पृथ्वी पर विद्यमान हैं। पेड़ और वनस्पति तभी तक हैं जब तक धरती पर मिट्टी और पानी है। किसी भी कड़ी को तोड़ने से पूरी श्रृंखला टूट जाएगी। इनमें प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन सबसे महत्वपूर्ण है जो वायुमंडल में दूसरी अनेक गैसों के साथ पाई जाती है। वायुमंडल की अन्य गैस कार्बनडाइआक्साइड अर्थात धुआं का भी अपना महत्व है । यदि वायुमंडल में इसकी मात्रा अत्यधिक हो जाए तो तापमान बढ़ जाएगा ओर यदि बहुत कम हो जाए तो तापमान घटेगा और हिमयुग आ सकता है।
वर्तमान में भूजल का स्तर नीचे गिर रहा है और सतह पर जलभंडारण घट रहा है। इसलिए आने वाले वर्षों में पीने का पानी मिलना कठिन हो जाएगा। यदि इस संकट से बचना है तो पृथ्वी पर जल भंडारण और जल प्रबंधन की अपनी पुरानी परम्पराओं को फिर से जीवित करना होगा और भूजल पर से दबाव घटाना होगा। हमें ध्यान रखना चाहिए कि पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध हमारी संस्कृति से है और पर्यावरण को बचाने के लिए भारतीय संस्कृति को बचाना होगा। कुछ लोग जानते तो हैं परन्तु मानते नहीं कि पर्यावरण बिगड़ने के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है भारतीय संस्कृति और जीवन शैली से बढ़ती दूरी।
वर्तमान में वायुमंडल में कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने से हिमखंड पिघल सकते हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है जिससे समुद्र के किनारे बसे नगर जलमग्न हो सकते हैं। कार्बनडाइआक्साइड को वृक्ष अपने भोजन के रुप में प्रयोग करके उसके बदले प्राणवायु देते हैं। इससे वृक्षों का महत्व समझ में आ जाना चाहिए।