कानून तो बने हैं, प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाते

Update: 2016-12-21 14:46 GMT
साभार: इंटरनेट

आए दिन सवाल उठते हैं इस अपराध की कड़ी सजा होनी चाहिए उस अपराध का कठोर दंड जारी है लेकिन कोई भी कानून अपने आप दौड़ेगा नहीं, उसे चलाने वाली मशीनरी को नेताओं ने अपंगु बना दिया है। बेजुबान जानवरों का चारा बेचकर अपनी तिजोरियां भरने वाले लोग नोटबन्दी और कैशलेस सोसाइटी के खिलाफ नसीहत देते हैं। दूसरे लोग कम से कम लागू करने की प्रक्रिया पर उंगली उठाते हैं। दलितों और महिलाओं पर अत्याचार के सम्बन्ध में कठोर कानून बनाए गए हैं फिर भी अपराध घटते नहीं अनेक अपराधी दंडित होते नहीं।

कानूनों के प्रभावी ढंग से लागू न हो पाने के लिए पुलिस और अदालतों को ही दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा। हमारे देश का दुनिया में सबसे बड़ा संविधान है लेकिन शरिया कानूनों को उसमें जगह नहीं इसलिए समानान्तर कानून चलते हैं। सूचना का अधिकार जैसा प्रभावी कानून है लेकिन वह राजनैतिक दलों पर लागू नहीं होता। राजनेता अपराधी घोषित होने पर चुनाव नहीं लड़ सकते लेकिन चुनाव प्रचार और राजनैतिक गतिविधियां करते हैं उस पर रोक नहीं। कई बार अपराध रोकने वाले लोग अपराध में शामिल होते हैं नहीं तो बाजार में आने के पहले ही करोड़ों रुपए के नए नोट अपराधियों के पास कैसे पहुंच गए।

यौन उत्पीड़न के लिए फांसी तक की सजा है लेकिन पिछले वर्षों में कड़े कानूनों के बावजूद अपराधों में कमी नहीं आई है। उलटे यौन उत्पीड़न की महामारी जैसी फैल रही है। दलितों के खिलाफ भी घटनाओं की संख्या में वृद्धि लगातार हो रही है। वास्तव में कड़े या नरम जो भी हैं उन कानूनों का पालन ठीक प्रकार नहीं हो पा रहा है, साथ ही मीडिया को ऐसी खबरें दिखाने में अधिक रुचि रहती है और फिर कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी तो वही है जो पहले थी।

इसी प्रकार दहेज विरोधी कानून से दहेज के लेन-देन में कमी नहीं आई है। दहेज वास्तव में महंगाई के साथ-साथ बेतहाशा बढ़ा है लेकिन कानून के डर से दहेज लेने वाला अथवा देने वाला बताता नहीं और प्रचारित भी नहीं करता। आजकल गाँव देहात के परिवारों तक में दो लाख से दहेज आरम्भ होता है। दहेज विरोधी कानून होते हुए भी दहेज बढ़ रहा है।

कानून है कि दलितों की जमीन केवल दलितों को ही बिक सकेगी। ऐसी दशा में उन्हें अपनी जमीन का वह दाम नहीं मिल पाता जो खुले बाजार में मिल सकता था। सवर्णों को बेचने के लिए जिलाधिकारी से आदेश लिया जा सकता है लेकिन आदेश मिलने की शर्तें हैं। इस कानून को धता बताते हुए जमीनें बिकती हैं दाखिल खारिज होता है यह बात अलग है कि अनेक बिल्डरों ने अपने लाभ के लिए इस कानून का काट ढूंढ लिया है। इसी प्रकार अनुसूचित जाति ऐक्ट जिसे पहले हरिजन ऐक्ट कहा जाता था, यदि कोई गैर दलित इस ऐक्ट के अन्तर्गत बन्द हो गया तो छूटना कठिन हो जाए। इस कानून का दुरुपयोग भी खूब होता है।

जब तक गरीबी, अव्यवस्था और अन्याय को मिटाने के लिए प्रयास टुकड़ों-टुकड़ों में होते रहेंगे, कोई भी कानून अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकेगा। कमजोर वर्गों की रक्षा के लिए कानूनों का मकड़जाल तो बहुत है लेकिन गुनहगार तब भी या तो पकड़े नहीं जाते और पकड़े गए तो छूट जाते हैं। यह उचित है कि हमारे कानूनों का झुकाव कमजोर वर्गों की तरफ है लेकिन कानूनों को एक पक्षीय भी नहीं होना चाहिए, इससे कानून का दुरुपयोग हो सकता है और होता भी है।

आवश्यकता कठोर कानून बनाने की नहीं है, बड़ी आवश्यकता है मौजूदा कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने की। इसके लिए अपराधियों को दंड देने के साथ ही उन लोगों की भी दंड देना चाहिए जो अपराधियों के खिलाफ़ सबूत नहीं जुटा पाए। कन्विक्शन रेट हमारे यहां बहुत कम है उसे बढ़ाने की जरूरत है और कोई भी कानून से ऊपर नहीं है न मजहब और न नेता। जब ऐसा भाव होगा तो कठोर कानूनों का बहाना ढूंढने की आवश्यकता नहीं होगी।

sbmisra@gaonconnection.com

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