अमिताभ अरुण दुबे
‘देश में छोटी नदियां किस कदर बेरुखी का शिकार है।‘ कुलबहरा की कहानी’ से इसे समझा जा सकता है। उपेक्षा की ये रवायत स्थानीय स्तर पर ही नहीं, नीतियों और योजनाओं के स्तर पर भी दिखती है। मसलन, बड़ी नदियों को बचाने के लिए तो दर्जनों प्लान हैं, लेकिन इनमें छोटी नदियों को तरज़ीह नहीं दी जा रही है। छोटी नदियां, बड़ी कहानियां’ सीरीज़ की इस कड़ी में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा ज़िले की कुलबहरा नदी की कहानी का तीसरा भाग।’
सरकारी योजना कैसे दम तोड़ती है
गंभीर कोशिश के बिना, सरकारी योजना कैसे दम तोड़ती है। ‘कुलबहरा की कहानी’ इस बात की बानगी भी है। हालांकि हम जिस योजना की नाकामी का जिक्र कर रहे हैं। वो सीधे तौर पर तो कुलबहरा के लिये नहीं बनी थी, लेकिन अगर योजना सफल होती तो मुमिकन था इससे नदी को नई ज़िंदगी मिलती। ‘छोटी नदियां, बड़ी कहानियां’ के पिछले भाग में हमने कुलबहरा किनारे बसे कालीरात धाम का जिक्र किया था। छिंदवाड़ा ज़िले के लोगों के लिए ये धाम ‘धर्म, आस्था और मोक्ष’ से जुड़ा बड़ा तीर्थ है।
‘आस्था से जुड़ी नदियां’
सदियों से हमारे देश में नदियां आस्था का केंद्र रही हैं। नदी किनारे बसे तीर्थ स्थल इसकी मिसाल हैं। बीते कुछ साल में मध्य प्रदेश सरकार ने केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय की मदद से नदी किनारे बसे तीर्थ स्थलों के सौंदर्यीकरण, पर्यटकों के लिए सुविधाओं के विकास पर ख़ासा ज़ोर दिया। हालांकि व्यापक तौर पर ऐसे काम बड़ी नदियों तक ही सीमित रहे। जैसे नर्मदा किनारे धार्मिक महत्व के शहरों कस्बों में पर्यटन विभाग ने कई काम किये। वैसे पर्यटन विभाग ने छोटी नदियों के किनारे बसे धार्मिक महत्व की कुछ जगहों पर भी काम किया, लेकिन इनमें ख़ामियां नज़र आती हैं।
‘अधूरी पड़ी करीब 40 लाख की योजना’
कुलबहरा नदी के तट पर बसा कालीरात धाम पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार की पहल ‘अतुल्य भारत’ का हिस्सा है। करीब 5 साल पहले इसके विकास के लिये पर्यटन मंत्रालय (भारत सरकार) की मदद से करीब 40 लाख रुपये मंज़ूर किये गए। आपको बता दें जब ये योजना मंज़ूर हुई, उस दौर में ज़िले के संतोष जैन मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम के उपाध्यक्ष थे। इलाक़े के लोग कहते हैं ये कालीरात तीर्थ के विकास की व्यापक योजना थी। इसके तहत कुलबहरा में सुंदर घाट बनने थे। तीर्थ यात्रियों, पर्यटकों के लिये सुविधाओं के इंतज़ाम किये जाने थे। एक सीसी रोड, शौचालय पुलिया बननी नदी से थोड़ी दूरी पर बगीचा आदि बनना था। कालीरात मेला समिति के कोषाध्यक्ष मधु इंगले के मुताबिक “यहां केवल दिखावे के लिये नदी में एक घाट बना दिया। वो भी पूरा नहीं बना। आधा किलोमीटर से कुछ ज्यादा सीसी रोड बनी। यानी वो काम भी अधूरा हुआ।” मधु कहते हैं कि इसके तहत जो पुलिया बनी। वो भी टूट गई। कालीरात धाम से जुड़े उमेश कोचे बताते हैं, “एक भी काम कायदे का नहीं हुआ। अगर सही तरीके से काम होता तो कालीरात धाम की सुंदरता और ज्यादा बढ़ जाती। यहां आने वाले लोगों को सुविधा भी मिलती।” ग्रामीण बताते हैं कि उन्होंने अधूरे काम की कई बार शिकायत भी की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। इसकी वजह से अब गाँव के लोगों ने भी इस तरफ ध्यान देना बंद कर दिया।
‘शौचालय भी काम का नहीं’
लोगों के मुताबिक गोरेघाट पंचायत ने करीब 6 साल पहले यहां शौचालय बनवाया, लेकिन इसका निर्माण बेहद घटिया हुआ। नतीजतन ये शौचालय अब खंडर जैसा हो गया है, जिसका कोई उपयोग नहीं करता। ज्यादातर लोग कुलबहरा नदी के किनारे गंदगी करते हैं। इससे नदी के पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। पर्यटन विभाग ने नदी को साफ सुथरा रखने की अपील करने वाला एक बोर्ड लगवाया है। इस पर साबुन नदी और घाट पर साबुन, सोडा, शेंपू, कचरा, पॉलीथिन, पूजन सामग्री के विसर्जन, कपड़े धोने पर प्रतिबंध जैसी हिदायतें लिखी है। तो पंचायत ने नदी की सफाई के लिये सूखे और गीले कचरे के अलग कूड़ादान बनवाये हैं, लेकिन उचित प्रबंधन की कमी के चलते इनका भी कोई इस्तमाल नहीं करता। ऐसी तमाम ख़ामियों को कुलबहरा भुगत रही है।
‘पर्यटन से नहीं होगा नदी का भला’
क्या नदी किनारे पर्यटन को बढ़ावा देने से नदी की तकदीर बदल सकती है। इस सवाल पर देश के जाने माने नदी विशेषज्ञ अभय मिश्रा कहते हैं, “नदी किनारे पर्यटन स्थल बनाने से नदी का भला नहीं होगा क्योंकि नदी आस्था के लिये होती है, पर्यटन के लिये नहीं। जब हम नदी पर्यटन की बात करते हैं तो इसका मतलब पर्यटकों के लिये सुविधाएं बढ़ाने से होता है।” अभय कहते हैं बड़ी तादाद में लोगों की आवाजाही नदी पर्यावरण को बिगाड़ सकती है।
‘जब नदी बन जाती है ज़िंदगी’
नदी सिर्फ ज़िंदगी का हिस्सा नहीं होती। कभी-कभी वो ज़िंदगी भी बन जाती है। कुलबहरा से गहरा लगाव रखने वाले दो बुजुर्ग चंदन बाबा और फलगू की कहानी इसकी नज़ीर है। कालीरात धाम में सालों से रह रहे चंदनबाबा के लिये कुलबहरा ही ज़िंदगी है। रोज़ाना चंदन बाबा निष्काम भाव से नदी के घाट, मंदिर और आसपास के इलाके की साफ-सफाई करते हैं। कालीरात धाम में जो साफ-सफाई नज़र आती है। वो उनकी लगन का नतीजा है। चंदन बाबा कुलबहरा के कई किस्से सुनाते हैं। कुलबहरा की महिमा के गीत गाते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी फलगू की भी है। इमलीखेड़ा औद्योगिक क्षेत्र में कुलबहरा नदी पर एक स्टॉप डेम है। फलगू यहां रोज़ाना मछली पकड़ने आते हैं। हालांकि नदी में प्रदूषण बढ़ने की वजह से आजकल मछलियां बामुश्किल ही मिलती है। लेकिन फलगू कहते हैं उन्हें कुलबहरा के साथ रहना खूब पसंद है। “बरसों से मैं यही एक काम करते आया हूं। कुलबहरा में आना और जाल डालना। मछली मिली तो ठीक ना मिली तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता।”फलगू कहते हैं कि पहले जब कुलबहरा में गंदगी नहीं होती थी तो बहुत मछलियां मिलती थी। तेज़ी से नदी से जलीय जीव जंतु ख़त्म हो रहे हैं। पहले कुलबहरा पेट पालती थी, अब इसके सहारे बुढ़ापा कट रहा है। ‘कुलबहरा की कहानी’ की अगली कड़ी में हम इसके किनारे खेतों में फैली समृद्धि को करीब से देखेंगे और आखिर मध्य प्रदेश में राजनीतिक मुद्दा बन चुका अवैध रेत खनन, पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा क्यों नहीं बन पा रहा है। इसकी पड़ताल करेंगे। पढ़ते रहिये हमारी स्पेशल सीरीज़ ‘छोटी नदियां बड़ी कहानियां’।