'यह अंधायुग अवतरित हुआ, जिसमें स्थितियां, मनोवृतियां, आत्माएं, सब विकृत हैं'

धर्मवीर भारती अगर आज जीवित होते तो शायद नई कृषि नीतियों के खिलाफ, उन्हें वापस लेने की मांग को लेकर दिल्ली की सरहदों पर कड़कड़ाती ठंड के बीच 30 दिनों से अनवरत प्रदर्शन कर रहे, शहीद हो रहे किसानों के अब तक के सबसे बड़े और अनुशासित आंदोलन को देखकर जेपी आंदोलन के दौरान लिखी कविता जैसा ही कुछ जरूर लिखते।

Update: 2020-12-25 04:15 GMT
धर्मवीर भारती अगर आज जीवित होते तो शायद नई कृषि नीतियों को लेकर चल रहे आंदोलन पर भी कविता लिखते। (फोटो गूगल से साभार, ग्राफिक्स गांव कनेक्शन)

साल था 1974 और दिन व महीना था 5 जून। इसी दिन पटना के गांधी मैदान से जयप्रकाश नारायण ने देश में 'संपूर्ण क्रांति" का बिगुल फूंका था। आंदोलन के दौरान जब 6 नवंबर को जेपी पर लाठियां बरसाईं गई थीं, तब 9 नवंबर को प्रख्यात साहित्यकार, लेखक, कवि, पत्रकार डॉ. धर्मवीर भारती ने एक कविता लिखी थी...

"खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का,

हुकुम शहर कोतवाल का,

हर खास और आम को आगाह किया जाता है,

कि खबरदार रहें और

अपने-अपने घर के किवाड़ों को कुंडी लगाकर बंद कर लें,

गिरा दें खिड़कियों के परदे और,

अपने बच्चों को सड़क पर न भेजें,

क्योंकि, एक 72 साल का बूढ़ा आदमी,

अपनी कांपती कमजोर आवाज में,

सड़कों पर "सच" बोलता हुआ निकल पड़ा है...।"

धर्मवीर भारती अगर आज जीवित होते तो शायद नई कृषि नीतियों के खिलाफ, उन्हें वापस लेने की मांग को लेकर दिल्ली की सरहदों पर कड़कड़ाती ठंड के बीच 30 दिनों से अनवरत प्रदर्शन कर रहे, शहीद हो रहे किसानों के अब तक के सबसे बड़े और अनुशासित आंदोलन को देखकर जेपी आंदोलन के दौरान लिखी गई इस कविता जैसा ही कुछ जरूर लिखते।

धर्मवीर भारती जी ने एक कवि के तौर पर जितनी भी कविताएं लिखीं, दरअसल वह किसी न किसी जनआंदोलन, मिथकों, समसामयिक, सामाजिक, मानसिक अंतरसंघर्ष, पीड़ाओं, महत्वाकांक्षाओं, विद्रूपताओं, मुखौटों पर टिप्पणियां थीं। 25 दिसंबर को उनका जन्मदिन है। आइये इस बहाने सुप्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के लंबे समय तक प्रधान संपादक रहे और गुनाहों का देवता, कनुप्रिया, अंधायुग जैसी कालजयी कृतियों के रचनाकार, पद्मश्री सम्मान सहित अनेक साहित्यिक अलंकरणों से विभूषित धर्मवीर भारती के व्यक्तित्व और कृतित्व को याद कर लिया जाए।


उनका स्मरण आज इसलिए भी सामयिक हो जाता है, क्योंकि पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान भारती जी के जन्मदिवस को भारतीय भाषा स्वाभिमान और सम्पृक्ति दिवस के रूप में मनाते हुए भारतीय भाषाओं (Indian Languages) को मजबूत करने व सृजन को समाज से जोड़ने के लिए शिखर सम्मेलन कर एक अभियान की शुरुआत करने जा रहा है।

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धर्मवीर भारती मेरे ह्दय में विशेष स्थान रखते हैं, क्योंकि उनका नाटक "अंधायुग" मुझे आज भी उतना ही रोमांचित करता है, जितना 34 साल पहले याने 1986 में तब किया था, जब मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली (National School Of Drama) में नादिरा राज बब्बर, पंचानन पाठक, एमके रैना, रतनथियम, सुरेखा सीकरी जैसे रंगकर्म के विद्वानों के समक्ष महाभारत युद्ध के अंतिम दिन पर केन्द्रित इस नाटक के शक्तिशाली पात्र अश्वत्थामा के एक संवाद की प्रस्तुति दी थी, जिसमें अश्वत्थामा कहता है....

"यह मेरा धनुष है ,

धनुष अश्वत्थामा का,

जिसकी प्रत्यंचा खुद द्रोण ने चढ़ाई थी,

आज जब मैंने दुर्योधन को देखा,

निःशस्त्र, दीन, आँखों में आँसू भरे,

मैंने मरोड़ दिया अपने इस धनुष को।

कुचले हुए सांप सा

भयावह,

किन्तु शक्तिहीन मेरा धनुष है,

यह जैसा है मेरा मन ,

किसके बल पर लूँगा मैं अब प्रतिशोध पिता...।"

अश्वत्थामा की इस मनःस्थिति का ऐसा सशक्त और रोंगटे खड़े कर देने वाला चित्रण धर्मवीर भारती ही अपनी काव्य, पद्य शैली से कर सकते थे। धर्मवीर भारती का नाटक 'अंधायुग' उनके व्यक्तित्व को समझने का एक महत्वपूर्ण जरिया है।

महाभारत के अंतिम दिनों की झलक दिखलाती यह रचना दरअसल एक संशय कथा है। जो कहती है कि यहां सभी का जीवन निरर्थक है। टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ है सबका अस्तित्व। सभी बौने हैं और सभी महाकाय। अपने ही भीतर छिपे मैं के पोस्टमार्टम का काम यह रचना बहुत ही सधे ढंग से करती है। इसके लिए ऐसी ही बेबाकी, बेरहमी और सवाल करने वाला मन चाहिए।

धर्मवीर भारती ने इस रचना को रचते समय खुद को ऐसा ही ढाला था। उनके सहयोगी हमेशा मानते रहे कि भारती जी के मन की थाह पाना असंभव था। वे सूक्ष्मदर्शक और संवेदनशील सर्जक थे और भीतर ही भीतर कई स्तरों पर स्वयं द्वंद झेलते थे। संपूर्ण भारतीय साहित्य में "अंधायुग" एक अलग और अद्भुत रचना है। "अंधायुग" में भारतीजी के भीतर आजादी के बाद के भारत में आई मूल्यहीनता के प्रति चिंता दिखती है। यह नाटक युद्ध और उसके बाद की समस्याओं व महत्वाकांक्षाओं को प्रस्तुत करते हुए नए संदर्भों और कुछ नए अर्थों के साथ लिखा गया है।

वह लिखते हैं...

युद्धोपरान्त,

यह अंधायुग अवतरित हुआ,

जिसमें स्थितियां, मनोवृतियां,

आत्माएं, सब विकृत हैं।

एक बहुत पतली डोर मर्यादा की,

पर वह भी उलझी है दोनों पक्षों में,

सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का,

वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त।

साहित्य की पढ़ाई करते समय उनके इस नाटक को कमोवेश सबने ही पढ़ा होगा और गंभीरता को जाना भी होगा। इस नाटक में भारतीजी ने अनेक संभावनाएं छोड़ी हैं, जिसे मंचित करते समय निर्देशक हर बार एक नई व्याख्या ढूंढ लेता है।

प्रारंभिक जीवन

चिरंजीव लाल वर्मा और चंदा देवी के पुत्र धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 में इलाहाबाद में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा डीएवी हाईस्कूल में हुई थी और उच्चशिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में पूरी की। कालेज में पढ़ाई के दौरान ही धर्मवीर भारती ने अभ्युदय और संगम नामक संस्थागत पत्रिका में दो साल काम किया। यहीं से उनके लेखन का सिलसिला शुरू हो गया था।

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पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने शैली, कीट्स, वर्डसवर्थ, टेनीसन, एमिली डिकिन्सन तथा अनेक फ्रांसीसी, जर्मन और स्पेन के कवियों के अंग्रेजी अनुवाद के अलावा एमिल जोला, गोर्की, क्युप्रिन, बालजाक, चार्ल्स डिकेन्स, दोस्तोयव्स्की, तोल्सतोय के उपन्यास खूब पढ़े।

नई दृष्टि के कहानीकार, कवि

इन्ही दिनों में उन्होंने खूब कहानियां भी लिखीं। 'मुर्दों का गांव' और 'स्वर्ग और पृथ्वी' नामक दो कहानी संग्रह छपे। छात्र जीवन में भारती पर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का बहुत प्रभाव था। उन्हीं दिनों वे माखन लाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए, जिन्होंने भारतीजी को बहुत प्रोत्साहित किया। उस समय कई कविताएं लिखी गई, जो बाद में "ठंडा लोहा" नामक पुस्तक के रूप में छपी। उन्हीं दिनों "गुनाहों का देवता" उपन्यास लिखा। साम्यवाद से मोहभंग के बाद 'प्रगतिवाद : एक समीक्षा' नामक पुस्तक लिखी। कुछ अंतराल बाद ही "सूरज का सातवां घोड़ा" जैसा अनोखा उपन्यास भी लिखा।


शोध कार्य पूरा करने के बाद वहीं विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। उसी दौरान "नदी प्यासी थी" नामक एकांकी नाटक संग्रह और "चांद और टूटे हुए लोग" नाम से कहानी संग्रह छपे। "ठेले पर हिमालय" नाम से ललित रचनाओं का संग्रह छपा और शोध प्रबंध सिद्ध साहित्य भी छप गया। उन्होंने अस्तित्ववाद तथा पश्चिम के अन्य नए दर्शनों का विशद अध्ययन किया। रिल्के की कविताओं, कामू के लेख और नाटकों, ज्यां पॉल सार्त्र की रचनाओं और कार्ल मार्क्स की दार्शनिक रचनाओं में मन बहुत डूबा। साथ ही साथ महाभारत, गीता, विनोबा और लोहिया के साहित्य का भी गहराई से अध्ययन किया। गांधीजी को नई दृष्टि से समझने की कोशिश की। भारतीय संत और सूफी काव्य और विशेष रूप से कबीर, जायसी और सूर को परिपक्व मन और पैनी हो चुकी समझ के साथ पुनः और समझा।

कालजयी रचनाओं के रचयिता

पद्य नाटक "अंधायुग" के अलावा उनका उपन्यास "गुनाहों का देवता" बेहद लोकप्रिय और सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक कालजयी रचना के रूप में माना जाता है। इसमें सुधा चंदर की प्रेम कहानी है, जिसका प्रेम का अलौलिक और अप्रतिम चित्रण देखने को मिलता है। वहीं उन्होंने 5 खंड काव्यों में अपनी सबसे लंबी कविता "कनुप्रिया" की रचना की, जिसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन 1959 में हुआ।

"कनुप्रिया" में भारती जी ने कृष्ण के प्रति राधा के प्रेम और उनकी अनुभूतियों की गाथा लिखी। इसमें उन्होंने नारी के मन की एक-एक परत खोल कर रख दी। इस कालजयी रचना में नारी के नैसर्गिक सौंदर्य का अप्रतिम चित्रण मिलता है। प्रत्येक खंड नारी की अनुभूतियों का रूपण है। ये चंद पंक्तियां उन अनुभूतियों को महसूस करने के लिए काफी हैं।

वह लिखते हैं....

'समय और दिशाओं की सीमा हीन पगडंडियों पर

अनंत काल, अनंत दिशाओं में

तुम्हारे साथ चलती चली आ रही हूं,

चलती चली आऊंगी....

इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है, न मुझे

और अंत तो हस यात्रा का है ही नहीं

नहीं मेरे सहयात्री...।"

अविस्मरणीय संपादक

धर्मवीर भारती जी की अनेक रचनाओं का पुस्तक के रूप में प्रकाशन करने वाले अरूण माहेश्वरी का मानना रहा है कि भारती जी एक बड़ा उपन्यास लिखना चाहते थे, लेकिन उनका यह सपना पूरा न हो सका। धर्मवीर भारतीय ग्रंथावली का प्रकाशन हुआ, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद

एक ओर जहां लेखक के तौर पर धर्मवीर भारती जी की संवेदनशीलता देखने को मिलती है, तो दूसरी ओर एक संपादक के रूप में उनका कार्य अविस्मरणीय कहा जा सकता है।

धर्मवीर भारती के द्वारा संपादित धर्मयुग पत्रकारिता की कसौटी बन चुका है। सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, खेलकूद, साहित्यिक सभी पक्षों को समेटते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर हर अंक में सामग्री दी जाती थी। भारती जी ने पत्रकारिता और साहित्य की नई पीढ़ी को धर्मयुग में 27 वर्षों तक अपनी सेवाएं देते हुए शिक्षित किया था।

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8 अक्टूबर 1950 को बंबई से शुरू हुआ धर्मयुग आज बंद न हुआ होता तो 70 साल का हो चुका होता। 6 मार्च 1960 को धर्मवीर भारती धर्मयुग के संपादक हुए और 28 नवंबर 1987 तक यानी 27 साल उन्होंने इस साप्ताहिक पत्रिका का संपादन किया। इसी काल खंड में धर्मयुग को सर्वाधिक लोकप्रियता मिली। 4 सितंबर 1997 में निद्राअवस्था में ही वह चिरनिद्रा में लीन हो गए। जिन्होंने धर्मयुग के रोपित बीज को पाला-पोसा, पल्लवित किया, उनके अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। सादर नमन.. श्रद्धांजलि।

(लेखक सुनील कुमार गुप्ता सामाजिक, विकास परक, ग्रामीण, समसामयिक, राजनीतिक विषयों पर तीन दशक से सक्रिय हैं। मीडिया संस्थानों में रिपोर्टिंग से लेकर अनेक वर्षों तक कार्यकारी संपादक के रूप में संपादकीय दायित्व का निर्वाह करने के बाद इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। कविता और शायरी में गहरी रूचि। लेख उनके निजी विचार पर आधारित।)

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