आतंकवाद जन्मता है हिंसा और क्रूरता के संस्कारों से

Update: 2016-10-27 11:26 GMT
प्रतीकात्मक फोटो

जब हम आतंकवाद की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में आते हैं सिर कटते हुए ईराक, नाइजीरिया, अफ़गानिस्तान, सीरिया, टर्की, तज़ाकिस्तान, रूस, उज़्बेकिस्तान, फिलिस्तीन और मिस्र के लोग। इनमें से अधिकांश देश इस्लामिक हैं और आतंकवादी इन्हीं देशों के इस्लामिक परिवारों में जन्में होंगे फिर भी वे सच्चे इस्लाम की स्थापना के नाम पर खून खराबा करते हैं। आतंकवादी जिन्हें मारते हैं उनमें से अधिकांश तो पहले ही हज़रत मुहम्मद साहब का इस्लाम स्वीकार कर चुके हैं तो क्या बगदादी का इस्लाम उससे बेहतर होगा। सच बात यह है कि इस्लाम के विद्वानों ने आतंकवाद की निन्दा भतर्सना करने में बहुत देर कर दी। कभी अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद के चक्कर में तो कभी संकोच और डर के कारण।

आतंकवादी जो भी कहें, इसमें दो राय नहीं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं कोई जाति नहीं और इसलिए उनको कब्रिस्तान में भी जगह नहीं मिलनी चाहिए और शमशान घाट पर भी नहीं। तब सवाल है कि आतंकवाद की उपज कहां होती है, इसे खाद पानी कहां से मिलता है। महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा पर जोर दिया था और बताया था कि सत्य यानी ईश्वर की प्राप्ति के लिए अहिंसा आवश्यक है। अब सोचिए यदि किसी परिवार में जानवरों को गला रेतकर काटा जाता है और बच्चे देखते हैं तो उनकी भावनाएं कठोर हो जाएंगी। उनके मन में वैष्णव भाव नहीं रहेगा क्योंकि गांधी जी ने बताया था, ‘वैष्णव जन ते तैने कहिए जे पीर पराई जाणें रे।’ क्रूरता को बराबर देखने वाले बच्चों के मन में दूसरों की पीर देखकर कोई पीड़ा नहीं होगी। बड़ी आसानी से ऐसे बच्चे बड़े होकर आदमियों का गला बगदादी की तरह रेत देंगे और उनके मन में दर्द नहीं होगा।

इसके विपरीत जिस परिवार में सवेरे उठकर कहा जाता होगा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’ अथवा पृथ्वी शान्तिः औषधयः शान्तिः और अन्त में शान्तिरेव शान्तिः यानी शान्ति को भी शान्ति मिले, उस घर में बगदादी नहीं पैदा हो सकता जो कत्ल के लिए कत्ल करता हो। जंगली जानवर भी जब किसी को मारते हैं तो उसे खाने के लिए न कि केवल मारने के लिए। इसलिए पाकिस्तान को अलग-थलग करने या उसे समाप्त करने से भी आतंकवाद समाप्त नहीं होगा। आतंकवाद का सम्बन्ध इंसान के संस्कारों या संगत से है, किसी धर्म या जाति से नहीं है। संस्कार का मतलब है जो आदतें और काम दिन-प्रतिदिन करते हैं उनकी छाप दिमाग पर बन जाती है और साइबर युग में आसानी से उभर कर आती है।

हिंसात्मक या आतंकवादी व्यवहार तब भी पैदा होता है जब उस व्यक्ति पर अन्याय और अत्याचार होता है और वह कुछ नहीं कर सकता लेकिन ऐसा आतंकवादी या अतिवादी बिना कारण दूसरों का गला काटने में आनन्द का अनुभव यानी सैडिस्टिक प्लेज़र का अनुभव नहीं करता। वह उसी वर्ग या समुदाय को मारता है जिसने उसे सताया था जैसे फूलन देवी ने बेहमई कांड किया था। इस श्रेणी में रावण, कंस या औरंगजेब को नहीं शामिल कर सकते क्योंकि उन्हें किसी से बदला नहीं लेना था, अनर्गल वर्चस्व दिखाना था।

आतंकवाद को समाप्त करने का तरीका यह नहीं कि गाँवों, कस्बों और शहरों पर बम गिराकर उन्हें नेस्तनामूद कर दिया जाए। मारना पाप को है पापी को नहीं इसलिए गांधी, बुद्ध और ईसा मसीह का सन्देश उन तक प्रभावी ढंग से पहुंचा सकें तो पहुंचाएं नहीं तो इससे कुछ कम अच्छा तरीका है अमेरिका द्वारा ओसामा बिन लादेन से निपटने का या मोदी का सर्जिकल स्ट्राइक का। हमारी न्यायव्यवस्था तो यही कहती है गुनहगार भले ही छूट जाए लेकिन बेगुनाह न मारा जाए। उत्तम तो होगा गुनहगार बचने न पाए और बेगुनाह मरने न पाए लेकिन वर्तमान युग में यह बहुत कठिन है।

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