उर्दू को देवनागरी में लिखकर हिंदी के पास लाएं

Update: 2017-05-26 19:11 GMT
हम अपने अखबार में बड़ी संख्या में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हैं।

हम अपने अखबार में बड़ी संख्या में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हैं लेकिन बहुत बार शीन-क़ाफ़ दुरुस्त नहीं रहता। फिर भी हमें यह सिलसिला जारी रखना चाहिए। मुझे ठीक से याद नहीं कि मैंने उर्दू छोड़ी थी ठाकुर छत्रपाल सिंह की डांट-डपट के कारण या फ़ारसी लिपि की वजह से। जो भी हो, मैं समझता हूं यदि उर्दू को देवनागरी में लिखा जाए तो उर्दू को नया जीवन मिलेगा और वह मुस्लिम समाज तक सीमित नहीं रहेगी, साथ ही हिंदी अचानक मालामाल हो जाएगी।

वास्तव में उर्दू कोई अलग भाषा नहीं बल्कि भारत में विकसित हुई एक बोली है जो ‘बाजार हिन्दी’ के रूप में विकसित हुई थी। यह हमारे देश की आम बोली बन सकती थी ब्रज, अवधी और मैथिली की तरह। उर्दू के पास अपनी लिपि नहीं है और इसे देवनागरी में उतनी ही सुविधा से लिखा जा सकता है जितना फारसी लिपि में। इसका अपना व्याकरण नहीं है और हिन्दी व्याकरण प्रयोग होता है लेकिन इसकी अनेक खूबियां हैं जो हिन्दी में नहीं हैं।

उर्दू प्रजा की भाषा होनी चाहिए थी लेकिन महलों में पलने के कारण इसमें श्रंगार रस, हास्य विनोद और कानून से भरपूर शक्ति है, जबकि हिन्दी संघर्षों में पली हैं इसलिए उसमें इन भावों की कमी है। हिन्दी में वीर रस, रौद्र रस आदि तो मिलते हैं लेकिन उर्दू की विशेषताएं नहीं हैं। हिन्दी और उर्दू एक दूसरे की पूरक हैं, दोनों में नकली कम्पटीशन पैदा किया गया है।

उर्दू का बाहर से आने वाले सैलानी, व्यापारी और शासक सभी के लिए उपयोग था। इसका अरबी से उतना सम्बन्ध नहीं है जितना हिंदी से है उदाहरण के लिए खबर शब्द का अरबी में बहुवचन होता है ‘अखबार’ लेकिन हिंदी और उर्दू में खबरें होता है। अब आप हिन्दी और उर्दू के बीच का सम्बन्ध समझ सकते हैं।

आजादी के पहले जब भारत की भाषा की बात होती थी तो गांधी जी की हिन्दुस्तानी शायद देवनागरी में लिखी जाने वाली बाजार हिंदी ही रही होगी। देश बट गया बात आगे नहीं बढ़ी। उर्दू को अरबी और फ़ारसी शब्दों से बोझिाल करके इसे मुसलमानों की भाषा बना दिया गया जो हिंदुओं के लिए आसान नहीं रही। उर्दू के प्रति अति उत्साह ने भारत विभाजन में योगदान दिया और बाद में बंगालियों पर उर्दू थोपने से पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए। उर्दू भारत की धरती पर जन्मी थी इसका विदेशी श्रंगार करने की आवश्यकता नहीं थी।

भारत के तमाम हिन्दू ग़ज़ल, क़व्वाली और बाकी रिसाला पढ़ना चाहते हैं लेकिन अलग लिपि के कारण मजबूर हैं। तमाम मेहनत के बाद भी हिज्जे करने नहीं आते। यह समस्या केवल लिपि के कारण है अन्यथा उर्दू समझने में कोई कठिनाई न हो। हालत यह है कि मुसलमानों में भी उर्दू के प्रति उतना लगाव नहीं रहा क्योंकि कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने उर्दू अनुवादकों के तमाम पद निकाले थे लेकिन वे भरे नहीं जा सके।

वोट के लालच में नेता लोगों ने उर्दू को बिहार और उत्तर प्रदेश में द्वितीय प्रादेशिक भाषा घोषित कर रखा है लेकिन इससे उर्दू का क्या भला हुआ। मदरसों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन प्राइमरी के बाद स्कूल छोड़ने वालों में मुस्लिम छात्रों की संख्या सर्वाधिक है। यदि विज्ञान की पढ़ाई के बगैर आलिम और फाजिल की डिग्रियां हासिल भी कर लेंगे तो वे वैज्ञानिक की पोस्ट पर नियुक्त तो नहीं हो सकते अथवा हिन्दी और संस्कृत के अध्यापक भी नहीं बन सकते। जरूरत है उर्दू के प्रचार-प्रसार की जिसके लिए उर्दू को देवनागरी लिपि में लिखा जाए। पता लगाया जाए कि मुस्लिम छात्र इतनी अधिक संख्या में विद्यालय क्यों छोड़ते हैं।

यह सच है कि आजादी की लड़ाई के लिए ‘सर फरोशी की तमन्ना’ भी उर्दू के माध्यम से ही पैदा हुई थी लेकिन आजकल कश्मीर में अलगाववाद का माध्यम है उर्दू। यह भाषा या बोली का नहीं उसका प्रयोग करने वालों का दोष है। जरूरत है हिंदी और उर्दू को एक साथ लाने की लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब उनके बीच की लिपि बाधा दूर हो सके।

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