क्या शाहबानो वाला कलंक 31 साल बाद मिटा सकेगा भारत?

Update: 2017-03-30 10:14 GMT
तीन तलाक का मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है और कोई भी न्यायालय इसे उचित नहीं मानेगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति दिलाने का वादा करके तथाकथित मुस्लिम वोट बैंक छिन्न भिन्न कर दिया, सेकुलरवादियों की समझ में भी आ रहा है। कांग्रेस की रेनुका चौधरी के आक्रामक तेवर तीन तलाक का विरोध तो करते ही हैं वास्तव में मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ भी जाते हैं। तीन तलाक का मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है और कोई भी न्यायालय इसे उचित नहीं मानेगा। उस हालत में क्या मोदी सरकार तीन तलाक को अवैधानिक घोषित कर पाएगी या राजीव गांधी सरकार की तरह तीन तलाक की शिकार शाह बानो वाले निर्णय की तरह इतिहास को दुहराएगी।

वर्ष 1986 में शाह बानो का प्रकरण बहुत मशहूर हुआ था जब उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक के बाद गुजारा मांगने वाली शाह बानो को गुजारा मंजूर कर दिया था। लोकसभा में कांग्रेस के मंत्री आरिफ़ मुहम्मद के तर्कपूर्ण भाषण को सुनकर लगा था कि राजीव गांधी प्रचंड बहुमत की सरकार के माध्यम से इतिहास रचेंगे। लेकिन गुब्बारे की हवा निकल गई और संविधान का संशोधन कर दिया गया। क्या शाह बानो जैसी शरिया कानून की शिकार महिलाएं भारत के माथे पर कलंक बनकर घूमती रहेंगी। अब समय कुछ तो बदला है और मुस्लिम महिलाओं ने हाजी अली की दरगाह में प्रवेश के मामले में विजय हासिल की है और आशा की जानी चाहिए कि समान नागरिक अधिकार भी ले पाएंगी।

मोदी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू करने की संभावना तलाशने के लिए लॉ कमीशन की सलाह मांगी थी जब माननीय उच्चतम न्यायालय ने सरकार से पूछा कि इसे लागू करने के लिए क्या कर रहे हैं। यह काम भारत की आजादी के तुरन्त बाद होना चाहिए था, विलम्ब के कारण नेहरू मंत्रिमंडल से कानून मंत्री अम्बेडकर ने त्यागपत्र दे दिया था।

पहले भी उच्चतम न्यायालय ने यह सवाल केन्द्रीय सरकारों से समान नागरिक संहिता लागू करने का सवाल पूछा था। मोदी सरकार ने अपना कर्तव्य निभाने की दिशा में कम से कम एक कदम तो बढ़ाया है, मंजिल तक पहुंचने में कितनी कठिनाइयां आएंगी, समय बताएगा।

भारत के बंटवारे के बाद बने सेकुलर भारत में न तो हिन्दू की मनुस्मृति चलेगी और न मुसलमानों के शरिया कानून। यहां केवल संविधान के कानून चलने चाहिए जिनकी व्याख्या केवल अदालतें कर सकती हैं। मुसलमानों के लिए बने पाकिस्तान में उनकी इच्छानुसार शरिया कानून लागू हुए लेकिन भारत में सेकुलर कानून लागू नहीं हो पाए। संविधान निर्माता अम्बेडकर का कानून था संविधान की धारा 44 में उल्लिखित समान नागरिक संहिता जिसे कांग्रेस सरकार जब चाहती लागू कर सकती थी।

समान नागरिक संहिता लागू कराना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की जिम्मेदारी थी। नेहरू ने अम्बेडकर के आधुनिक संविधान को पूरे देश पर लागू करने का प्रयास ही नहीं किया। वह संविधान सभा के सदस्य भी थे और यदि संविधान को पूरी तरह लागू करना ही नहीं था तो दिखावे के लिए धारा 44 के रूप में संविधान में कामन सिविल कोड को रखा ही क्यों। भारतीय मुसलमान 1956 तक पर्सनल लॉ के लिए उद्वेलित नहीं थे क्योंकि वे मानकर चल रहे थे सेकुलर भारत में इसकी गुंजाइश नहीं है। उस समय भारत का मुसलमान यूनिफार्म सिविल कोड राजी खुशी स्वीकार कर लेता यदि नेहरू ने ऐसे कानून की पेशकश की होती।

सभ्य समाज में सभी के लिए एक जैसा कानून होता है जिसमे बेडरूम छोड़कर कुछ भी पर्सनल नहीं होता। तमाम कानून जैसे आबादी पर नियंत्रण, तलाक सहित महिलाओं की दशा, बच्चों को रोटी रोजी देने वाली शिक्षा, बढ़ती आबादी पर नियंत्रण जैसे सैकड़ों विषयों का सरोकार पूरे समाज से है, जिम्मेदारी पूरे देश की है। ऐसी व्यवस्थाओं को पर्सनल नहीं कहा जा सकता। यदि हम सेकुलरवादी और समाजवादी व्यवस्था का दम भरते हैं तो समाज को टुकड़ों में बांटकर नहीं देख सकते।

मनमाने तरीके से अनेक शादियां करने के लिए, जितने चाहें बच्चे पैदा करने के लिए और उसके बाद सच्चर कमीशन के हिसाब से सबसे पिछड़ी जमात में खड़े होने के लिए देश या सरकार मंजूरी नहीं दे सकते। आशा करनी चाहिए कि संविधान की व्याख्या करते हुए तीन तलाक और कामन सिविल कोड पर माननीय उच्चतम न्यायालय का जो भी निर्णय आए उसके खिलाफ आन्दोलन नहीं होगा। यदि भारत के संविधान और शरिया में टकराव हो तो संविधान सर्वोपरि रहना चाहिए।

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