बच्चों को खाली पेट न खाने दें लीची

कुछ सवाल ऐसे हैं जिन्हें सोशल मीडिया से लेकर तरह-तरह के प्लेटफॉर्म्स पर लोगों द्वारा लगातार पूछा जा रहा है- ऐसा क्या हुआ जो अचानक एक साथ इतने बच्चों की मृत्यु हुई? इन बच्चों की मृत्यु की वजह लीची है तो देश के अन्य इलाकों की इस तरह की खबरें क्यों नहीं आ रही?

Update: 2019-06-22 09:38 GMT

बिहार के मुजफ्फरपुर का इलाका हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा लीची उत्पादक इलाका है। लीची उत्पादन ने इस क्षेत्र को एक बड़ी पहचान दी है, लेकिन सन 1995 से लेकर आज तक इस इलाका ने मई और जून के महीने में बच्चों की अकाल मौत को लेकर काफी चर्चा बटोरी है।

और इस चर्चा की मुख्य वजह रहा है एक्यूट एन्सेफेलोपैथी सिंड्रोम, जिसे आम बोलचाल में चमकी बुखार कहा जाता है। करीब 125 से ज्यादा बच्चों की मौत पिछले कुछ दिनों के भीतर ही हो चुकी है। हर तरफ खबरों में सिर्फ मुजफ्फरपुर में बच्चों की अकाल मौत के तांडव की चर्चा है।

अस्पतालों में रोते बिलखते परिवारों को देखकर व्यवस्था को जरूर कोसा जा सकता है लेकिन समस्या के निदान और पुनरावृत्ति ना होने के प्रयासों पर जोर दिया जाना बेहद अहम कदम होगा। दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इस मुद्दे पर पिछले 2 दशकों में अपने-अपने विचारों और शोध परिणामों को दुनिया भर के सामने रखा है, लेकिन अब तक इस समस्या का कोई सटीक परिणाम न आ पाना हमारी विफलता दिखाता है।

सरकारी व्यवस्थाओं पर खड़े किए जा रहे सवालिया निशान

फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

iQkदेश का हर बुद्धिजीवी और मीडिया अपनी-अपनी राय रख रहा है। चमकी रोग के असल कारक के तौर पर लीची को देखा जा रहा है। कोई इस इलाके में गरीबी को कोस रहा है तो कोई खतरनाक रसायनों के छिड़काव को लेकर चिंतित है तो कई लोग इस रोग को असाध्य या बतौर महामारी भी देख रहे हैं। इन विषम परिस्थितियों में सरकारी व्यवस्थाओं पर भी सवालिया निशान खड़े करे जा रहे हैं।

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कुछ सवाल ऐसे हैं जिन्हें सोशल मीडिया से लेकर तरह-तरह के प्लेटफॉर्म्स पर लोगों द्वारा लगातार पूछा जा रहा है- ऐसा क्या हुआ जो अचानक एक साथ इतने बच्चों की मृत्यु हुयी? इन बच्चों की मृत्यु की वजह लीची है तो देश के अन्य इलाकों की इस तरह की खबरें क्यों नही आ रही? क्या लीची के बागों में खतरनाक रासायनिक पेस्टीसाइड्स का छिड़काव किया गया?

सिर्फ छोटे बच्चों के साथ ही ऐसा क्यों हो रहा? हर साल सिर्फ इसी दौर में मौत का तांडव क्यों होता है? बारिश या नमी आने के बाद मौतों का सिलसिला रुक जाता है, ऐसा क्यों? क्या सिर्फ लीची के खाने के कारण ही ऐसा हो रहा है या इसकी कोई और भी वजह होगी जिसकी जानकारी विज्ञान जगत को नहीं? ये मौतें गरीब और आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों को ही हासिल हुयी, क्यों?

रिपोर्ट का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी

बिहार के मुजफ्फरपुर के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में दिमागी बुखार से पीड़ित अपने बच्चे के साथ मां। फोटो: चन्द्रकान्त मिश्रा

जिस तरह से बच्चों की अकाल मौत ने पैर पसारे हैं, इस तरह के सवालों का पूछा जाना तय है। एक बेहद गंभीर शोध की रपट विज्ञान पत्रिका लांसेट में सन 2017 में प्रकाशित हुई थी जिसका जिक्र यहाँ करना जरूरी है। नेशनल सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल इन इंडिया के डॉ. आकाश श्रीवास्तव और अन्य करीब 50 डॉक्टर्स और वैज्ञानिकों ने एक गहन शोध किया, जिसके परिणाम प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका 'लांसेट'में जनवरी 2017 (वोल्यूम 5 अंक 4) को प्रकाशित हुए।

इस रिपोर्ट को मुजफ्फरपुर और लीची से जुड़ी मौतों से जुड़ी तमाम शोध रपटों में सबसे अहम और सबसे बड़ी माना जा सकता है। इस वैज्ञानिक दल जिसमें डॉक्टर्स के अलावा विषय विशेषज्ञ भी थे, ने सन 2014 में मई 26 से लेकर जुलाई 17 के बीच मुजप्फरपुर के दो अस्पतालों में इस रोग से जुड़े लक्षणों का हवाला देकर दाखिला लेने वाले 15 साल से कम उम्र के बच्चों और उनके लक्षणों का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया।

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महत्वपूर्ण बात ये है कि डॉ. श्रीवास्तव और उनके साथियों की इस टीम ने इस शोध रपट से पहले पूर्व प्रकाशित वैज्ञानिक लेखों, शोध परिणामों का गहनता से अध्ययन भी किया था। सन 2013 में भारत के नेशनल सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल इन इंडिया और अमेरिका के यूनाइटेड स्टेट सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के वैज्ञानिकों ने इस रोग के दौरान रोगी बच्चों के शरीर में आंतरिक बदलाव और किसी सूक्ष्मजीव की उपस्थिति पर पैनी शोध करी और इस बात को खारिज़ किया कि इस रोग का रोगकारक कोई सूक्ष्मजीव हैं।

एक कारक साफ़ तौर पर दिखाई दिया


इस टीम द्वारा एकत्र किए गए ब्लड सैंपल्स का परिक्षण विश्वस्तरीय प्रयोगशालाओं में किया गया। किसी सूक्ष्मजीव की अनुपस्थिति ने इस टीम का ध्यान अन्य संभावित कारकों की ओर गया। भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों की सन 2013 की इस शोध में एक कारक साफ तौर से दिखायी दिया।

जितने भी रोगी बच्चे अस्पतालों में दाखिल हुए उनके में अधिकांश बच्चों के रक्त में शर्करा का स्तर काफी कम हो चुका था और शायद इसे ही बच्चों में मौत की मुख्य वजह समझा गया। इस शोध परिणामों ने डॉ. श्रीवास्तव और उनके साथियों की नयी शोध को एक दिशा जरूर दे दी।

मॉर्बीडिटी मोर्टल वीकली रिपोर्ट (1992) में एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित हुयी थी जिसमें सन 1989 से लेकर 1991 के बीच बच्चों में टॉक्सिक हायपोग्लायसेमिक सिंड्रोम होने की बात पुख्ता की गयी। जमैका (वेस्ट इंडीज़) में 15 साल से कम उम्र के बच्चों को स्थानीय फल 'एकी'के सेवन के बाद अचानक चक्कर आना, धड़कने तेज़ होना और मूर्छित होकर गिर जाने की शिकायत थी।

महज एक संयोग नहीं था

एकी उसी कुल का सदस्य पौधा है जिससे लीची आता है। रक्त में शर्करा की अचानक कमी की शिकायतें वेस्ट इंडीज़ के ही सुरीनाम और फ्रेंच गयाना से भी आती रही और जिसे बतौर शोध साबित कर वैज्ञानिक गैलार्ड और उनके साथियों ने सन 2011 में वैज्ञानिक पत्रिका फोरेंसिक साइंस इंटरनेशनल में प्रकाशित किया।

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सन 2000 से लेकर 2001 तक हैती से भी इसी तरह से शोध परिणामों को प्रकाशित किया गया। वेस्ट इंडीज़ के स्थानीय फल एकी और हिंदुस्तान के लीची को खाने के बाद बच्चों में एक जैसे लक्षण और लगभग उसी तरह की मृत्यु दर को देखा जाना महज एक संयोग नहीं था।

डॉ. श्रीवास्तव और उनकी टीम की शोध रपट भी लगभग इसी ओर इशारा इंगित करती है कि बच्चों के शरीर में लीची सेवन के बाद शर्करा की कमी होना इस रोग का प्रमुख कारक है। इस टीम ने अपनी शोध के दौरान इस बात को गौर से देखा कि कहीं किसी पेस्टीसाइड, सूक्ष्मजीव या किसी अन्य कारक की वजह से ऐसा हुआ हो।

मुख्य तौर पर रसायनों को ही माना गया वजह


करीब 390 रोगी बच्चों के ब्लड सैंपल्स एकत्र किए गए उनमें इक्का-दुक्का सैंपल्स के अलावा किसी भी सैंपल में किसी वायरस या अन्य किसी सूक्ष्मजीव होने की पुष्टि नहीं की गयी और मुख्य तौर पर लीची में पाए जाने वाले रसायनों को ही वजह माना गया।

दो अस्पतालों में भर्ती जिन बच्चों के सैंपल्स लिए गए थे उनमें 122 बच्चों की मृत्यु उपचार के दौरान हो गयी थी जिसका जिक्र इस शोध रपट में भी किया गया है। इसी शोध में उन इलाकों से लीची सैंपल्स भी एकत्र किए गए जिन इलाकों के बच्चे अस्पतालों में दाखिला लिए थे।

लीची में पाए जाने वाले रसायन 'हायपोग्लायसिन-ए'और मेथीलीनी सायक्लो प्रोपिल ग्लायसीन (एमसीपीजी) का अध्ययन किया गया और पाया गया कि इनमें ये दोनों रसायन काफी मात्रा में थे और तो और इन दोनों रसायनों की मात्रा अधपकी या कच्ची लीची में ज्यादा देखी गयी।

क्या हो सकती हैं संभावित वजहें?


अब तक 10 से ज्यादा शोध पत्र हिन्दुस्तानी लीची और उससे जुड़ी इस तरह की घटनाओं को लेकर दुनिया भर में प्रकाशित हुए हैं। लगभग सभी शोध पत्रों में लीची के खतरनाक रसायनों को ही मुख्य वजह माना गया है जिनकी वजह से बच्चों के शरीर में शर्करा का स्तर तेज़ी से घटता है और उसके बाद हालात तेज़ी से बिगड़ जाते हैं।

अक्सर देखने में आया है कि बच्चों ने यदि शाम का भोजन नहीं किया है तो हालात और भी ज्यादा बदतर हो जाते हैं। अधकची लीची में 'हायपोग्लायसिन-ए'और मेथीलीनी सायक्लो प्रोपिल ग्लायसीन (एमसीपीजी) की अधिकता और शाम का भोजन नहीं खा पाने से बच्चों की हालत और बिगड़ जाती है।

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कुपोषित बच्चों में चमकी रोग होने की ज्यादा गुंजाइश है। संतुलित आहार में कार्बोहाइड्रेड्स पाए जाते हैं और सही समय पर भोजन किया जाए और लीची का सेवन किया जाए तो इसके दोनों ही रसायन शरीर के कार्बोहाइड्रेड्स को तोड़ने में नष्ट हो जाते हैं लेकिन शाम को खाली पेट लीची का सेवन किया गया हो और उसके बाद भोजन नहीं किया जाए तो पूरी संभावनाएं हैं कि ये दोनों पादप रसायन आधी रात तक शारीरिक शर्करा का उपभोग कर उसका स्तर गिरा सकते हैं और इस रोग से बच्चे को सामना करना पड़ सकता है। सामान्यत: इस बुखार के लक्षणों को मध्यरात्रि के बाद ही देखा गया है।

उस इलाके के बच्चों के साथ ही क्यों?

अक्सर लोग यही सवाल करते हैं कि सिर्फ उस इलाके के बच्चों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है? इसकी संभावित वजह बच्चों का गरीब परिवार से होने की वजह से शरीर में पोषक तत्वों की कमी, अधकची लीची का सेवन और शाम को भोजन नहीं करना हो सकता है।

मुजफ्फरपुर जैसे इलाकों से लीची को डब्बों में बंद कर दूसरे शहरों तक भेजा जाता है, ये पूरी संभावना है कि पैकिंग होने के बाद से लेकर अन्य शहरों के बीच तक पहुंचने और बाज़ार तक आने के दौरान लीची पक चुकी होती है और इन लीची में अधकची लीची की तुलना में ये दोनों रसायन अपेक्षाकृत कम हो चुके होते हैं।

लीची के पकने का शुरुआती दौर मई महीने का अंत होता है और जून के अंत तक आते-आते ये पूरी तरह पक चुकी होती है और इस दौर तक बाज़ार में इसकी आवक भी कम होने लगती है। इसी वजह से लीची के पकने का शुरुआती दौर घातक दिखायी पड़ता है।

एक वजह यह भी हो सकती है


एक अन्य वजह यह भी हो सकती है कि जहाँ लीची के बाग हैं, वहाँ रहने वाले स्थानीय परिवारों के लिए लीची लगभग मुफ्त ही है, लेकिन शहरों तक आते-आते इसके भाव आसमान छूने लगते हैं और महंगी होने के कारण इसकी खरीदी प्रति परिवार कम ही होती है। ऐसे में इसका उपभोग भी कम हो जाता है। शहरी लोगों में जागरुकता भी ग्रामीण इलाकों की तुलना में ज्यादा है इस वजह से इन फलों को साफ धोकर और कम मात्रा में खाया जाता है।

15 साल से कम उम्र के वो बच्चे जिनकी रोग प्रतिरोधकता कम हो, वो ही इसके सबसे बड़े शिकार होते हैं। दो से पांच साल के बच्चे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं।

भारत के कई हिस्सों में लीची की अलग-अलग वेरायटीज़ उगायी जाती हैं, ये भी पता करना जरूरी है कि किस वेरायटी की लीची के बागों के पास इस तरह की घटनाएं ज्यादा देखी गयी।

आम तौर पर हर्बल खाद्य वस्तुओं, फलों और सब्जियों के सेवन को संपूर्ण सुरक्षित माना जाता है लेकिन ऐसा सोचना गलत है। हर सब्जियों, फलों के रासायनिक तत्व और उनकी उपस्थिति की प्रतिशत मात्रा अलग-अलग होती है। पेड़-पौधे और उनके अंग जहरीले भी हो सकते हैं या तय मात्रा से ज्यादा का सेवन घातक हो सकता है जैसा कि लीची के मामले में देखा जाता है।

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क्या करें और क्या ना करें

♦ लीची का सेवन सीमित मात्रा में हो, ज्यादा से ज्यादा 8 या 10 लीची ही एक वक्त पर खाएं। खाने से पहले ये भी तय करें की दोनों समय का आहार लेना जरूरी है।

♦ लीची पूरी तरह पकी हो ताकि इसमें 'हायपोग्लायसिन-ए'और मेथीलीनी सायक्लो प्रोपिल ग्लायसीन (एमसीपीजी) का स्तर कम हो।

♦ फलों को अच्छी तरह से धोकर खाएं

♦ फलों को खाने के बाद शक्कर या गुड़ जरूर चबाएं ताकि शरीर में शर्करा स्तर सामान्य बना रहे

♦ डायबिटीज़ के रोगी इससे तौबा करें

♦ चमकी बुखार के लक्षण दिखें तो सबसे पहले मीठा खाएं और तुरंत चिकित्सकीय सलाह लें

♦ समय पर नजदीकी अस्पताल पहुंचकर तुरंत इलाज शुरू करवाएं, जितनी देरी होगी, मामला उतना ही बिगड़ जाएगा।

♦ आम लोगों को जागरूक किया जाए और सही आहार और पोषक तत्वों की जानकारी समय-समय पर दी जाए।

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