स्वच्छ भारत एक औपचारिकता बन कर रह गया

Update: 2016-07-05 05:30 GMT
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गांधी का स्वच्छ भारत का सपना पूरा करने का बीड़ा उठाया है लेकिन आम भारतीय इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। देखने में आता है कि गाँवों में शौचालय तो बने पड़े हैं फिर भी गाँव के लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं। आगे भी ऐसे ही शौचालय बनते रहेंगे और आगे भी ग्रामीण उन्हें बेहतर विकल्प नहीं मानेंगे।

वास्तव में खुली हवा में बाहर शौच करने की आदत इतनी पुरानी है कि गाँव के लोग शौचालयों की तरफ प्रेरित ही नहीं होते। एक औपचारिकता की तरह शौचालय बनाए गए हैं, उनमें पानी की व्यवस्था नहीं की गई है। जहां के लोग पान, तम्बाकू और मसाला खाकर इधर-उधर पिचकारी मारते हैं वहां शौचालय बनाने की नहीं मानसिकता बदलने की आवश्यकता है।

अस्पतालों का कचरा, मन्दिरों के फूल-पत्ते और पूजा सामग्री, कारखानों का कचरा, लोगों का मल मूत्र, खेतों से बहकर आए कीटनाशक और उर्वरक, मेलों और धार्मिक आयोजनों से निकली प्लास्टिक और गन्दगी यह सब रोकने के लिए मानसिकता बदलने की जरूरत होगी। नदियों के किनारे शवदाह से मोक्ष मिले या न मिले, नदी में अधजले शव डालने से जल प्रदूषण अवश्य मिलेगा। 

हर साल नदी या तालाब में मूर्तियां विसर्जित की जाती हैं। दुर्गा, गणेश, सरस्वती या फिर अन्य देवी देवताओं के नाम पर ये आयोजन होते हैं। कुछ मन्दिरों के व्यवस्थापकों की मानसिकता बदली है और उन्होंने चढ़ावे के फूलों से पवित्र खाद बनाने का काम आरम्भ किया है, यह सराहनीय कदम है लेकिन प्लास्टिक की थैलियों के बारे में भी सोचना होगा जिनमें पूजा सामग्री आती है।

गाँवों में भी प्लास्टिक का चलन बढ़ रहा है जिसके निस्तारण का कोई उपाय नहीं है। गायें इसे खाती हैं और मरती हैं, कई किलो तक प्लास्टिक उनके पेट से निकलता है मरने के बाद। जो लोग गो-माता की जय बोलते रहते हैं उन पर प्लास्टिक खाकर गायें मरने के बाद गोहत्या का पाप लगना चाहिए। जब तक प्लास्टिक की थैलियां बनाने और बेचने पर प्रतिबन्ध नहीं लगेगा, इस बीमारी से निजात नहीं मिलेगी। उत्तर प्रदेश सरकार ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया, दो-चार दिन असर दिखा लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। इसी तरह उच्च न्यायालय ने शहरों में डेयरी खोलने पर प्रतिबन्ध लगाया था, एक दो साल असर दिखा अब फिर वहीं पुराना ढर्रा। शहरों में जगह-जगह कूड़े के अम्बार लगे हैं, बिना संकोच सड़क पर कूड़ा उड़ेल दिया जाता है। इस सब से निजात के लिए पैसे की नहीं दंड या डंडे की जरूरत है।  

गाँवों की बाजारों में उल्टा टंगे खाल रहित बकरों का खून एक वीभत्स दृश्य होता है। शहरों के बुचड़खानों के साथ जीने की आदत हमारी पड़ चुकी है। भारत को स्वच्छ दिखना ही नहीं, होना भी पड़ेगा। मिट्टी, पानी और हवा के प्रदूषण की जड़ में हमारी मानसिकता है।

स्वच्छ भारत के मार्ग में बाधक है घनी आबादी और गरीबों की जीवन शैली। बांगलादेश से अथवा गाँवों से पलायन करके आए लोग जो झुग्गी झोपड़ी बनाकर शहरों में रहते हैं या दलितों की कॉलोनी में स्वच्छता लाने के लिए कितने लोग गांधी जी की तरह वहां रहना शुरू करेंगे। यदि हमारे स्कूल कॉलेजों में छात्रों से अपनी कक्षाएं साफ करने के लिए कहा जाए तो पत्रकार कैमरा लेकर पहुंच जाते हैं। दफ्तरों के बाबुओं की मेज कैसे साफ रहेगी जब वे स्वयं साफ नहीं करेंगे और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी फाइलें एक मेज से दूसरी मेज तक पहुंचाना ही अपना काम समझते हैं। 

गाँव में जानवर मर जाने पर ठेकेदार उसकी खाल उधेड़कर निकाल ले जाते हैं और मांस छोड़ जाते हैं जो खुले में सड़ता रहता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दे रखा है कि शहर में गाय भैंसे पालकर डेयरी ना चलाई जाएं फिर भी सड़कों पर घूमते हुए जानवर गोबर और मूत्र फैलाते रहते हैं।

स्थानीय मेला, यहां तक कि कुम्भ जैसे आयोजनों में भी मल और कचरा विसर्जन की उचित व्यवस्था नहीं रहती। जमीन में गंदगी और जहरीले पदार्थ ढकते जाने से भी भूजल प्रदूषित होगा जो कभी शुद्ध नहीं हो पाएगा। बात-बात में भीड़ इकट्ठी कर ली जाती है चाहे नेताओं द्वारा, साधु सन्यासियों द्वारा, धार्मिक आयोजनों पर हो तो भीड़ अपने द्वारा फेंका गया कचरा और मलमूत्र छोड़कर चली जाती है। हमारे धर्म में व्यक्तिगत स्वच्छता पर जोर तो है परन्तु सामूहिक स्वच्छता पर नहीं। इसके लिए संस्कार और मानसिकता बदलने की जरूरत है, शौचालय वे खुद बनवा लेंगे।

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