टीचर्स डायरी: दक्षिण कोरिया में बढ़िया नौकरी छोड़, बच्चों को पढ़ाने और गाँवों में कैंसर के प्रति जागरूक करने के लिए लौटे भारत

सिद्धार्थ कुमार मिश्रा ने दक्षिण कोरिया के गाचोन विश्वविद्यालय के नेशनल कैंसर सेंटर में डॉक्टरेट के बाद का शोध किया। उनके पास एक आरामदायक जिंदगी और अच्छी सैलरी वाली नौकरी थी, जिसे उन्होंने भारत में छात्रों को पढ़ाने और ग्रामीण भारत में कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए छोड़ दिया।

Update: 2023-04-04 14:03 GMT

मेरे दादा भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र को शिक्षा से काफी लगाव था, जबकि वो खुद एक किसान थे। 50 से अधिक साल पहले, उन्होंने उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के बांसपार गाँव में पंडित योगेश्वर संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की थी। मैं भी 1980 में उस गाँव में पैदा हुआ था। वह हमेशा मेरे लिए अध्ययन करने और अधिक अध्ययन करने के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा का स्रोत रहा है। जिसके बाद मैं अपने ही देश के बच्चों के लिए कुछ करना चाहता था।

मैंने 1998 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान में स्नातक पूरा किया, जिसके बाद मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बॉयो केमिस्ट्री से एमएससी की, लेकिन मैं आगे और पढ़ना चाहता था, इसलिए मैंने सीएसआईआर-सीमैप से बॉयो केमिस्ट्री में पीएचडी की। इसके बाद मैं दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में एक शोध सहयोगी के रूप में शामिल हुआ और 2008 और 2010 के बीच लीवर कैंसर पर शोध किया।


पेट और आंतों के कैंसर पर डॉक्टरेट के बाद के शोध के लिए 2010 और 2013 के बीच दक्षिण कोरिया में नेशनल कैंसर सेंटर, गाचॉन विश्वविद्यालय में काम करने के लिए मुझे विदेश यात्रा करने का अवसर मिला।

जब मैं दक्षिण कोरिया में था, तो मुझे समझ में आया कि घर वापस आने पर हर कोई विदेश में पढ़ने के लिए क्यों जाना चाहता है। । कोरिया सरकार शोध पर बहुत ज्यादा फंड करती है। तो इस कारण शोध की हर चीजें आसानी से मिल जाती है। जब मैं भारत में रिसर्च कर रहा था तो तब मुझे महीनों लग जाते थे बाबुओं से किसी केमिकल की अनुमति प्राप्त करने के लिए, लेकिन ऐसा दक्षिण कोरिया में देखने को नही मिला।

यहां तक कि जब मैं दक्षिण कोरिया में अपना शोध कर रहा था, मैंने फैसला किया था कि मैं अपने देश लौट जाऊंगा। यह एक आसान फैसला नहीं था क्योंकि मैं भारत में पोस्टडॉक्टोरल रिसर्च एसोसिएट के रूप में अर्जित वेतन का तीन गुना वेतन प्राप्त कर रहा था।

फिर भी, मैं भारत वापस आ गया और 2013 में मध्य प्रदेश के सागर में डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में शामिल हो गया। मैं 2020 तक वहां था जिसके बाद मैंने छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर में जीव विज्ञान में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में प्रवेश लिया। मई 2022 में, मैं बायोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर के रूप में लखनऊ विश्वविद्यालय में ट्रांसफर हो गया।

मिश्रा को इंडियन बोटैनिकल सोसाइटी द्वारा 2014 में एमएस स्वामीनाथन यंग बॉटनिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया गया है।

केवल शिक्षा प्राप्त करना या प्रदान करना ही काफी नहीं है। इसलिए, मैं ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर के बारे में जागरूकता फैला रहा हूं। मैं वहां वर्कशॉप आयोजित करता हूं और मेरा मानना है कि यह बहुत जरूरी है क्योंकि ग्रामीण भारत में कैंसर पीड़ित लोगों की संख्या बहुत अधिक है। यह आंशिक रूप से कैंसर के बारे में जागरूकता की कमी और निश्चित रूप से कैंसर के इलाज की बहुत महंगी प्रकृति के कारण है। मैं इसे जितना हो सके बदलना चाहूंगा।

मैं भी अपने काम से समय निकालकर अपने गाँव जाता हूं और वहां बच्चों को पढ़ाता हूं और उन्हें और पढ़ने के लिए प्रेरित करता हूं।

गाँव कनेक्शन के इंटर्न दानिश से सिद्धार्थ मिश्रा ने जैसे बताया 

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