टीचर्स डायरी: 'मोबाइल के नेटवर्क जैसा होता है टीचर-स्टूडेंट का रिश्ता, एक दूसरे के बिना अधूरे ही रहेंगे'

कुछ महीने पहले प्राथमिक विद्यालय के टीचर का वीडियो काफी वायरल हुआ था, जिसमें बच्चे टीचर के ट्रांसफर होने पर उन्हें जाने नहीं देना चाहते थे। आखिर टीचर और बच्चों के बीच ऐसा क्या कनेक्शन था, टीचर्स डायरी में बता रहे हैं वायरल गुरु शिवेंद्र सिंह बघेल।

Update: 2023-02-20 12:50 GMT

पहाड़ी ऊबड-खाबड़ रास्ते से नीचे उतरते, गुलाबी यूनिफॉर्म में बच्चे अपने टीचर को पकड़ को रो रहे थे, हर कोई एक अपने टीचर को गले से लगा लेना चाहता था। ये वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ, जिसने भी ये वीडियो देखा उसे लगा कि आखिर बच्चों और टीचर के बीच ऐसा क्या कनेक्शन था। जिसकी वजह से बच्चे अपने टीचर के ट्रांसफर पर इतना रो रहे थे।

ये हैं वायरल गुरु शिवेंद्र सिंह बघेल जिनकी पहली नियुक्ति उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिले चंदौली के कंपोजिट विद्यालय रतिगढ़, चकिया में हुई, जिनके ट्रांसफर पर बच्चे इतना रो रहे थे। शिवेंद्र सिंह अपनी इस यात्रा को गाँव कनेक्शन से साझा कर रहे हैं।

मैं कहता हूं कि अगर मोबाइल में नेटवर्क ना अच्छा हो तो फोटो न तो डाउनलोड हो सकती है और न ही अपलोड हो सकती है, तो नेटवर्क में होना बहुत जरुरी होता है, यही कनेक्शन एक स्टूडेंट और टीचर के बीच होता है।

पापा को हमेशा लगता था कि मुझे सिविल सर्विसेज में जाना चाहिए, लेकिन मेरा सपना था कि पत्रकारिता में जाकर किसी टीवी चैनल में बैठकर लोगों को इंटरव्यू करुं। मैंने अखबार में भी रिपोर्टर की नौकरी की, लेकिन साथ ही साथ पढ़ाई भी चलती रही, ग्रेजुएशन किया, फिर उसके बाद बीटीसी, यूपीटेट और सुपर टेट भी पास हो गया। और जब टीचर की भर्ती निकली तो मेरा भी चयन हो गया और पहली नौकरी लगी यूपी के आखिरी जिले चंदौली में।

जब सेलेक्शन हुआ तो मैं ईश्वर को कोस भी रहा था कि ऐसी सड़कों पर चले जा रहे हैं जहां दोनों तरफ पहाड़ हैं, आप सिर्फ चलते चले रहे हैं पता नहीं कि कहां जाना है। फाइनली पहुंचा एक ऐसे स्कूल में, मुझे यही लग रहा था कि इतनी बड़ी क्या गलती कि थी, जिसकी मुझे इतनी बड़ी सजा मिली है।

जब वहां पर पहुंचा तो कुछ दिन तो समझ ही नहीं आया, लगता था कि मैं कहां आ गया, लेकिन फिर लगा कि अब यहीं सारी जिंदगी रहना है तो यहां कुछ नया करना पड़ेगा। नंबर बढ़ाने की जिम्मेदारी आयी, अगर यहां जिस काम के लिए भेजे गए हैं, वो काम तो करना ही पड़ेगा। शुरूआत की तो 36 बच्चे थे, तब लगा कि बच्चे बढ़ाने के लिए उनके घर जाना होगा, शुरूआत में बहुत मेहनत करनी पड़ी।

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बच्चों को स्कूल लाना बड़ा टारगेट था, हमने एक टीम बनाई कि सुबह उठकर उनके घर जाएंगे, जब बच्चों को लाने के लिए निकलते थे तो देखते थे कि कोई खेल रहा है तो पेड़ों पर चढ़ा मिलता था, उनको लेकर आते थे। स्टार्टिंग के एक महीने हम लोगों ने यही किया, बच्चों को स्कूल लाते थे और उन्हें किसी तरह से स्कूल में रोकते थे।

फिर इस तरह से बच्चों के नंबर बढ़ने लगे, तब हमें समझ में आया कि बच्चे रुक रहे हैं, अब फिर शुरू किया कि अब बच्चे रुक रहे हैं तो इन्हें पढ़ाना होगा। तो बाकी लोगों से अलग करने के लिए हमने पढ़ाई शुरू कि उसके बाद दूसरी एक्टिविटी भी शुरू की। शनिवार को नो बैग डे होता था, उस दिन बच्चों को खेल खेल में पढ़ाया जाता।

धीरे-धीरे बढ़कर बच्चों की संख्या 130 से ज्यादा हो गई, वहां हर एक बच्चे की अपनी कहानी थी। चार साल वहां पढ़ाने के बाद मेरा ट्रांसफर हरदोई में हो गया, पहले तो बच्चों को नहीं बताया कि मैं जाने वाला हूं, बच्चों को नाश्ता-पानी कराया और जब बैग उठाने को जाने को हुआ तो बच्चों में शोर मच गया कि सर तो जाने वाले हैं।

उन बच्चों को जब पता चला तो रोने का जो सिलसिला था बढ़ता ही गया, मुझे समझ में नहीं आ रहा था इनको छोड़ूं कैसे और अगर मैं रो दूंगा तो बहुत दिक्कत हो जाएगी। मैं बच्चों से बस यही कहता रहा कि मैं आता रहूंगा।

बच्चों के प्यार से ही मैं आज यहां तक पहुंच पाया हूं, आज भी उन बच्चों से बात होती रहती है, मैं उन्हें आगे बढ़ना देखना चाहता हूं।

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