इंटरव्यू: राजनीतिक दलों में फंडिंग ही भ्रष्टाचार की जड़ : एसवाई कुरैशी

Update: 2017-01-16 12:11 GMT
भ्रष्टाचार और चुनाव के गठजोड़ पर खुलकर बोले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी।

उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पांच राज्यों में चुनाव का बिगुल बज चुका है। सभी पार्टियों का प्रचार जोरों पर है, चुनाव आयोग का प्रयास है कि इन चुनावों में धनबल और बाहुबल को कैसे रोका जा सके? चुनावों में सुधार कैसे आएगा इन्हीं मसलों पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की अनुराग धर्मेंद्र मिश्र से विशेष बातचीत...

नई दिल्ली। “चुनाव ही सारे भ्रष्टाचार की जड़ है। जब तक चुनाव सुधार नहीं होते तब तक चीजें सुधारना बेहद मुश्किल है।” भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं, “जिस तरह से इलेक्शन फंडिंग हो रही है, वही राजनीति में भ्रष्टाचार की जड़ है।”

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा दिए गए एक साथ चुनाव कराने के सुझाव का समर्थन करते हुए डॉ. कुरैशी कहते हैं, “मैं दो तर्क और जोड़ना चाहूँगा। जब पांचों साल चुनाव होते रहेंगे तो पांचों साल फंड कलेक्शन होगा और भ्रष्टाचार जारी रहेगा। दूसरा, चुनाव में जाति-संप्रदाय के घालमेल से सामाज में बैमनस्य का भाव भी पांचों साल बना रहे वो भी ठीक नहीं,” आगे कहते हैं, “हाँ, कुछ और मसले हैं जैसे कि एक साथ चुनावों से स्थानीय-राष्ट्रीय मसलों का घालमेल हो जाएगा। ये इस विचार के खिलाफ हो जाता है, लेकिन उन सब पर बहस हो सकती है।”

सरकार जहां कैशलेस लेनदेन को बढ़ावा दे रही है तो वहीं चुनाव आयोग ने चुनावों में बीस हजार से अधिक लेन-देनों को चेक या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भुगतान करने के निर्देश दिए हैं। “एक तरफ सरकार जहां सब्जी और रिक्शे वाले से भी कैशलेस होने की अपील कर रही है और उसे बढ़वा देने के लिए बकायदा कार्यक्रम चला रही है, तो चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जो उसे कैशलेस होने से रोके। इसलिए मुझे लगता है कि चुनाव आयोग ने एक बड़ा अच्छा मौका छोड़ दिया।”

पिछले लोस चुनावों में चुनाव आयोग ने बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी को पार्कों में ढकने के आदेश दिए थे। इसके लिए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त डॉ. कुरैशी का मजाक भी बना था।

“जहाँ तक हाथियों को ढकने की बात है तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद हम बसपा का चुनाव निशान छीन सकते थे, लेकिन हमने सिर्फ उन्हें ढकने का फैसला किया। अब ये भले किसी को अटपटा लगे लेकिन हमें तो अपना काम करना है। इसके अलावा हमारे पास जिन पार्कों में मूर्तियां लगी हैं, उन पर ताला लगाने का विकल्प था, लेकिन कोई आम नागरिक कोर्ट पहुँच जाता और पार्क में टहलने के अपने अधिकार के हनन का दावा कर सकता था।” आगे कहते हैं, “जब हम प्रधानमंत्री बाजपेयी की तस्वीरें उतरवा सकते हैं तो हाथियों का ढकने में किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। इन हाथियों को (लखनऊ और नोएडा) ढकने में लगभग सिर्फ 3 लाख रुपए ही खर्च हुए थे।”

इस बार केन्द्र सरकार एक फरवरी को बजट पेश करेगी और फिर तीन-चार दिन बार 5 राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं। इसे लेकर बहस हो रही है। इस मामले में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा, “सरकारों को थोड़ा उदार रवैया अपनाना चाहिए। जो चीज सत्तर साल से फरवरी के अंत में हो रही है उसे एकदम पीछे कर देने से बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आ जाएगा। आचार संहिता में भी ये अपेक्षा है कि सरकार ऐसा कुछ नहीं करेंगी जिससे चुनावों में उन्हें एकतरफा लाभ मिलने की गुंजाइश हो।

सरकार ने अगर (बजट की तारीख बदलने की) पहले भी घोषणा कर दी थी तो भी चुनाव करवाने की दृष्टि से वह पर्याप्त नहीं थी। अगर पिछली सरकार ने ऐसी स्थिति में बजट मार्च में दिया था तो ऐसे उदाहरणों का अनुसरण होना चाहिए।” चुनावों के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में बाढ़ आ जाती है, इस पर आयोग पर उठने वाले सवालों के बारे में डॉ. कुरैशी कहते हैं, “ देखिए, चुनाव आचार संहिता के अंतर्गत जो भी शक्तियां आती हैं, उनका हम पूरा उपयोग करते हैं। इसमें एक बात समझनी होगी कि किसी बड़े नेता को चेतावनी देना कम नहीं माना जाना चाहिए। आयोग की इस चेतावनी से ही उसकी छवि जनता की नज़र में गिर जाती है।”

कालाधन पकड़ना चूहे-बिल्ली का खेल : कुरैशी

सवाल : सी राजगोपालाचारी ने कहा था कि ‘एक दिन ऐसा आएगा जब जनता इस सब से त्रस्त होकर कहेगी कि पुराना (ब्रिटिश) राज ही बेहतर था।’ क्या ये स्थिति आ चुकी है?

जवाब : राजगोपालाचारी जी की बात कितनी सही साबित हुई या हो रही है, इस बात का पता हमें 4-5 साल पहले हुए अन्ना आंदोलन से चलता है। जब राजधानी की सड़कों पर लाखों की संख्या में जनता उतरी। हालांकि बाद में इस आंदोलन उपयोग का कुछ लोगों ने चतुराई पूर्वक अपने राजनैतिक हित साधने के लिए किया लेकिन इस आंदोलन ने ये दिखा दिया कि भ्रष्टाचार के मसले पर बर्दाश्त की एक सीमा होती है। अगर राजनीतिज्ञों ने अपने आप को नहीं सुधारा तो जनता भी चुप बैठने वाली नहीं है।

भ्रष्टाचार के मसले पर भी लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आ रहा है। पहले जहां बिजली चोरी या किसी सरकारी कार्यालय में एक कर्मचारी या अधिकारी द्वारा घूसखोरी करने पर अन्य साथी हंसते हुए अपनी सहमति जताते थे। वहीं आज (भले ही छोटे स्तर पर सही) इन सब चीजों को एक बुराई के तौर पर लिया जाने लगा है।

सवाल: चुनाव सुधारों की बात प्रधानमंत्री जी ने सरकार चुने जाने के बाद अपने पहले संबोधन में की थी लेकिन हुआ क्या अभी तक?

जवाब: मैं ऐसा नहीं मानता। कुछ हफ़्ते पहले प्रधानमंत्री जी ने अपनी पार्टी के सांसदों से कहा कि वो अपने अकाउंट की जानकारी पार्टी अध्यक्ष को दें। इससे पहले तो किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं कहा था। इन्होंने शुरुआत तो की, पूरे सांसद न सही, अपने घर से तो शुरुआत की। फिर इसी बहाने चुनाव सुधारों की बहस भी शुरू हुई।

सवाल: राजनीति में जो गिरावट आई है, उसके लिए सिर्फ राजनेता ही दोषी हैं या जनता भी है?

जवाब: राजनीति में गिरावट के लिए जनता को दोष देना ठीक नहीं। राजनीति में नेता आम जनता का नेतृत्व करता है। ऐसे में अगर नेता ही सही राह नहीं दिखाएंगे तो जनता को दोष नहीं दिया जा सकता।

सवाल: तकनीक और आधार का बढ़ता हुआ प्रयोग, अब तो अंगूठा लगाइए और पैसे ट्रांसफर… तो फिर ऑनलाइन वोट क्यों नहीं?

जवाब : ऑनलाइन वोटिंग का हम दो कारणों से समर्थन नहीं करते। एक तो टेक्नोलॉजी (कनेक्टिविटी) का कोई बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। दूसरा कारण ये कि इंटरनेट पूरी तरह हैक प्रूफ नहीं है। जब अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश में पेंटागन का डेटा हैक किया जा सकता है। तो हमारी तो हैसियत ही क्या है? इसलिए एक सुरक्षित लोकतंत्र के मामले में इस तरह के विचार का मैं विरोध करता हूं। ये तो हुए तकनीकी कारण। एक अन्य कारण ये है कि मान लीजिए आपके यहां ऑनलाइन वोटिंग की सुविधा है, तो कोई अपराधी या गुण्डा किस्म का व्यक्ति आपके कनपटी पर पिस्तौल रखकर या पैसों का लालच दिखाकर वोट डलवा सकता है तो ऐसी स्थिति में हम लोगों को कैसे सुरक्षा दे पाएंगे।

सवाल : पेड न्यूज़ का मामला कितना चुनौती पूर्ण है?

जवाब : देखिए पेड न्यूज़ के मसले पर सभी शामिल होते हैं। क्या पक्ष और क्या विपक्ष? इस पर आयोग चाह कर भी बहुत कुछ नहीं कर सकता क्योंकि हमारे पास भौतिक रूप से तो कुछ दिखाने के लिए तो होता नहीं है। पेड न्यूज़ के मामले में लेने वाले और देने वाले दोनों ही सहमत और खुश होते हैं। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग क्या कर सकता है? आचार संहिता में हम मीडिया पर नजर रखने के लिए जिलेवार समितियां भी बनाते हैं। इसमें एक वर्किंग जर्नलिस्ट भी रहता है क्योंकि पेड न्यूज़ के अधिकतर मामले सीधे मीडिया मालिक से संबंधित होते हैं। पेड न्यूज़ रोकने के लिए हमारी मांग रही है कि इसे आपराधिक दोष करार दिया जाए न कि सिर्फ चुनावी गड़बड़ी। आपराधिक दोष घोषित होने के बाद हो सकता है कि डर के कारण इसे कुछ हद तक रोका जा सके।

सवाल : महिलाओं को चुनाव में मुखौटे की तरह उपयोग किया जाता है, उनकी वास्तविक भागीदारी नहीं होती। ऐसा क्यों है?

जवाब : जबसे हमने मतदाता जागरुकता अभियान शुरू किया है, तब से महिलाओं का मत प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षा अधिक हुआ है। इसका उदाहरण न सिर्फ आप केरल में देख सकते हैं बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में भी देखा जा सकता है। एक तरफ महिलाओं की मतदान में अधिक भागेदारी है लेकिन वो उसी अनुपात में चुनकर नहीं आतीं तो इसके लिए राजनैतिक दल दोषी हैं, जो महिलाओं को उचित संख्या में टिकट ही नहीं देते। पिछले लोकसभा चुनावों में राजनैतिक पार्टियों ने 6 प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिए थे लेकिन अंतिम रूप से चुनीं गईं महिलाओं की संख्या 9 प्रतिशत थी। इसका मतलब है कि आम लोगों को महिलाओं को चुनने की कोई आपत्ति नहीं है।

साभार: chaupal.org

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