क्या कोविड-19 ने देश के असंगठित क्षेत्र के मुद्दों पर पुनर्विचार में मदद की?
इन कामगारों के सामने खड़ी चुनौतियां पूरी तरह नयी नहीं हैं, मगर महामारी के इस दौर में समाधानों को पहले से कहीं ज्यादा जल्दी पेश किये जाने की जरूरत है। अक्सर रोज कमाकर खाने वाले इन कामगारों के लिये वर्तमान आर्थिक प्रभाव भी कहीं ज्यादा विध्वंसक हैं।
भारत पिछले कुछ महीनों के दौरान असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बहुत बड़े पैमाने पर पलायन का गवाह रहा है। इससे भारत की विकास गाथा में इन मेहनतकश लोगों की भूमिका पर सवालों का पिटारा भी खुल गया है।
नगरीय भारत काफी हद तक इसी अनौपचारिक ग्रामीण श्रम शक्ति पर निर्भर करता है। ये श्रमिक रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की तरफ रुख करते हैं और लगातार फैल रहे शहरों के निर्माण में मदद करते हैं।
हमारे शहरों के निर्माण में इतना महत्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद इन श्रमिकों के काम का कोई दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है। हालात तब विस्फोटक हो गये जब भारत सरकार ने कोविड-19 महामारी के कारण मार्च में अभूतपूर्व पूर्णबंदी लागू कर दी। इसके परिणामस्वरूप अप्रैल में 12 करोड़ भारतीयों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी।
इन कामगारों के सामने खड़ी चुनौतियां पूरी तरह नयी नहीं हैं, मगर महामारी के इस दौर में समाधानों को पहले से कहीं ज्यादा जल्दी पेश किये जाने की जरूरत है। अक्सर रोज कमाकर खाने वाले इन कामगारों के लिये वर्तमान आर्थिक प्रभाव भी कहीं ज्यादा विध्वंसक हैं।
डब्लूआरआई-इंडिया द्वारा पिछली चार जून को माधव पई (निदेशक-सस्टेनेबल सिटीज, डब्लूआरआई इंडिया) की ओर से आयोजित वेबिनार 'इनफॉर्मल इकॉनमी इन ऑर सिटीज' में उन सिफारिशों पर खास जोर दिया गया कि सरकार संकट की इस घड़ी में असंगठित क्षेत्र के कामगारों और श्रमिकों की किस तरह मदद कर सकती है। इस वेबिनार में उभरे छह प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं :
1. मलिन बस्तियों में रहने वाले समुदाय
स्पार्क की निदेशक और शैक/स्लीम ड्वेलर्स इंटरनेशनल की चेयरपर्सन शीला पटेल ने समुदायों के निर्माण का महत्व जाहिर करते हुए कहा, "मेरा संगठन विभिन्न महासंघों की मदद से मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों, निर्माण कार्यों में लगे श्रमिकों और अन्य दिहाड़ी प्रवासी मजदूरों के लिये काम करता है।" आगे देखें तो समुदायों को माध्यम बनाया जाना चाहिये और सारे लेन-देन उसी के जरिये किये जाने चाहिये।
उन्हें सरकार और सिविल सोसाइटी के सदस्यों के बीच ज्यादा मजबूत रिश्ते बनाने में मदद करनी चाहिये। धारावी में सात प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और 130 हॉस्पिटल बेड हैं (चार जून तक की स्थिति के अनुसार)। हालांकि ज्यादातर अनौपचारिक बस्तियां तैयार नहीं दिखतीं। सरकार ने कोविड-19 महामारी से बचाव के लिये तीन अरब डॉलर का कर्ज लिया है, लेकिन देखना यह है कि उसमें से कितना हिस्सा इन लोगों की मदद के लिये खर्च किया जाता है।
वैश्विक महामारी के दौरान डब्लूएचओ, संयुक्त राष्ट्र और अन्य थर्ड-पार्टी संगठनों द्वारा जरूरी मध्यस्ता और नियमन सम्बन्धी आवश्यक प्रोटोकॉल का पालन नहीं किये जाने से मलिन बस्तियों की और भी बुरी तस्वीर सामने आयी है।
लिहाजा असंगठित क्षेत्र में किसी प्रकार के पंजीकृत संगठन या समुदाय उनकी आवाज को उठाने में मदद करेंगे ताकि शासन-प्रशासन को उनकी सभी समस्याओं का बेहतर तरीके से समाधान करने में मदद मिल सके।
2. शोषित हुए बगैर डेटा, समुदायों के जरिये डेटा
डब्यूआरआई इंडिया के सीनियर फेलो और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व डीन प्रोफेसर अमिताभ कुंडू ने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का डेटा जुटाने पर जोर देते हुए कहा, "जब हम असंगठित क्षेत्र के प्रवासी मजदूरों के बारे में कल्पना करते हैं तो हमें रेल पटरी पर टहलती औरतें, बच्चे और ट्रकों और बसों में भरे लोगों का हुजूम दिखायी देता है।''
जोखिम में जी रहे अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूरों और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के बीच अंतर को समझने और नीतिगत हस्तेक्षेपों को आकार देने के लिये श्रमिकों का एक सटीक डेटाबेस तैयार करने की जरूरत है।
लॉकडाउन की वजह से ऐसे तंग इलाकों में पृथक्करण और बढ़ा है जहां एक ही कमरे में चार लोग रहते हैं। यहां गौर करने की बात है कि महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में रहने वाली 42 प्रतिशत आबादी एक कमरे के मकान/अपार्टमेंट में रहती है। इन हालात को टाला जा सकता है, बशर्ते उन श्रमिकों और कामगारों की सही संख्या मालूम हो जाए जिन्हें वापस भेजने की जरूरत है।
नेशनल सैम्पल सर्वे (एनएसएस) और पॉपुलेशन सेंसस के आंकड़ों के आधार पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे अति संवेदनशील लोगों की सही संख्या का पता लगाया जा सकता है और इस डेटाबेस का इस्तेमाल रणनीति तैयार करने में किया जा सकता है।
3. वर्तमान कानूनों पर फिर से गहरी नजर डालना
पूर्व आईएएस अधिकारी शैलजा चंद्रा ने वर्तमान में भारत में लागू श्रम कानूनों के अब पुराने हो चुकने की बात को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि ऐसे में जब संसद में इस सिलसिले में एक विधेयक अटका हुआ है, श्रमिकों की दशा का बेहतर अंदाजा इस पैमाने से लगाया जा सकता है कि वे शहरी इलाकों में बनी झुग्गी/मलिन बस्ती में अपने जीवन-यापन पर कितना धन खर्च करते हैं।
उन्होंने इन मजदूरों की जिंदगी को संवैधानिक व्यवस्थाओं और राजनीतिक अर्थव्यवस्था को चला रही नीतियों के चश्मे से देखने की अहमियत पर भी जोर दिया। अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के संकट के बेहतर समाधान की कार्ययोजना इस वक्त किसी भी राज्य के पास नहीं है।
भारत में 44 श्रम कानून हैं लेकिन उन्हें अभी तक गम्भीरता से लागू नहीं किया गया है। श्रम मंत्रालय भी मौजूदा हालात के आगे बेबस नजर आता है। वर्ष 2011 से 2016 के बीच भारत में रोजगार के लिये सालाना करीब 90 लाख श्रमिकों ने अंतरराज्यीय विस्थापन किया। वहीं जनगणना 2011 के मुताबिक अंतरराज्यीय और राज्यपारीय विस्थानन करने वाले श्रमिकों का आंकड़ा करीब 14 करोड़ है।
कुछ अनुमानों के मुताबिक देश में मौजूद श्रम शक्ति में कम से कम 10 प्रतिशत हिस्सा उन प्रवासी श्रमिकों का है जो देश की जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं।
वर्तमान में एक संसदीय समिति चार प्रस्तावित संहिताओं की व्यापवहारिकता का आकलन कर रही है। राज्य सरकार को हर प्रवासी श्रमिक का पंजीयन करना चाहिये और उनकी पात्रता को सटीक ढंग से मापने के लिये जानकारी को अपडेट करना चाहिये। मगर यह भी ख्याल रखना होगा कि पंजीयन तो महज पहला कदम है। प्रवासी मजदूरों को काम पर रखने वाली परियोजनाओं पर प्रचार के बगैर उनके लिये राज्य के संसाधन प्राप्त करना मुश्किल होगा।
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श्रमिकों का पंजीयन करना बहुत बड़ी चुनौती होगी और अगर इसकी प्रक्रिया को सरल, पारदर्शी और किफायती नहीं बनाया गया तो वह वंचित करने वाली और शोषणकारी हो सकती है। लिहाजा शोषण के बगैर श्रमिकों का पंजीयन सुनिश्चित करना समय की मांग है। इसे मात्र प्रवासी मजदूरों की बात समझकर नहीं बल्कि उन लोगों का सरोकार मानकर समझना होगा जो देश की जीडीपी में अपना योगदान कर रहे हैं।
सरकार को करोड़ों श्रमिकों का ख्याल रखते हुए चार संहिताओं में 44 श्रम कानूनों को लागू करना है मगर हो सकता है कि मौजूदा श्रम विभाग के जरिये इसे आगे बढ़ाने से ज्यादा फायदा न हो।
यह एक सच्चाई है कि वैश्विक आर्थिक क्रम अब अधिक शहरीकरण पर जोर देगा, लिहाजा और भी ज्यादा संख्या में लोग नगरों का रुख करेंगे। अनेक शहरी इलाकों में अब प्रवासी/जोखिमपूर्ण श्रमिकों की तादाद बहुत बढ़ेगी। इसका मतलब यह होगा कि बड़े समूहों में लोग ऐसी जगह पर एक साथ रहने को मजबूर होंगे, जहां मूलभूत सेवाएं भी नहीं होंगी।
4. श्रमिकों/कामगारों को धन भेजने के लिये एक माध्यम तैयार हो
बेस्टो वर्कर्स यूनियन के महासचिव शशांक राव ने कहा कि मुम्बई में 60-70 हजार टैक्सी चालक हैं। वहीं पूरे महाराष्ट्र में 15 लाख से ज्यादा लोग ऑटो रिक्शा चलाते हैं। राज्य सरकार की योजना के मुताबिक हर प्रवासी श्रमिक को मिलने वाली 10 हजार रुपये महीने की आमदनी का सफलतापूर्वक वितरण नहीं हुआ है। इस वजह से पिछले कुछ महीनों से उन्हें एक भी पैसा नहीं मिला है। अगर मिला भी है तो वह बहुत कम है
इस वक्त सिर्फ सब्जी और फल बेचने वालों के पास ही काम है। सड़क पर रेहड़ी या ठेला लगाने वाले लोग स्वरोजगार कर रहे हैं, मगर उनमें से 90 प्रतिशत से ज्यादा लोगों का पंजीयन नहीं है या उन्हें जरूरी वैधता हासिल नहीं है। ऐसे में केन्द्र सरकार द्वारा शुरू की जाने वाली सहायता योजनाओं का लाभ इन लोगों को नहीं मिलेगा। अकेले मुम्बई में ही तीन लाख से ज्यादा रेहड़ी वाले हैं। पूरे महाराष्ट्र में इनकी तादाद 11 लाख से ज्यादा है।
इस वक्त 'प्रवासी श्रमिक' की परिभाषा की फौरन समीक्षा करने की जरूरत है। उनमें से ज्यादातर श्रमिक पिछले 35 साल से ज्यादा समय तक नगरीय क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और वे पिछले कई दशकों से महाराष्ट्र का हिस्सा हैं। यहीं पर उनके परिवार के साथ-साथ उनका निवेश, उनकी आमदनी का स्रोत और रोजगार मौजूद है। ऐसे में उन्हें प्रवासी नहीं कहा जाना चाहिये।
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कोविड-19 से प्रभावित लोगों के परिवारों के लिये 50 लाख रुपये के बीमे की घोषणा की गयी है। राव ने यह भी कहा कि बेस्टो प्रबन्धन के पास 24 से ज्यादा डॉक्टर मौजूद हैं जिन्हें इस मुश्किल वक्त में काम पर लगाया जा सकता है। उन्होंने उन केन्द्रों के बारे में भी बताया जहां कोविड-19 वार्ड बनाये जा सकते हैं।
5. बचाव के लिये प्रौद्योगिकी
योजनाओं में प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के महत्व को मानना महत्वपूर्ण है ताकि उनमें से कुछ प्रणालियों को लागू किया जा सके। ओमिडयर नेटवर्क इंडिया में पार्टनर और आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज की पूर्व प्रबन्धंक निदेशक और सीईओ शिल्पा कुमार ने प्रौद्योगिकी से लैस उद्यमों एवं संस्थानों के महत्व के बारे में बताया। लॉकडाउन के कुछ ही दिन बाद दिल्ली की मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों को मुफ्त राशन दिया गया जो छह हफ्तों तक चलेगा।
महिला कामगारों को मजदूरी मिली और पेशनभोगियों को अपनी जमा राशि पर दोगुना फायदा मिला। जरूरतमंदों को लॉकडाउन के 48 घंटे के अंदर एक दिन में दो वक्त का खाना मिला और तब से 20 लाख लोगों (पटना की आबादी जितने) को रोजाना भोजन दिया जा रहा है। सर्वे से प्राप्त डेटा से पता चलता है कि कल्याणकारी कदमों का फायदा गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वाले 80 प्रतिशत लोगों तक पहुंच सकता है।
ओमिडयर नेटवर्क इंडिया नगरीय शासन व्यवस्था को बेहतर करने के लिये अनेक युवा उद्यमों और अनुसंधान संस्थानों की मदद करता है। शहरी इलाकों में अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का समुदाय बेहद जरूरी अंग है और हर राज्य सरकार को इन श्रमिकों को मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने सम्बन्धी कदमों को जमीन पर उतारने की जरूरत है।
6. पड़ोस की तस्वीर बदलते हैं सार्वजनिक स्थल
डब्लूआरआई-इंडिया के माधव पई ने बताया कि योजना सम्बन्धी भौतिक सिद्धांतों को श्रमिकों की आवश्यकताओं के साथ कैसे बेहतर ढंग से जोड़ा जा सकता है, सड़कों पर विक्रेताओं के लिये कैसे जगह बनायी जाए, सस्ते मकानों की डिजाइन पर फिर से कैसे गौर किया जा सकता है इत्यादि। इससे हम अपनी योजनाओं को बेहतर बनाने की दिशा में बहुत आगे जा सकते हैं।
अनौपचारिक बस्तियों में सार्वजनिक स्थलों को अच्छी तरह से डिजायन किये जाने से स्थानीय कारोबार में बढ़ोत्तरी हो सकती है। साथ ही जन सुरक्षा में वृद्धि और उस जगह के सौंदर्य में भी इजाफा हो सकता है। कोविड-19 के इस दौर में सार्वजनिक क्षेत्रों में सुधार होने से भीड़ को आसानी से सम्भाला जा सकता है, स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा मिल सकता है और वे स्थल अस्थायी आश्रयस्थलों और बाजारों के तौर पर भी इस्तेमाल किये जा सकते हैं।
(इस लेख को डब्ल्यूआरआई इंडिया से लिया गया है)
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