कोविड-19 में देश के पत्रकार कर रहे इन मुश्किलों का सामना
कोविड-19 की रिपोर्टिंग करते हुए कई पत्रकारों में कोरोना वायरस के संक्रमण का खौफ़ है तो कई के ऊपर ग्राउंड से पॉजिटिव खबर दिखाने का दबाव। कुछ पत्रकार मजदूरों की दुर्दशा देखकर मानसिक तनाव से जूझ रहे हैं तो कुछ वर्क फ्रॉम होम में अपनी अच्छी परफ़ॉर्मेंस को लेकर चिंतित हैं।
"मजदूरों की ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान दोहरा मानसिक दबाव था। पहला कोरोना का डर दूसरा पलायन कर रहे मजदूरों की तकलीफें। बिना खाये पिए जब ये मजदूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल जाने की बात कह रहे थे तो यह समझ नहीं आ रहा था इन्हें क्या कहकर सांत्वना दूँ?"
दिल्ली में एक मीडिया संस्थान के लिए कोविड-19 की ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे एक पत्रकार ने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया।
"रिपोर्टिंग के दौरान मास्क पहनना फिर भी आसान है पर बार-बार हाथ सैनेटाइज करना मुश्किल है। खासकर तब जब आप एक ऐसे तबके की स्टोरी कवर करने गये हो जो भूखे हों। हम गाड़ी से होते थे पर गर्भवती महिलाओं और बच्चों को जब पैदल चलते देखते तो सिस्टम से नफरत हो जाती।" फील्ड रिपोर्टिंग का एक पत्रकार ने अपना अनुभव साझा किया।
कोविड-19 की रिपोर्टिंग करते हुए कई पत्रकारों में कोरोना वायरस के संक्रमण का खौफ़ है तो कई के ऊपर ग्राउंड से पॉजिटिव खबर दिखाने का दबाव। कुछ पत्रकार मजदूरों की दुर्दशा देखकर मानसिक तनाव से जूझ रहे हैं तो कुछ वर्क फ्रॉम होम में अपनी अच्छी परफ़ॉर्मेंस को लेकर चिंतित हैं। कई पत्रकार एक जगह से दूसरी जगह जाने में पुलिस की मार का शिकार हो रहे हैं तो कई रोजाना की बढ़ती मौतों से दहशत में हैं। पत्रकारों ने यह भी बताया मुश्किल हालातों की रिपोर्टिंग करना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है लेकिन अभी की रिपोर्टिंग ज्यादा जोखिम भरी है।
भारत के 21 दिन के लॉक डाउन का संकट मीडिया संस्थानों पर दिखना शुरू हो गया है। खबर है कि एक बड़े मीडिया संस्थान ने अपने स्टाफ के वेतन में कटौती की है।
देश के प्रधानमन्त्री ने 24 मार्च को रात आठ बजे देश को संबोधित करते हुए कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए उसी रात 12 बजे से 21 दिन के लिए पूरी तरह से भारत लॉक डाउन की घोषणा कर दी। यह घोषणा होते ही रात 12 बजे से यातायात के सभी साधन बाधित हो गये। जगह-जगह चौराहों पर पुलिस की फ़ोर्स तैनात कर दी गयी जिससे लोग एक जगह से दूसरे जगह न जा सकें।
अगली सुबह हालात ऐसे हो गये जो जहाँ है वो वहीं फंसा है। सबसे ज्यादा मुश्किल देश के उन लाखों दिहाड़ी मजदूरों के लिए थी जो अपने परिवार सहित पैदल गाँव जाने के लिए सड़क पर आ गये थे।
इन मजदूरों की तकलीफें और मुश्किलें दिखाने के लिए चुनौतियां उन पत्रकारों के सामने भी कुछ कम नहीं थीं जो लगातार इसे ग्राउंड रिपोर्ट कर रहे थे। एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त बताया, "इन मजदूरों की तकलीफों से हम खुद को जुड़ा हुआ पाते हैं। सोचकर ही दिमाग काम करना बंद कर देता था कि ये कैसे पैदल दिल्ली से बिहार और कानपुर जायेंगे। मजदूरों की ये संख्या गिनी-चुनी नहीं थी जिनकी हम मदद कर पाते। ऐसे हालातों में फील्ड से आकर स्टोरी फ़ाइल करना बहुत मुश्किल होता था। दूसरा आप इतने मजदूरों से मिलकर आ रहे हो आपको नहीं पता इनमें से कौन संक्रमित है कौन नहीं? ऐसे में जब आप परिवार के साथ रह रहे हो तो अपनी कम उनकी ज्यादा होती है कि कहीं मेरी वजह से इन्हें न हो जाये।"
क्या आपके ऊपर संस्थान का फील्ड से आकर तुरंत खबर लिखने का दबाव था? इस सवाल के जबाब में पत्रकार ने कहा, "बिलकुल नहीं था, संस्थान की तरफ से तो हमें फील्ड में जाने से भी मना ही किया गया है। पर हमारे अन्दर जो रिपोर्टर का कीड़ा है वो हमें घर बैठने नहीं देता, और अगर फील्ड पर गये हैं तो बतौर रिपोर्टर समय से खबर फ़ाइल करना हमारी जिम्मेदारी बनती है। इन सब वजहों से हम मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं।"
भारत के 21 दिन लॉक डाउन के बाद जब यातायात की सुविधाएं पूरी तरह से ठप्प कर दीं गईं। जगह-जगह नाकाबंदी लग गयी। ऐसे समय में पत्रकारों का भी घर से निकलना मुश्किल हो रहा है। कई जगह पुलिस या तो इन्हें जाने नहीं दे रही है या फिर इनके साथ मारपीट कर रही है। आजतक चैनल में काम करने वाले दिल्ली के एक पत्रकार नवीन कुमार 23 मार्च को दोपहर डेढ़ बजे जब वसंतकुंज से नोएडा फिल्म सिटी अपने ऑफिस के लिए जा रहे थे तो रास्ते में पुलिस ने उनके साथ मारपीट और अभद्रता की। उन्होंने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर इस मामले की जानकारी दी।
नवीन कुमार ने फेसबुक पर लिखा था, "तीनों पुलिसवालों ने कार में ही पीटना शुरु कर दिया। ग्यारसी लाल यादव ने मेरा मुंह बंद कर दिया था ताकि मैं चिल्ला न सकूं। मैं आतंकित था। मैं दहशत के मारे कांप रहा था। मैंने अपना फोन मांगा। तो उन्होंने मुझे वैन से ही जोर से धक्का दे दिया। मैं सड़क पर गिर पड़ा। एक आदमी ने मेरा फोन लाकर दिया। मैंने तुरंत दफ्तर में फोन करके इसके बारे में बताया।"
"कार में बैठा तो लगा जैसे किसी ने बदन से सारा खून निचोड़ लिया हो। मेरा दिमाग सुन्न था। आंखों के आगे कुछ नजर नहीं आ रहा था। समझ नहीं पा रहा था कि इतने आंसू कहां से आए। यह सबकुछ जब मैं लिख रहा हूं तो मेरे हाथ कांप रहे हैं। मेरा लहू थक्के की तरह जमा हुआ है। मेरी पलकें पहाड़ की तरह भारी हैं और लगता है जैसे अपनी चमड़ी को काटकर धो डालूं नहीं तो ये पिघल जाएगी। अपने आप से घिन्न सी आ रही है," हमले के बाद नवीन कुमार ने अपने फेसबुक अकाउंट पर ऐसी कई बातें लिखीं जो उन्होंने उस दौरान महसूस की थीं।
नवीन कुमार की तरह इस समय देश के कई पत्रकारों को एक जगह से दूसरे जगह जाने में तमाम जोखिम उठाने पड़ रहे हैं। एक पत्रकार ने बताया, "फील्ड में रिपोर्टिंग के लिए निकले थे पुलिस ने हमें चौराहे पर ही रोक लिया। हमारे पास मीडिया कार्ड था पर उसे देखकर भी आगे नहीं जाने दिया गया। इस तरह की मुश्किलें अकसर पत्रकार फील्ड पर झेलता है जिसका संस्थान से कोई लेना देना नहीं।"
वहीं बिहार में स्वतंत्र पत्रकार उमेश राय कई मीडिया संस्थानों के लिए छह सात साल से लिखते हैं, उमेश बताते हैं, "फ्रीलांस पत्रकार होने के नाते केवल एक ही सहूलियत होती है कि आपके ऊपर स्टोरी देने का कोई दबाव नहीं होता है लेकिन इसके अलावा तमाम मुश्किलें हैं। जैसे मेरे पास प्रेस कार्ड नहीं है तो पुलिस मुझे कहीं रिपोर्टिंग के लिए ग्राउंड पर जाने नहीं देती। पुलिस को ये समझा पाना कि फ्रीलांसर भी कोई चीज है बड़ा मुश्किल काम है।"
दुनियाभर में कोरोना वायरस के संक्रमण से दहशत का माहौल है। कई देश इस समय लॉक डाउन में हैं। अबतक इस वायरस से आठ लाख से ज्यादा लोग संक्रमित चुके हैं। कोरोना वायरस से अब तक दुनिया भर में 34 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। भारत में कोरोना वायरस से अब तक 38 लोगों की मौत हो चुकी है। देश में संक्रमित मरीजों की संख्या 1600 से ज्यादा हो गयी है।
दहशत के इस माहौल में कई मीडिया संस्थान जो सरकार के पैसों से चलते हैं उन पर इस समय सरकार का दबाव है कि ज्यादातर पॉजिटिव खबरें चैनलों और अखवारों में दिखाई जाएं। इस समय कई युवा जुझारू पत्रकार इसका शिकार हो रहे हैं।
एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "ग्राउंड पर जब पत्रकार होता है तो उससे सरकार की कोई हकीक़त छिपी नहीं होती है। अब सड़क पर कोई भूख से तड़प रहा है तो हम उसे कैसे दिखा सकते हैं कि सरकार ने खाने के अच्छे इंतजाम किये हैं? संस्थान की तरफ से हमारे ऊपर पूरी तरह से दबाव है कि इस समय ऐसी स्टोरी ही कवर करें जो पॉजिटिव हो। संस्थान का इस तरह से दबाव हर पत्रकार के लिए किसी मानसिक प्रताड़ना से कम नहीं होता, पर क्या करें? चाहकर भी हम सच्चाई नहीं दिखा पा रहे हैं।"
कई मीडिया संस्थानों की वजह से देश के मुश्किल हालात लगातार सामने आ रहे हैं। भारत की स्वास्थ्य सुविधाएं भी किसी से छिपी नहीं है ऐसे में हेल्थ बीट के पत्रकार भी मानसिक तनाव से जूझ रहे हैं।
"हम हेल्थ बीट के पत्रकार हैं। फील्ड पर एक तो जल्दी लोग बात करने को तैयार नहीं क्योंकि उन्हें लगता है कि हम कई लोगों से मिलकर आये होंगे तो उनमें भय है। दूसरा हम भी डरे हुए हैं कि जिनकी हम बात कर रहे हैं कहीं वो संक्रमित तो नहीं। मेरी बीट की कोई खबर छूट न जाए इसकी भी जबाबदेही रहती है। ऐसे में सब मैनेज करना काफी तनावपूर्ण है।"
जो डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म के पत्रकार वर्क फ्रॉम होम (घर से काम) कर रहे हैं उनकी मुश्किलें भी कुछ कम नहीं हैं। एक महिला पत्रकार ने बताया, "लॉक डाउन के बाद से मैं अपने घर आ गयी हूँ। घर में ऑफिस की तरह काम होना मुश्किल है। कभी नेट स्लो है तो कभी बच्चे काम नहीं करने देते। ये चीजें बॉस को समझा पाना मुश्किल है। ऑफिस में आप कम भी काम करो तो कोई कुछ नहीं कहता पर वर्क फ्रॉम होम में ज्यादा काम की उम्मीद होती है जो संभव नहीं है।"
उन्होंने आगे कहा, "एक तो वैसे भी देश के लिए ये तनावपूर्ण समय चल रहा है। आदमी घर में कैद है, लोग भूखमरी के कगार पर पहुंचने वाले हैं। ऐसे में खबर लिखने के लिए दिमाग नहीं काम करता। घर में चार साल का एक बच्चा है उसकी वजह से घर के स्टोर रूम में गर्मी में बैठकर काम करते हैं पर फिर भी बॉस खुश नहीं।"
फील्ड में जाना संस्थान का दबाव नहीं पर बतौर रिपोर्टर मन नहीं मानता
कई सारे पत्रकारों ने बातचीत के दौरान बताया कि इस समय ग्राउंड पर रिपोर्टिंग करने का किसी पत्रकार के ऊपर संस्थान का कोई दबाव नहीं है बल्कि पूरी तरह से मनाही ही है कि आपलोग फील्ड न जाएँ घर से ही खबरें लिखें। लेकिन कई सारे पत्रकार अपनी जिम्मेदारी होने के नाते इसे स्वेच्छा से कवर करने जा रहे हैं।
"संस्थान ने इस समय पूरी तरह से फील्ड पर जाने से मना किया है पर एक पत्रकार होने के नाते खुद का मन नहीं मानता है।" दिल्ली में ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार अमित भारद्वाज ने गाँव कनेक्शन को फोन पर बताया। फील्ड रिपोर्टिंग में दिलचस्पी रखने वाले देश के कई पत्रकारों का अमित की इन बातों से सरोकार होगा। अमित एशियाविल हिन्दी न्यूज डॉट कॉम में काम करते हैं।
झांसी में टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के पत्रकार अरिंदम घोष ने बताया, "तीन दिन पहले जिस अस्पताल में मैं हेल्थ की के स्टोरी कवर करने गया था आज उसी अस्पताल में एक कोरोना पॉजिटिव मरीज पाया गया। ऐसे में थोड़ा डर लगता है पर काम ही ऐसा है जिसे बंद नहीं कर सकते। संस्थान में इस समय ग्राउंड रिपोर्टिंग को लेकर कोई जबाबदेही नहीं है पर जिले में अगर मैं हूँ तो कुछ छूटे न ये पूरा प्रयास रहता है।"
लॉक डाउन में सभी सरकारी दफ्तर, प्राईवेट संस्थाएं, गैर सरकारी संगठन सभी को घर से ही काम करने की इजाजत है। इस समय बाहर वही लोग निकल रहे हैं जिनका निकलना बहुत जरूरी है।
बिहार के कैमूर जिले में प्रभात खबर के लिए हेल्थ और क्राइम बीट कवर करने वाले अमित कुमार सिन्हा बताते हैं, "दिमाग में एक ही बात रहती है कहीं कोई खबर हमसे रह न जाए। ये संस्थान के प्रति नहीं बल्कि हमारी खुद के प्रति जबाबदेही है। ज्यादा नहीं दो तीन घंटे के लिए ही निकलता हूँ पर डर हमेशा लगा रहता है। बहुत सावधानी बरतता हूँ कि मेरी वजह से घरवालों को कुछ न हो जाए।"
वहीं दिल्ली के एक फोटो जर्नलिस्ट कहते हैं, "यही वो समय होता है जब एक पत्रकार की जॉब ज्यादा सम्वेदनशील हो जाती है। एक जिम्मेदार पेशे में होने के नाते हमारी ये नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि दुनिया के सामने हम वो दिखाएं जो हकीकत है। इसलिए अपनी मर्जी से वो तस्वीरें खींचने की कोशिश करता हूँ जो अपने अन्दर हजारों कहानियाँ समेटे हो।"