ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की पहली सिपाही मतलब आशा बहु 

Update: 2018-04-07 16:37 GMT
आशा बहु नयनतारा की कहानी हमें सीख देती है कि अगर आप मेहनती हैं तो कुछ भी करना असम्भव नहीं है 

गाँव में किसी महिला की डिलीवरी करानी हो या फिर किसी बच्चे का टीकाकरण कराना हो, किशोरियों के साथ स्वच्छता की बैठक होनी हो या फिर घर-घर जाकर बच्चे के जन्म से42 दिन तक उसकी देखरेख करनी हो, इन सब कामों में तस्वीर सबसे पहले आशा बहु की उभरकर आती है। वो आशा बहु जिसके कामों की कई बार हम गिनती नहीं करते हैं।

विश्व स्वास्थ्य दिवस पर हमने एक ऐसी आशा बहु से बात की, जिसने यह बताया कि जब वह आशा बहु बनी थी तो लोग उसे अपने घर के अन्दर नहीं जाने देते थे, चारपाई पर बैठने नहीं देते थे, अगर प्यास लगी हो तो पीने के लिए पानी नहीं देते थे।

आशा बहु नयनतारा (50 वर्ष) ने बताया, “हमारी बिरादरी को मैला ढोने के नाम से जाना जाता है, आज से 12 साल पहले जब हम आशा बहु बने तो गांव के लोगों को ये स्वीकार ही नहीं था। हम घर-घर जाकर स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारी देते लोग अपना दरवाजा बंद कर लेते, बच्चों को टीकाकरण कराना होता तो लोग अपने बच्चे हमें छूने न देते क्योंकि वे हमें अछूत मानते थे।”

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नयनतारा ने अपनी लड़ाई खुद लड़ी, आज अपने समाज के लिए हैं मिसाल 

वैसे तो नयनतारा अछूत का दर्द बचपन से झेला था। लेकिन वह समाज के लिए कुछ करना चाहती थीं, अपनी जाति को लेकर जो छुआछूत था उसे खत्म करना चाहती थीं इसलिए आशा बहु बनकर उसने अपनी लड़ाई खुद लड़ी। वर्ष 2006 में आशा बहु बनी नयनतारा ने अपने गाँव के लोगों से दो साल खूब अपमान का घूट पिया, अपनों से और समाज से लड़ाई लड़ी लेकिन हार नहीं मानी।

आज जिस गली से नयनतारा गुजरती हैं हर कोई उनसे बात करता है। नयनतारा ने कहा, “मैंने ठान लिया था कि मैं इतनी मेहनत करूंगी जिससे गाँव के लोग मेरी जाति से नहीं बल्कि मेरे काम से मुझे जानें। दो साल बाद गांव में एक महिला गर्भवती थी उसे बहुत दिक्कत थी जैसे मुझे पता चला मैंने उसे बचा लिया। ऐसे मैंने कई काम किए जिससे लोगोंल कली नजरों में मेरा सम्मान बढ़ता गया।”

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ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की पहली सिपाही को उनकी मेहनत के हिसाब से नहीं मिलता है मेहनताना  

नयनतारा आज भी पांच से छह घंटे ही सो पाती हैं। घर का काम काज निपटाकर गाँव की गलियों में घूमने लगती हैं। टीकाकरण, कुपोषण, स्वच्छता प्रबंधन की किशोरियों संग मीटिंग, कई-कई दिन अस्पताल में गुजारना और दिनभर भूखे-प्यासे चार-पांच किलोमीटर पैदल चलना नयनतारा के लिए सामान्य बात है। ये कानपुर देहात जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर मैथा ब्लाक के बैरी सवाई गांव की आशा बहु हैं।

नयनतारा ने बताया, “जब डिलीवरी के समय अस्पताल जाते हैं तो कई दिन एक साड़ी में रहना पड़ता है, अस्पताल में हमारे रहने और एक गिलास पीने के पानी का कोई इंतजाम नहीं हैं। जबतक डिलीवरी वाली महिला की छुट्टी न हो जाए हम तबतक अस्पताल में रहते हैं, बीच-बीच में घर आकर खाना बनाकर फिर अस्पताल चले जाते हैं।”

वो आगे बताती हैं, “रात में चार घंटे भी सुकून के सोने के लिए मिल जाएं तो बड़ी बात है, एक फोन पर तुरंत डिलीवरी वाली महिला के साथ अस्पताल जाना पड़ता है। तब हम रात-दिन नहीं देखते, हम खुद भी बीमार हों तो भी जाते हैं, क्योंकि गांव में जो गरीब परिवार हैं ये हमें ही सबकुछ मानते हैं।” नयनतारा की तरह हर आशा बहु अपने गांव में ऐसे ही अपनी जिम्मेदारी को निभाती हैं। विश्व स्वास्थ्य दिवस पर देश की हर आशा बहु को उनके सराहनीय कार्यों के लिए उन्हें सलाम।

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