जब सैकड़ों लोगों को एक साथ फांसी दे दी गई थी

Update: 2017-08-11 19:33 GMT
गोरखपुर स्थित पुरानी जेल का अस्तित्व लगभग समाप्त हो चुका है (फोटो साभार : इंटरनेट)

यूपी में ऐसी कई जगहें हैं मेरठ, कानपुर, गोरखपुर, लखनऊ सहित तमाम शहर जहां जंग ए आजादी को हवा भी मिली और इससे जुड़ी अनेक कहानियां भी हैं। आज बात गोरखपुर जेल की। इसे पुरानी जेल के नाम से भी जाना जाता है।

यह किसी जमाने में राजा बसंत सिंह का किला हुआ करता था। अंग्रेजों के आने के बाद इसे जेल में तब्दील कर दिया गया। इसका एक नाम मोती जेल भी है। देश के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारी बाबू बंधू सिंह इसी जेल में बंदी रखे गए थे। 1857 की क्रांति के समय इस जेल में मिर्जा आगा इब्राहीम बेग जेलर के पद पर थे। विद्रोह के समय उन्होंने जेल के सभी कैदियों को आजाद कर दिया था और वह स्वयं भूमिगत हो गए थे। कुछ समय के लिए पं. रामप्रसाद बिस्मिल को भी इस जेल में रहे थे।

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जेल के आंगन में स्थित पाकड़ के पेड़ में अंग्रेजों ने करीब तीन सौ लोगों को फांसी दी थी। दरअसल क्रांतिकारी सरफराज को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने सौदागार मोहल्ले में जमकर कहर ढाया। उनको जानने वाले से लेकर उनका नाम लेने वालों को भी फांसी चढ़ा दिया गया। सरफराज के घर से चंद कदम दूर राजा के किला को अंग्रेजों ने अपनी जेल बना रखी थी। अंग्रेजों को जब फांसी देने के लिए फांसी घर नहीं मिला तो उन्होंने जेल में लगे एक बड़े पाकड़ के पेड़ से सैकड़ों लोगों को फांसी पर लटका दिया था।

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यह जेल करीब कई सौ साल पुरानी है। वास्तव में इस जेल में 1857 की क्रांति के बाद मगध से आए लोगों को बंदी बनाकर रखा गया था। मगध राज्य से जो लोग उत्तर प्रदेश में आए उन्हें मगहिया कहा गया। ये लोग यूपी के विभिन्न शहरों के गांवों में जाकर बस गए। जब इस पुरानी जेल से बंदियों को जिला कारागार भेज गया, तब सरकार की योजना बनी कि मगहिया लोगों को इस जेल में एकत्र किया जाए। इसके बाद गांव-गांव से तलाश करके ब्रिटिश हुकूमत ने इन्हें जटाशंकर पोखरा और वर्तमान मारवाड़ इंटर कॉलेज के समीप इकट्ठा किया। इसके बाद इन्हें जेल में बंदी बनाया गया। मगहिया डोमों को अंग्रेजों ने एक्ट 22 के तहत बंदी बनाया था। यह एक्ट इन पर सन् 1952 तक रहा। लगभग 30 अगस्त 1952 को यह कैदी इस एक्ट से मुक्त हो सके। आज भी इनकी बस्ती यहां पर आबाद है।


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