क्यों हिंसक हो जाते हैं अपने ख़ास, जानिए कारण

Update: 2019-01-09 06:31 GMT
बढ़ रही हैं अपनों के साथ हिंसा की घटनाएं

हाल ही में एक ख़बर वायरल हुई। ये ख़बर थी राजकोट के एक प्रोफेसर की, जिसने अपनी बीमार मां की छत से फेंक कर हत्या कर दी थी। संदीप अपनी पत्नी व बीमार मां की रोज़ के लड़ाई झगड़े से परेशान था इसलिए उन्होंने ये कदम उठाया। एक और वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया में वायरल है। ये वीडियो उत्तर प्रदेश के इटावा का है, जिसमें एक 8-10 साल का बच्चा पुलिस स्टेशन जाकर अपने पापा की शिकायत कर रहा है, वो चाहता है पुलिसवाले उसके पापा को इतना मारें कि उनकी रूह कांप जाए। इटावा के पुलिसकर्मियों ने न सिर्फ उस बच्चे को अच्छे समझाया, बल्कि उसके समेत 50 बच्चों को मेले ले गए, ताकि बच्चे की शिकायत दूर हो।

वैसे तो इन दो घटनाओं का कोई तालमेल नहीं, लेकिन एक अदृश्य संकट समाज और रिश्तों के लिए ज़रूर नज़र आ रहा है। अगर आप टीवी चैनल या फिर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं तो बेटे ने किया मां-बाप का कत्ल, मां ने बच्चों को बेचा, फिर बच्चों की हिंसा वाली ख़बरें देखी होंगी। पुलिस और कानूनी दांव-पेंच से अलग इन सबके मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण होते हैं। हमने इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले व्यक्ति के पीछे क्या मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण होते हैं ये जानने की कोशिश की...

हम में से कई लोग ऐसे होंगे जिनके अंदर कभी न कभी हिंसा का कोई ख्याल आता होगा। कई बार जब फ्रस्टेशन बढ़ जाता है तो मन करता है कि इससे अच्छा तो मर ही जाएं, कभी जब किसी पर बहुत गुस्सा आता है तो दिल करता है इसे जमकर सुना दो, या दो -चार थप्पड़ मार दो लेकिन हम खुद को रोक लेते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका गुस्सा या फ्रस्टेशन उनके दिमाग पर हावी हो जाता है और वे खुद को नहीं रोक पाते।

मनोवैज्ञानिक कारण

लखनऊ के मनोचिकित्सक डॉ. एसएस लाल श्रीवास्तव बताते हैं, ''राजकोट में बेटे की अपनी मां को छत से नीचे फेंकने जो घटना सामने आई है उसके पीछे उस लड़के का फ्रस्टेशन हो सकता है। ये फ्रस्टेशन इतना बढ़ जाता है कि उसे अच्छे - बुरे का ख्याल नहीं रहता। ये एक तरीके की नकारात्मक भावना है कि अब मेरी मां और मेरी बीवी का झगड़ा सुलझ नहीं पाएगा। 'ऐसी स्थिति में डिप्रेशन धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। ऐसे व्यक्ति में डिप्रेशन काफी समय से होता है, जब उसे सोशल सपोर्ट नहीं मिलता, वो अकेला रहता है और ये समस्या बढ़ती जाती है, इसके बाद उसके सोचने समझने की शक्ति ख़त्म हो जाती है और वो इस तरह की घटना को अंजाम दे देता है।''

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डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि इस तरह के लोग समस्या को सुलझाने वाली शक्ति को डेवलेप नहीं कर पाते, उन्हें ये लगने लगता है कि अब इस समस्या का कोई इलाज़ नहीं है, इससे छुटकारा पाने का बस एक तरीका है कि जिस व्यक्ति की वजह से ये समस्या उस व्यक्ति को ही ख़त्म कर दो। वे  इसके अलावा हिंसा की प्रवृत्ति का कारण व्यक्ति में साइकोसिस का एलिमेंट हो सकता है, यानि वो व्यक्ति सिज़ोफ्रेनिया का शिकार हो सकता है।

डॉ. श्रीवास्तव के मुताबिक, ऐसे व्यक्तियों में कुछ ऐसे लक्षण होते हैं जो पहले से ही दिखने लगते हैं। ऐसे व्यक्तियों में चिड़चिड़ाहट का स्तर बहुत ज़्यादा होता है, वे ज़रा - ज़रा सी बात पर गुस्सा करने लगते हैं, किसी से बात नहीं करना चाहते, अकेले रहने के बहाने ढूंढते हैं, ज़्यादातर अंधेरे में रहना चाहते हैं। जब व्यक्ति सिज़ोफ्रेनिया का शिकार होता है और इस अवस्था में किसी व्यक्ति की हत्या करता है तो उसके ऊपर इस घटना का कोई असर नहीं होता, उसे न ग्लानि होती है और न ही दुख। जिसकाम को वो अंजाम देता है, उसमें उसे खुशी मिलती है लेकिन अगर व्यक्ति सिर्फ डिप्रेशन और फ्रस्टेशन की वजह उसने किसी की हत्या की है या किसी को नुकसान पहुंचाया तो उसके अंदर ग्लानि होगी। भले ही वो किसी से अपने अपराध को बांट न सके, उसे छुपाने की कोशिश करे लेकिन अंदर ही अंदर उसे पता होगा कि उसने ग़लत किया है और इसकी सज़ा भी उसे मिल सकती है।

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डॉ. श्रीवास्तव बताते हैं कि बच्चों में जो आजकल हिंसा की भावना जन्म ले रही है उसके लिए बहुत हद तक उनका परिवार ही ज़िम्मेदार होता है। वे अपने घर में या आसपास ऐसी हिंसात्मक गतिविधियों को देखते आ रहे होते हैं जिसका उनके दिमाग पर गहरा प्रभाव पड़ता है। धीरे-धीरे उनमें भी हिंसात्मक प्रवृत्ति जन्म लेने लगती है और वे किसी घटना को अंजाम दे देते हैं।

सामाजिक कारण

आगरा यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री डॉ. मोहम्मद अरशद बताते हैं, हमारे समाज की कुछ विशेषताएं रही हैं और उनमें से एक संयुक्त परिवार भी है। पहले परिवार के लोग अपने बुजुर्गों की अच्छे से देखभाल करते थे लेकिन अब ये सब बदल रहा है। राजकोट में जो घटना हुई उसके पीछे का सबसे बड़ा कारण एकल परिवार और स्पेस की चाहत है। लोग अब अकेले रहना पसंद करते हैं, उन्हें किसी की दख़लअंदाज़ी या टोकना पसंद नहीं। अकेले रहने की चाहत अब लोगों में इतना बढ़ने लगा है कि वे अब बुजुर्गों को बोझ मानने लगे हैं।

डॉ. अरशद बताते हैं कि पश्चिमी देशों में पहले से ही संयुक्त परिवार का चलन नहीं था। इसलिए वहां बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम बनाए गए हैं और वहां के बुजुर्ग भी इस बाद में कंफर्टेबल होते हैं कि उन्हें अलग ही रहना है लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं है। हमने वृद्धाश्रम तो बना लिए हैं लेकिन हमारे बुजुर्ग वृद्धाश्रम में नहीं रहना चाहते, ऐसी स्थिति में वे भावनात्मक रूप से कमज़ोर हो जाते हैं। समाज भी ऐसे लोगों की निंदा करता है जो अपने मां – बाप को वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में जब परिवार की कलह बहुत ज्यादा बढ़ जाती है और घर के पुरुष उस समस्या से बाहर नहीं निकल पाते तो फ्रस्टेशन में वे हिंसक हो जाते हैं। डॉ. अरशद बताते हैं कि कुछ लोग पारिवारिक और समाजिक दबाव को एक साथ सहन नहीं कर पाते और सोचने समझने की शक्ति छोड़ देते हैँ।

Full View

डॉ. अरशद बताते हैं कि जो बच्चे आजकल हिंसक हो रहे हैं उसके पीछे का कारण भी एकल परिवार और वीडियो गेम्स से ज्यादा जुड़ना है। पहले बच्चे संयुक्त परिवार में रहते थे, उनके पास ज्यादा लोग होते थे बात करने के लिए किसी के साथ खेलने के लिए, वे बाहर जाकर भी खेल लेते थे लेकिन जैसे – जैसे एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं, रहने की जगह सीमित होती जा रही है। अगर मां- बाप में लड़ाई होती है तो बच्चे उसे देखते रहते हैं जिससे उनके दिमाग पर नकारात्मक प्रभाव होता है। बच्चों की सीखने की क्षमता बहुत ज्यादा होती है और एनर्जी भी। जब उनकी एनर्जी खेलने – कूदने जैसी बाहरी गतिविधियों में नहीं खपती तो धीरे – धीरे उनमें आक्रामकता बढ़ने लगती है और वे हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं।

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