बचपन के जुनून ने घर में बनवा दी 'वैली ऑफ फ्लॉवर्स', अब करते हैं करोड़ों के गार्डनिंग प्रोजेक्ट

Update: 2020-04-13 06:01 GMT

जोधपुर (राजस्थान)। बागवानी यानि पेड़-पौधों का साथ आपको कितनी खुशियां और प्रसिद्धि दिला सकता है, जोधपुर के रविंद्र काबरा से पूछिए। 65 वर्ष के काबरा अपनी कई कमाई कराती फैक्ट्रियों को छोड़कर बागवानी का काम करते हैं और भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में नाम कमा चुके हैं। उनके घर को वैली ऑफ फ्लॉवर्स कहा जाता है।

रंगीले राजस्थान के जोधपुर में वैसे तो पर्टयकों के लिए तमाज चीजें हैं लेकिन वैली ऑफ प्लॉवर्स की बात ही कुछ निराली है। 600 से ज्यादा फूलों और पेड़ों वाले इस बगीचे को अकेले रविंद्र काबरा संवारते हैं। इस बगीचे के पेड़-पौधों की देखभाल उनकी मजबूरी नहीं वह शौक और जुनून है जो उन्हें बचपन में लगा था। रविंद्र की माने तो बचपन में दादा को घर में पेड़-पौधों लगाते, उनकी सेवा करते देख फूल-पत्तियों से लगाव हुआ, और जब जिंदगी में उनके पास सबकुछ था, वो दुनियादारी को दरकिनार कर बागवानी करने लगे।

वीडियो यहां देखिए-  Full View

रविंद्र काबरा बताते हैं, बाबा के साथ अक्सर मैं बगीचों में जाया करता था, वहीं से धुन लग गई। आज देश के कई बड़े गार्डिनिंग प्रोजेक्ट मेरे पास हैं। ‛रिलायंस इंडस्ट्रीज' के लिए किया गया प्रोजेक्ट काफी बड़ा था। मेरे शौक और बचपन के प्यार ने आज मुझे भारत के साथ ही कई दूसरे देशों में भी प्यार दिलाया है।" 

अपने दादा गोकुलचंद्र के नाम पर गोकुल- द वैली ऑफ फ्लॉवर्स बनाने वाले रविंद्र के इस उपवन में कई देसी दुर्लभ फूलों के अलावा विदेशी पेड़-पौधे भी हैं। ट्यूलिप हॉलेंड में होता है, लेकिन यह रविंद्र के यहां भी मिलेगा। हाईड्रेंजिया और अजेलिया प्रजातियां सिर्फ हिल स्टेशन और ठंडे प्रदेशों में होती हैं वो भी रविंद्र के फूलों के बाग की शोभा बढ़ाती हैं। रविंद्र की मानें तो 25 तरह के कमल, अडेनियम की 250 प्रजातियां, गुलाब की 250 प्रजातियां भी हैं। बोगनवेलिया की 25 क़िस्में उनकी फ्लॉवर वैली में मिलती हैं। इसीलिए विदेशीय पर्यटकों का भी यहां तांता लगा रहता है।


रविंद्र खुद भी अक्सर फूलों की तरह तरोताजा नजर आते हैं। लेकिन ये उनका शुरुआती पेशा नहीं था। स्नातक के बाद वो अहमदाबाद चले गए थे और वहां टेरेस गार्डन बनाकर अपना मन बहलाते थे। कुछ वक्त बाद वापस जोधपुर लौटे तो 1979 में शादी हो और बिजनेस करना शुरु किया। 1980 स्टेनलेस स्टील की चादर का कच्चा माल बनने की फैक्ट्री लगाई तो 1984 में ब्रेड का पहला ऑटोमेटिक प्लांट लगाया, जिसमें शुरू से अंत तक के प्रोसेस में कहीं भी हाथ नहीं लगता था। 1992 में दोनों फैक्ट्रियां बन्द करते हुए इलेक्ट्रॉनिक शोरूम खोला, जिसे 11 साल तक चलाया। इन सभी कारोबार में रविंद्र ने मुनाफा कमाया लेकिन उनका मन नहीं लगा।

रविंद्र बताते हैं, जब मेरी फैक्ट्री चलती थी तब भी वहां बड़े-बड़े बगीचे बना रखे थे, क्योंकि मुझे प्रकृति से लगाव था। बाद में 2002 में पूरी तरह बागवान बन गया।

रविंद्र के मुताबिक उनके लिए सबसे बड़ा पल उस वक्त आया जब 2003 में रिलायंस इंडस्ट्रीज के लिए प्रोजेक्ट किए। इसके बाद दिल्ली में 400 एकड़ के अंसल ग्रुप के चार प्रोजेक्ट, पार्श्वनाथ ग्रुप, ताज ग्रुप, मिलिट्री, जोधपुर विकास प्राधिकरण सहित कई शैक्षणिक संस्थानों के लिए भी बगीचे विकसित किए। उन्होंने अजमेर, कोटा, दिल्ली, अमृतसर, मुंबई सहित कई जगहों पर गार्डन तैयार किए हैं।


अपनी सफलता का श्रेय वो पेड़-पौधे से अपने रिश्ते आत्मीय रिश्ते को देते हैं। काबरा बताते हैं, पेड़-पौधों को अपनी संतान-सा मानता हूं और ये कहीं न कहीं मुझे अपना बाग़बान मानते हैं। अब आपस में हम में ऐसा समन्वय हो गया है कि इनके बगैर मैं नहीं रह सकता, मेरे बिन यह नहीं रह सकते। किन्हीं कारणों के चलते जोधपुर से बाहर जाना पड़ जाए तो मैं इन पेड़-पौधों से 3 बार आज्ञा लेता हूं और वापसी पर माफ़ी भी मांगता हूं। यह नाराज़ भी होते हैं और क्षमा भी करते हैं।"

भजन और शास्त्रीय संगीत सुनाते हैं

अपने गार्डन में मौजूद पेड़-पौधों, लताओं, फूलों को अपना सब कुछ मानने वाले रविंद्र इस बगिया में रोज़ सुबह भजन और श्लोक बजाते हैं। शाम को इन्हीं पौधों को भारतीय शास्त्रीय संगीत सुनाते हैं।

ऐसा प्रयोग करने पर क्या बदलाव आया? यह पूछे जाने पर वे बताते हैं, पहले इनकी ग्रोथ रेट 90 प्रतिशत थी तो अब बढ़कर 110 प्रतिशत हो गई है। मुझसे मिलने आने वाले लोग पूछते हैं, हम भी गमलों में खाद पानी खुरपी देते हैं, समय-समय पर ध्यान रखते हैं। पर आपके पौधों और हमारे पौधों की वृद्धि में दिन रात का अंतर क्यों है? इसका सीधा सा जवाब है, यह परिणाम मेरे पारिवारिक जुड़ाव का है, मैंने इनको अपना माना है।


पेड़ पौधों को भी तारीफ़ प्रिय होती है

वो बताते हैं, अमूमन आपने देखा होगा कि हम दो बच्चों में से किसी एक को अधिक प्यार करते हैं तो दूसरा नाराज़ हो जाता है। यह भी ऐसा ही करते हैं, ईर्ष्या इनमें भी होती है, तारीफ़ इनको भी प्रिय होती है। पूरे देश सहित लोग विदेशों से भी मेरे बगीचे को निहारने आते हैं, जब वे इनकी तारीफ करते हैं तो अगले दिन मुझे ऐसा लगता है कि जैसे आज इनकी मुस्कुराहट अलग ही है। यह परिवर्तन आप तब ही महसूस कर पाते हैं, जब इनके साथ रोज़ 4-5 घंटे व्यतीत करते हैं।

यह भी देखें: घर में किचन गार्डन बनाना चाहते हैं तो अपनाएं ये टिप्स 

एक बाग़बान होने के नाते वो लोगों को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रेरित भी करते हैं। रविंद्र कहते हैं, " मैं सबसे कहता हूं कि भले आपका घर छोटा हो, आप फ्लैट में रहते हों, लेकिन 10-15 गमले अवश्य रखिए। आपाधापी की ज़िंदगी के बीच एक नियम बनाइये कि हर शनिवार-रविवार को आप खुद उनको पानी पिलाएंगे और अपनी पत्नी के साथ बैठकर वहीं चाय पिएंगे। उस जगह गुजारे यह 20 मिनट एक महीने में आपके रिश्तों को एक नया मोड़ दे देंगे। जिसकी कल्पना भी आपने नहीं की होगी। आप समझ जाएंगे कि पर्यावरण क्या कर सकता है?"


6000 गमलों का मैं इकलौता माली

रविंद्र के उपवन में 6000 गमले हैं और वो बिना किसी हेल्पर के इनका रोज़ ध्यान रखते हैं। रविंद्र कहते हैं, "इनके साथ हुए जुड़ाव की वजह से मुझे कभी नहीं लगा कि मुझे किसी और की जरूरत है। आज मैं 65 साल हो गया हूं और रोज़ाना 100 गमले इधर से उधर करता हूं पर रत्ती-भर थकान महसूस नहीं होती।" वो आगे कहते हैं, "मेरी मां कहती हैं कि अब मेरी उम्र हो रही है, इस तरह के काम न किया करूं। मेरा जवाब होता है कि इस काम की वजह से ही मैं जवान हूं। मैं खुशनसीब हूं कि ईश्वर ने मुझे इस तरह का कार्य करने का मौका दिया।'

एक लाख से एक करोड़ तक के गार्डन प्रोजेक्ट

रविंद्र एक लाख रुपए से लेकर एक करोड़ रुपए तक के गार्डन डेवलप करने का प्रोजेक्ट करते हैं। रविंद्र की माने तो उनका सबसे बड़ा प्रोजेक्ट 2 करोड़ रुपए का था। "भूमि पूजन के बाद से लेकर गार्डन के लिए ज़मीन लेवल करने से लेकर गार्डन लगाने,प्लांट्स के बारे में सलाह देने तक के सारे काम खुद करता हूं। मेरा मकसद बिजनेस नहीं है। मेरी कोशिश रहती है कि किसी भी प्रोजेक्ट में एक भी पौधा लग रहा है तो वो मेरे खुद के बगीचे में लग रहा है, यही सोचता हूं। यह भी सोच रहती है कि यह मरना नहीं चाहिए।" 

(लेखक कृषि पत्रकार और पर्यावरण प्रेमी हैं।)

Similar News