पश्चिमी राजस्थान का रेतीला विस्तार है थार। थार की एक स्वर्णिम कल्पना है जैसलमेर। जैसलमेर का समुद्र सा फैला यह रेतीला विस्तार ही इसे दूसरे पर्यटन स्थलों से अलग करता है। जैसलमेर एक संक्षिप्त सा शहर है, जिसे 1156 ईस्वी में राव जैसल ने बसाया था। यहां का मुख्य आकर्षण है सोनार किला जो कि शहर के हर कोण से दिखाई देता है। रेत में आ गिरे किसी स्वर्ण मुकुट सा लगता है यह सोनार किला। यह पीले सेन्ड स्टोन (बलुआ पत्थर) से बना है। चार विशाल दरवाजों से होकर किले के अन्दर प्रवेश किया जाता है जिन्हें पोल कहते हैं।
यूं तो किला बेहद उपेक्षित और जीर्ण-शीर्ण है, मगर बीते दिनों की खूबसूरती की गवाह हैं इसके भीतर के महल और इमारतें। पीले सेन्ड स्टोन पर बारीक नक्काशियां यहां की इमारतों की विशेषता है, पत्थरों में नाना प्रकार के बेल-बूटे, जालियां, कंगूरेदार खिडक़ियां-गवाक्ष। किले के अन्दर कुछ खूबसूरत जैन मंदिर भी हैं। ये मंदिर 12-15वीं शताब्दी के बीच निर्मित हैं। इन मंदिरों में उकेरी मूर्तियां पौराणिक गाथाएं कहती हैं। कुछ खण्डहर हैं जो अपनी बिखरती भव्यता के साथ आकर्षित करते हैं। काश समय रहते इनका जीर्णोध्दार हो गया होता तो कुछ और महल इस किले की शोभा बढाते। किले के अन्दर ही एक हिस्सा रिहायशी भी है, जहां कई परिवार रहते हैं। कुछ लोगों ने अपने पुराने पारम्परिक घरों को थोडे फ़ेर-बदल के साथ गेस्टहाउस में बदल लिया है। यहां रहकर पर्यटक किले के भव्य सौन्दर्य को करीब से जान सकता है।
किले के परकोटे से बाहर चारों ओर शहर बसा है, पतली-संकरी गलियों में, यही पतली-संकरी गलियां हमें तीन-चार बेहद सुंदर स्थापत्य कला में बेजोड, नक्काशियों से सुसज्जित हवेलियों तक ले जाती हैं।
इस रेतीले शहर में एक झील भी है गडीसर लेक । किले से बाहर अमरसागर गेट के पास एक सुंदर महल स्थित है बादल विलास मंदिर , यह स्थापत्य कला का अनूठा उपहार है।
जैसलमेर चाहे एक छोटा शहर सही लेकिन अपने आस-पास पर्यटकों की रूचि के कई सुंदर स्थानों को सहेजे है।
लोद्रवा: जैसलमेर की पुरानी राजधानी और एक महत्वपूर्ण जैन धार्मिक स्थल। इन जैन मंदिरों के समूह का एक तोरणद्वार है जो मूर्तिकला तथा शिल्प में अनोखा है। यहां कल्पतरू का अष्टधातु का बना एक प्रतिरूप है। लोद्रवा जैसलमेर से 16 किलोमीटर दूर है।
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वुड फॉसिल पार्क, अकाल : जैसलमेर से 17 किलोमीटर दूर अकाल में स्थित वुड फॉसिल पार्क में अठारह करोड वर्ष पुराने जीवाश्म देखे जा सकते हैं जो कि इस क्षेत्र के भूगर्भीय अतीत के गवाह हैं।
सम के रेतीले टीले (सेन्ड डयून्स): हवा की दिशा के साथ अपनी जगह और दिशा बदलते ये रेतीले टीले (सेन्ड डयून्स) पूरी दुनिया के पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र हैं। यहां का सूर्यास्त बेहद मनमोहक और एकदम अलग किस्म का होता है। कहते हैं ना कि सूर्य से बडा कोई चित्रकार नहीं, तो यहां सम में सूर्य ने अलग ही कोई तूलिका और अलग ही कोई कैनवास लिया है। मीलों तक फैले इस रेतीले विस्तार को सजीले ऊंटों पर बैठ कर नापा जा सकता है। चांदनी रात में सम में ही ढाणियों (छोटी छोटी झोंपडियों का समूह) में ठहर कर चांदनी रात, कालबेलिया नृत्य, राजस्थानी लोक गीतों तथा राजस्थानी भोजन दाल-बाटी-चूरमा का आनंद लिया जा सकता है। सम की ढाणी नामक यह स्थान जैसलमेर से 42 किलोमीटर दूर है।
कुलधरा: कुलधरा जैसलमेर से तकरीबन 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है। कुलधरा एक ऐसा गांव है, जिसे रातों-रात इसके निवासी छोड़ गए थे। चूल्हे जलते हुए...चक्कियों में अधपिसा अनाज, रोटियां तवे पर छोड़, दरवाजे खुले छोड़। तब से यह खंडहर पड़ा रहा, लोग इसे भुतहा कहते रहे मगर पुरातत्व विभाग की नजर जब पड़ी तो इसका जीर्णोद्धार हुआ। कहते हैं कि पालीवाल समुदाय के इस इलाक़े में चौरासी गांव थे और ये उनमें से एक था। समृद्ध पालीवाल ब्राम्हणों ने कुलधार गांव को बसाया था।
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पालीवालों का नाम दरअसल इसलिए पड़ा क्योंहकि वो राजस्थापन के पाली इलाक़े के रहने वाले थे। पालीवाल समुदाय के लोग ब्राम्हाण होते हुए भी बहुत ही परिश्रमी थे, अपनी बुद्धिमत्ता , अपने कौशल के चलते इन्होंने समृद्धि हासिल की थी। कुलधरा की वास्तुुकला बहुत अनूठी है यहां दरवाज़ों पर ताला नहीं लगाया जाता था, गांव के तमाम घर गोखड़ों और छ्त के छ्ज्जों से आपस में जुड़े थे इसलिए एक सिरे वाले घर से दूसरे सिरे तक अपनी बात आसानी से पहुंचाई जा सकती थी। घरों के भीतर पानी के कुंड, ताक और सीढि़यां कमाल के हैं। कहते हैं कि इस कोण में घर बनाए गये थे कि हवाएं सीधे घर के भीतर होकर गुज़रती थीं। कुलधरा के ये घर रेगिस्ता न में भी ठण्डे रहते हैं।
कहते हैं कि जैसलमेर की दीवान सालिम सिंह को कुलधरा की समृद्धि दिख रही थी। उसने करवसूली के नाम पर लूट शुरु कर दी, पालीवालों का तर्क था कि चूंकि वे ब्राम्हंण हैं इसलिए वो ये कर नहीं देंगे। कुलधरा के नागरिकों पर भारी अत्याचार किए गए। उनकी स्त्रियों के साथ मनमानी की बात आई तो स्वा।भिमानी पालीवालों ने अपनी इस कुलधरा से जाने का फैसला कर लिया। रातों-रात वो यहां से हमेशा हमेशा के लिए चले गए। सत्य क्या रहा होगा ये जानना मुश्किल है, कैसे पूरा का पूरा गांव एक ही रात में गायब हो गया था। जलते चूल्हे, चलती चक्कियां छोड़, दरवाजे खुले छोड़, अनाज भरे कुठार यूं के यूं छोड़ गांव का गांव गायब हो गया। कहां? क्यों? पता नहीं लेकिन कुलधरा के ये वीरान खंडहर आकर्षित भी करते हैं और रहस्य भी जगाते हैं। इन घरों, चबूतरों, अटारियों को देखकर ऐसा लगता है कि जीवन अब भी यहां है। चूल्हे की आंच महसूस होती है, घूंघट की ओट में पनिहारिनों की कतार ... खेत से युवा किसान कल्पना में जागने लगते हैं, ऐसा लगता ये अभी सब लौट आएंगे., पर सच ये है कि सदियों से पालीवालों का ये गांव पूरी तरह से वीरान है ।
डेजर्ट नेशनल पार्क: कैमल सफारी के लिये यह एक उत्तम जगह है। इस पार्क का 20 प्रतिशत हिस्सा रेतीला है। उबड-ख़ाबड ज़मीन के परिदृश्य में अपनी जगह बदलते रेतीले टीलों और छोटी-छोटी झाडियों से भरी पहाडियों वाला यह डेर्जट नेशनल पार्क रेगिस्तानी पारिस्थितकीय तन्त्र (इको सिस्टम) के मनमोहक रूप को दर्शाता है।
इन सबके बीच खारे पानी की छोटी-छोटी झीलें चिंकारा और ब्लैक बक के रहने के लिए आरामदेह पारिस्थिति बनाती हैं। यहां डेर्जट फॉक्स, बंगाल फॉक्स, भेडिये (वुल्फ) और डेर्जट कैट भी देखने को मिल जाते हैं।
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मरुस्थलीय वन्य जीवन को निकट से जानने के लिए यह एक उपयुक्त स्थान है. इस नेशनल पार्क में विविध प्रकार के पक्षी अपनी अलग ही छटा बिखेरते हुए सुबह के समय दिख जाते हैं, सैंड ग्राउज़ (बटेर), तीतर, लार्क, श्राईक, और बी ईटर्स। सर्दियां ही जैसलमेर आने का सही समय है, तो सर्दियों में यहां 'कुरजां' डेरा डालते हैं, सुरमई पंखों और चांदी जैसी कलंगी और पूंछ वाले 'डेमोईज़ल क्रेन' यहां तो आते ही हैं मगर जैसलमेर के पास, 'खींचन' में हजारों की संख्या में आते हैं। यहां के लोकगीतों में कुरजां को बहुत महत्वपूर्ण स्थान मिला है, एक संदेशवाहक की भूमिका में। सबसे महत्वपूर्ण पक्षी जो अपनी भव्यता में इस नेशनल पार्क का स्थायी निवासी तो है ही, 'गोडावण' ( ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) जो राज्य पक्षी भी है राजस्थान का। यह नेशनल पार्क सरिसृपों से भरा हुआ है, स्पाईनी टेल्ड लिजर्ड, मॉनिटर लिजर्ड, सॉ स्केल्ड वाईपर, रसल वाईपर, करैत आदि सरिसृप बहुतायत में मिलते हैं।
मेले और उत्सव: मेले और उत्सव राजस्थान की समृद्ध संस्कृति के जीवंत उदाहरण हैं। यहां जीवतंता जाग उठती है जब सर्दियां त्यौहार और मेले साथ लाती हैं। प्रमुख आकर्षण का केन्द्र है यहां का मरू-मेला (डेर्जट फेस्टिवल), इस मेले के लिए विश्व भर के पर्यटक इस स्वर्ण-नगरी में चले आते हैं। उस समय यहां के गेस्टहाउस और होटल ही नहीं लोगों के घर भी जाने-अनजाने अतिथियों से भर जाते हैं तब 'अतिथी देवो भव' की भारतीय परंपरा इस गीत में साकार हो उठती है- 'पधारो म्हारे देस'। तब जैसलमेर थिरक उठता है इन नृत्यों के साथ- घूमर, गणगौर, गैर, धाप, मोरिया, चारी और तेराताल। इन नृत्यों को ताल देते हैं यहां के लोक वाद्य कामयाचा, सारंगी, अलगोजा, मटका, जलतरंग, नाद, खडताल और सतारा। लंगा और मंगनियार गवैयों की टोली लोकगीतों का मनमोहक समां बांध देती है।
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यह मरू उत्सव फरवरी माह में पूर्णिमा के दो दिन पहले शुरू होता है। इस दौरान यहाँ कई प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं जैसे ऊंट रेस, पगडी बांधो, मरूसुंदरी, नृत्य, ऊंट पोलो आदि।
इस दौरान यहां की कारीगरी के उत्कृष्ट नमूनों का प्रदर्शन तथा बिक्री भी की जाती है। जैसे खेजडे क़ी लकडी क़ा नक्काशीदार फर्नीचर, ऊंट की काठी के स्टूल, कठपुतलियां आदि। इस मेले का चरमबिन्दु होता है सम सेन्ड ड्यून्स जाकर वहां फिर पूरे चाँद की रात में नृत्य-संगीत की मनोरम प्रस्तुति। जैसलमेर से लौटकर लगता है आप किसी स्वर्णिम-स्वप्निल फंतासी से बस अभी-अभी उबरे हैं।
(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। गांव कनेक्शन में उनका यह कॉलम अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की उनकी कोशिश है। अपने इस कॉलम में वह गांवों की बातें, उत्सवधर्मिता, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करेंगी।)