Video : राजधानी लखनऊ का काला सच , डिप्टी CM के घर के पास ढोया जाता है सिर पर मैला

Update: 2017-07-19 21:06 GMT
मैला ढोने वाला व्यक्ति।

“हमारे बच्चे ये गंदा काम करने से मना करते हैं, हमें भी अब मन नहीं यह काम करने का। मज़बूरी में गंदा काम करने को मजबूर हैं।’

लखनऊ। "हमारे बच्चे ये गंदा काम करने से मना करते हैं, हमें भी अब मन नहीं यह काम करने का। मन ऊबने के बाद यह काम छोड़ देते हैं तो यहां के लोग घर के सामने आकर हंगामा करने लगते हैं। मज़बूरी में गंदा काम करने को मजबूर हैं।’ यह कहना है 40 वर्षीय अशोक कुमार का, अशोक राजधानी लखनऊ में मैला ढोने का काम करते हैं।

राजधानी के ऐशबाग में अंजुमन सिनेमा के पीछे सुपर कॉलोनी में रहने वाले अशोक कुमार और माया की हर सुबह मैला उठाने से होती है। अशोक के पिता भी यही काम किया करते थे। पिता की मौत के बाद अशोक ने मैला उठाने का काम शुरू किया। अब वो यह काम करना नहीं चाहते, लेकिन मज़बूरी में करना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के घर से महज़ सौ मीटर की दूरी पर सौ से ज्यादा परिवार के लोग कच्चे शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं और इन्हीं शौचालयों से मैला उठाने का काम अशोक कुमार करते हैं।

राजधानी लखनऊ के ऐशबाग के बिलोचपुरा में सौ से ज्यादा परिवार अभी भी कच्चे शौचालय का प्रयोग करते हैं। ये इलाका उत्तर प्रदेश के विधानभवन जहां कई कानून बनते हैं और सरकार के सचिवालय, जहां उन कानूनों को अमली जामान पहनाने का काम होता है, उससे चंद मिनट की दूरी पर है।

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बिलोचपुरा की रहने वाली शाहीन बानो (35 वर्ष) बताती हैं, "हम लोग शहर के बीच में रहते हैं। खुले में शौच जा नहीं सकते है। मज़बूरी में हमने अपने घरों में ही कच्चा शौचालय बनवा लिया है। इसको साफ करने मेहतर (मैला ढोने वाला) आता है। मुझे उसका नाम नहीं पता, लेकिन महीने के एक शौचालय के सफाई के बदले हम उसे सौ रुपए देते हैं।"

मैं बाकी इलाकों में कूड़ा उठाने के बाद कच्चे शौचालयों से मल उठाने जाता हूं। आसपास के लोग और रिश्तेदार सामने तो कुछ नहीं कहते, लेकिन पीठ पीछे मजाक उड़ाते ही है। मैं यह काम छोड़ना चाहता हूं और बीच-बीच में छोड़ भी देता हूं, लेकिन..”
अशोक कुमार, सफाई कर्मचारी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

स्वच्छ भारत अभियान शुरु होने के 24 साल पहले ही इस प्रथा के खिलाफ बना था कानून

पूरे भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में 2014 से ही स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है। गांवों को ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त किया जा रहा है। ये वही देश है जहां केंद्रीय कृषि मंत्री की तस्वीर इसलिए वायरल हो जाती है, क्योंकि शहर से दूर कहीं सड़क किनारे वो लघुशंका कर रहे होते हैं। लेकिन उसी देश के सबसे बड़े राज्य की राजधानी में हाथों से मल उठाया जाता है, उसे दूर कहीं फेंका जाता है। जबकि स्वच्छ भारत अभियान शुरु होने के 24 साल पहले ही भारत में इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था।

भारत सरकार ने 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय प्रतिषेध अधिनियम लागू किया था। इस अधिनियम के अनुसार किसी से शौच उठवाने पर एक वर्ष की सज़ा और दो हजार रुपए तक का जुर्माना देना होगा। नियम होने के बावजूद भी देश के कई हिस्सों में लोग मैला उठाने का काम कर रहे थे। फिर सरकार ने 2013 में मैला उठाने को लेकर एक सख्त केन्द्रीय कानून बनाया जो सभी राज्यों में लागू हुआ। इसके तहत मैला ढोने की परिभाषा भी बदल दी गई। अब किसी भी तरीके का मल उठाना इस कानून के अंदर रखा गया।

लोग शहर के बीच में रहते हैं। खुले में शौच जा नहीं सकते है। मज़बूरी में हमने अपने घरों में ही कच्चा शौचालय बनवा लिया है। इसको साफ करने मेहतर (मैला ढोने वाला) आता है। मुझे उसका नाम नहीं पता, लेकिन महीने के एक शौचालय के सफाई के बदले हम उसे सौ रुपए देते हैं।
शाहीन बानो, निवासी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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आज भी 1 लाख 60 हजार लोग मैला ढोने का काम करते हैं- भाषा सिंह

मैला ढोने के विषय पर ‘अदृश्य भारत’ नाम से किताब लिखने वाली वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह बताती हैं, "देश में शुष्क शौचालयों की कमी तो आई है लेकिन 2017 में भी देश भर में एक लाख 60 हज़ार लोग मैला उठाने का काम करते हैं। इसमें से ज्यादातर महिलाएं ही हैं। यूपी में सबसे ज्यादा महिलाएं मैला उठाने का काम करती हैं।”

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा इसी वर्ष किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश भर में 12,522 लोगों की पहचान की, जो अभी भी मैला उठाने में लगे हैं। इनमें 80 प्रतिशत महिलाएं हैं और मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की हैं। यह एकमात्र राज्य है जिसमें भारी संख्या (9,882) महिलाएं मैला ढोने में लगी हैं।

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लोग मजाक उड़ाते हैं मैं ये काम छोड़ना चाहता हूं, लेकिन …

अशोक कुमार नगर निगम के सफाई कर्मचारी हैं। सुबह-सुबह मैं निगम के तहत मिले क्षेत्रों में कूड़ा उठाने का काम करते हैं। अशोक बताते हैं, "दस बजे तक कूड़ा साफ़ करने के बाद बिलोचपुरा में कच्चे शौचालयों की सफाई करने जाता हूं। हमें निगम की तरफ से कूड़ा उठाने के लिए तो कुछ सुरक्षा का समान मिला नहीं है। एक समान्य से बेलचा से मैं लोगों का शौच उठाता हूं। इसके कारण कई मैं अक्सर बीमार रहता हूं।”

थोड़ी देर ठहरने के बाद वो मायूसी से कहते हैं, “आसपास के लोग और रिश्तेदार सामने तो कुछ नहीं कहते, लेकिन पीठ पीछे मजाक उड़ाते ही है। मैं यह काम छोड़ना चाहता हूं और बीच-बीच में छोड़ भी देता हूं, लेकिन यहां के लोग मेरे घर या स्थानीय पार्षद के घर पहुंच जाते हैं। उनके कहने पर हमें दोबारा काम शुरू करना होता है।"

मैला प्रथा खत्म हो इसके लिए सरकार की कोई इच्छा शक्ति नहीं है। सरकार स्वच्छ भारत अभियान के लिए दो हज़ार लाख बजट रखा है वहीं मैला प्रथा खत्म करने और उनके पुर्नवास के लिए सिर्फ पांच करोड़ बजट रखा गया है। एक समय में पुनर्वास का बजट 500 करोड़ तक हुआ करता था।
भाषा सिंह, लेखिका अद्श्य भारत और पत्रकार

हालांकि कुण्डरी रकाबगंज क्षेत्र पार्षद आदिल अहमद बताते कुछ और तर्क देते हैं। वो बताते हैं, "बिलोचपुरा में लोग अवैध रूप से रहते हैं। यह लोग जिस ज़मीन पर रहते वो नदवा कॉलेज की है। मेरे क्षेत्र के अंदर यह जगह आती है तो साफ़-सफाई का इंतजाम कराना हमारा काम है। मैं निगम के कर्मचारियों से साफ़-सफाई करने के लिए बोलता हूं, शौच उठाने के लिए नहीं।"

स्मार्ट सिटी की रेस में शामिल लखनऊ के 100 से ज्यादा परिवारों वाले इलाके में कानून और मानवता का मज़ाक उड़ाया जाता है लेकिन नगर निगम को ऐसी किसी घटना की जानकारी नहीं है। इस सम्बन्ध में नगर आयुक्त उदय राज सिंह बताते हैं, "अगर ऐसा हो रहा है तो गलत है। हमें इसकी जानकरी नहीं थी। अब हम इसपर कार्रवाई करेंगे। इस तरह की चीज़े गलत हैं।"

मैला ढोने का होता रहा है विरोध

इण्डिया वाटर पोर्टल पर छपे लेख ‘मैला ढोने की कुप्रथा’ में बताया गया है कि मैला ढोने का विरोध शुरू से होता रहा है। महात्मा गाँधी ने भी ‘किसी और का मैला कोई और उठाये’ के विरोधी थे। 1948 में मैला ढोने की प्रथा का विरोध महाराष्ट्र हरिजन सेवक संघ ने किया था और उसने इसको ख़त्म करने की मांग की थी। ब्रेव-कमेटी ने 1949 में सफाई कर्मचारियों के काम करने की स्थितियों में सुधार के लिए बिंदुवार सुझाव दिए थे। मैला ढोने की हालातों की जांच के लिए बनी समिति ने 1957 में सिर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने का सुझाव दिया।

लेख के अनुसार राष्ट्रीय मजदूर आयोग ने 1968 में ‘सफाईकर्मियों और मैला ढोने वालों’ के काम करने की स्थितियों के अध्ययन के लिए एक कमेटी का गठन किया था। इन सभी समितियों ने मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने और सफाईकर्मियों के पुनर्वास का सुझाव दिया था। इन समितियों के कुछ सुझावों को स्वीकार करने के साथ देश ने मैला धोने का काम और शुष्क शौचालय निर्माण रोकथाम कानून 1993 कानून बनाया। इसके बाद दोबारा 2013 में कानून बनाया गया।

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मैला ढो कर ले जाता व्यक्ति

क्या होता है शुष्क शौचालय

सरकारी कागजों में ये सैकड़ों परिवार बिलोचपुरा में अवैध कब्जा करके रह रहे हैं। यानि ये लोग इस जमीन पर पक्के निर्माण नहीं करवा सकते। शहर के बीचो-बीच हैं तो शौच के लिए खेत में जाना मुमकिन नहीं है तो लोगों ने अपने घरों में कुछ हिस्से में पर्दा करके शौचालय का रूप दे दिया है। इस शौचालय में पिट, टैंक या सीवर नहीं होता। लोग गड्ढ़े की जगह बाल्टी या टब रख देते हैं, तो सफाई कर्मचारी दिन में एक बार उठा ले जाते हैं। इस तरह से शौचालय बहुत साल पहले भारत के कई इलाकों में हुआ करते थे, लेकिन अब पूरी तरह पाबंदी है।

अदृश्य भारत’ नाम से किताब लिखने वाली वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह आगे कहती हैं, “मैला प्रथा खत्म हो इसके लिए सरकार की कोई इच्छा शक्ति नहीं है। सरकार स्वच्छ भारत अभियान के लिए दो हज़ार लाख बजट रखा है वहीं मैला प्रथा खत्म करने और उनके पुर्नवास के लिए सिर्फ पांच करोड़ बजट रखा गया है। एक समय में पुनर्वास का बजट 500 करोड़ तक हुआ करता था।”

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2013 के संसोधित कानून के तहत इतनी सजा का है प्रावधान

नए नियम के तहत ऐसे शौचालय का निर्माण कराना और इस तरह किसी से काम करना दोनों दोनों गैरजमानती काम हैं। पहली बार ऐसा काम करने पकड़े जाने पर 2 साल की सजा और 2 लाख रुपए जुर्माने या फिर दोनों का प्रावधान है। दोबारा यही गलती करने पर 5 साल की सजा और 5 लाख का जुर्माना है।

सफाई कर्मचारियों को सरकार देती है ये सहूलियतें

मैला ढोने की प्रथा को खत्म इससे जुड़े लोगों को सरकार कई तरह की सहूलियतें देती है। जिसमें आर्थिक मदद के अलावा घर, बच्चों को छात्रवृत्ति, कोई दूसरा पेशा अपने पर ट्रेनिंग और लोन आदि शामिल हैं।

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