दिवाली का मतलब सिर्फ रोशनी और खरीदारी नहीं, एक दीप प्रकृति के लिए भी जलाइए...

आपसे गुज़ारिश है कि कोशिश करिए प्लास्टिक पहली बात तो कम से कम इस्तेमाल करें और करनी पड़े तो उसका कई बार उपयोग हो और जब वह फेंकी जाए तो कबाड़ी को दी जाए ताकि वह रीसायकल हो सके। क्योंकि अब हमारी नदियों और तालाबों में अब और प्रदूषण सहने की शक्ति नहीं बची है ।

Update: 2019-10-26 08:45 GMT

एक समय था जब त्यौहार का अर्थ होता था मेल मिलाप , छुट्टियां और छुट्टियों में जाना नानी के घर । त्योहारों का अर्थ होता था घर के फालतू सामान निकाल कर कर गरीबों को देना। सफाई करना , अपने हाथों से पुताई करना, घर के पुराने के सामानों को धूप लगाना। और जो लघु कुटीर उद्योग होते थे उन्हें रोज़गार देना। जैसे कि दिवाली पर भड़भूंजे से खील बताशे खरीदना। करवा चौथ पर करवा, दीपावली पर दिये लेकर कुम्हारों को रोज़गार देना। लकड़ी के कारीगरों के लिए लकड़ी के प्रकोष्ठ बनाने का काम, रंग रोगन करने वाले लोगों के लिए काम , ऐसे कई कुटीर उद्योग सालाना मांग में आ जाते थे, जो इन त्योहारों के बहाने अपना वार्षिक कमाई किया करते थे । 


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आजकल बाजारों में चीनी सामानों का बाढ़ आई हुई है ।अब कोई रंगोली नहीं बनाता स्टिकर चिपकाते हैं । चाइनीज़ लड़ियाँ लगाते हैं । अब कोई कपड़े नहीं सिलवाना दर्ज़ी से। सब लोग रेडीमेड कपड़े खरीदते हैं। और केवल दिवाली को नहीं खरीदते अब तो सालभर कपड़े खरीदने की मानसिकता बन गई है लोगों की ।

मिठाइयां आजकल तमाम प्रदूषित केमिकल रंगों और गंदे मिलावटी खोए से बनी होने के बावजूद हम सब बाजारों की मिठाइयों के प्रति लालायित रहने लगे हैं । जबकि पहले के समय में दिवाली के 15 दिन पहले से घरों में नमकीन या मिठाइयां बनाने लगती थी । अब तो दिवाली पे हलवाइयों की दुकान पर ऐसे भीड़ लगती है जैसे कि मुफ्त में मिठाई बंट रही हो।

दिवाली पर सफाई के नाम पर हम बहुत सारा प्लास्टिक का कचरा निकालते हैं, रोड पर फेंक देते हैं, पहले हम कबाड़ियों को अपना कचरा देते थे जो रीसायकल हो जाता था । आजकल बस हम फेंक देते हैं । पहले हम बहुत सारी पुरानी वस्तुओं को दोबारा उपयोग में ले आते थे यहां तक कि कागज की थैलियां भी । लेकिन आजकल हम प्लास्टिक का केवल सिंगल उपयोग करते हैं और उसको कचरे में फेंक देते हैं ।

आपसे गुज़ारिश है कि कोशिश करिए प्लास्टिक पहली बात तो कम से कम इस्तेमाल करें और करनी पड़े तो उसका कई बार उपयोग हो और जब वह फेंकी जाए तो कबाड़ी को दी जाए ताकि वह रीसायकल हो सके। क्योंकि अब हमारी नदियों और तालाबों में अब और प्रदूषण सहने की शक्ति नहीं बची है ।

बाजार बहुत क्रूर है वह हम पर अपनी मांगे थोपता है। वह हमें बताता है कि हमें क्या ज़रूरत है । वह हमें बार-बार एक वर्ग भेद की ओर ले जाता है । वह हमारी भारतीय परंपरा के विरुद्ध दिखावे की पद्धति को प्रमोट करता है । बाजार की इन लोकलुभावन चीजों से हमें बचना होगा ।

दिन- रात हमारी जेबों पर डाका डालते टीवी और अखबारों के विज्ञापनों से बचना होगा ।

अपनी मेहनत से कमाई हुए इस पैसे को अपनी बहुत खास जरूरतों के लिए काम लाएं और अगर यह अतिरिक्त है तो पर्यावरण के लिए खर्च करिए। आज सबसे ज्यादा जरूरत पर्यावरण को हमारी है । वही पर्यावरण जिसके बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। पहले हमारे सारे त्यौहार प्रकृति के संग-साथ मनते थे। अब प्रकृति का गला रेतते हुए।

प्रकृति और अन्य जीवों के प्रति इस दर्द को महसूस कीजिए ।

मैं बहुत दिनों से शिद्द्त से महसूस कर रही हूं यह दर्द, कि क्यों एक दैन्यता से देखता कुत्ता सड़क के किनारे पूंछ दबाए चलता है, उसे टिफिन से निकाल कर रोटी डालते इंसान नहीं मिलते, धुंआ उगलते इस्पाती दैत्य हाहाकार करते, उसके किसी दोस्त के रक्त मज्जा के अवशेष पहियों में लिथेड़े गुजरते हैं।

सांप गलती से निकल आए, वही दैन्यता लिए तड़प और डर लिए जाना बचाता है। बिल्लियों के मासूम सफेद किटन पैदा होते ही धुंए के रंग में बदल जाते हैं।

कल रात मैं धरती की चिंता में नहीं सोई। मेरा कमरा दम घोंटते गैर जरूरी सामानों में पटा था। जो धरती की त्वचा ही नहीं, रज्जु उधेड़ कर निकाल कर बने होंगे, जो अनुपयोगी होने पर उसी पर आपादमस्तक फेंक दिए जाएंगे।

मैं बचपन की सड़कों के नॉस्टैल्जिया में रोई। रात भर कोई हिचकियों में मुझसे कहता रहा - तू लिख ही मत। कुछ कर भी।

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मिताहारिता, मिनिमलिज्म, संयम, अहिंसा कितने शब्द सर झुकाए मेरे सामने खड़े थे। देह पर जमती वसा की परतें, मेरी भरी वार्डरोब, गैराज में खड़ी दो कारें, सामानों से अँटा घर........ शर्मिंदगी हुई।

दोस्तों कोई संस्था नहीं, न कोई एन जी ओ - प्लीज आकर साथ दो, हम फिर

अल्प की अवधारणा की तरफ चलें।

मिनिमलिज्म इस धरती को फिर धरा बनाने का एक आखिरी प्रयास। कम्यूनिज्म, पारंपरिकता, आधुनिकता सब हाथ जोड़ कर चेन बनाएँ, इस उपभोक्तावाद की थोपी दुनिया से निजात पाएं। सौ बार सोचें - क्या हमें इस चीज की जरूरत है या यह विज्ञापन का प्रभाव है।

चलो लौटें गांधी के उपवास की तरफ।

साईकिल पोंछें छोटी दूरी के लिए, बड़ी दूरी के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट लें

ऑरगैनिक किसानी की तरफ

पैतृक गांव लौटें वहां पेड़ लगाएं बचपन वाले।

बाज़ार को भूल कर चलें गांव की हाट

चाईनीज़ सामानों से तौबा करें , वह सस्ता बेशुमार

प्लास्टिक धरती का कैंसर नहीं, आपको भी कैंसर दे रहा है।

घर से निकालें बेजरूरत चीजें बांट दो।

आओ साथ दो लोगों को जागरुक करने में, पर जाँच लो खुद को पहले। क्या घबराहट नहीं होती सामानों के अटे घर में? नानी दादी का कम सामान वाला घर याद नहीं आता? कुत्तों के सुबह के खेल से गुलज़ार गली, बिल्ली के छौने। खूँटे से बंधी गैया की हुंकार, नानी की उससे बातें।

बस करो, विकास नहीं चाहिए। मोबाईल जरूरी बातों के लिए बस! चलो महबूब का तसव्वुर करें चौबीस घंटे उसकी हर सांस का हिसाब लेने की जगह । कल्पना को मरने से बचा लें, धरती के कुछ स्वर्गों को अछूता छोड़ दें।

सोचो ज़रा! कल रात मुझे सच बडा डर लगा। प्लीज़ .....प्लीज़.....प्लीज़ हम सब अपने आप को थोड़ा सा सुधार लें। चलो, वापस अपनी उन्हीं परंपराओं में चलें हमारी थी । हर चीज को कई बार इस्तेमाल करने की और मिनिमल होने की ......केवल वही वस्तु बाजार से खरीद कर लाने की जिनकी बाजार से लाने की जिनकी हमें सख्त जरूरत हो। चलो एक दीपक प्रकृति के नाम पर जलाएँ, एक प्रण इस धरती के लिए लें कि इसे और प्रदूषित नहीं करेंगे।

(मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी की लोकप्रिय कथाकार हैं। गांव कनेक्शन में उनका यह कॉलम अपनी जड़ों से दोबारा जुड़ने की उनकी कोशिश है। अपने इस कॉलम में वह गांवों की बातें, उत्सवधर्मिता, पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा करेंगी।) Full View

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