संवाद: संसद में छाया रहा किसान आंदोलन, बजट सत्र के दूसरे चरण में भी व्यापक चर्चा के आसार

संसद के बजट सत्र में सरकार को ना चाहते हुए भी किसान आंदोलन पर चर्चा करना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां तक कहा दिया कि ये कृषि कानून बाध्यकारी नहीं बल्कि ऐच्छिक हैं।

Update: 2021-02-22 05:55 GMT
फोटो- राज्यसभा टीवी

बजट सत्र के पहले चरण को अगर 'किसान सत्र' कहा जाये तो गलत नहीं होगा। देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद में खेती-बाड़ी से जुड़े सवालों पर जैसी चर्चा किसान संगठन दशकों से चाह रहे थे, वह चर्चा बिना मांगे ही इस बजट सत्र में हो गई। लेकिन किसानों के सवालों पर चर्चा का क्रम बजट सत्र के खत्म हो जाने के बाद भी जारी है। संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति 22 और 23 फरवरी को अपनी बैठक में खेती-बाड़ी के बजट पर गहन पड़ताल करने जा रही है।

इस बजट सत्र के पहले चरण में 29 जनवरी से 13 फरवरी के बीच किसान आंदोलन और कृषि से जुड़े मुद्दे हावी रहे। अब स्थायी समितियां 8 मार्च तक विभिन्न विभागों की अनुदान मांगों पर व्यापक पड़ताल कर संसद के दोनों सदनों के पटल पर इसकी रिपोर्ट रखेंगी। इसी के बाद बजट सत्र का दूसरा चऱण 8 अप्रैल 2021 तक चलेगा। उस दौरान भी खेती के सवालों पर विपक्ष सरकार को घेरने की तैयारी कर रहा है।

इधर संसद की सबसे पुरानी स्थायी समितियों में से एक कृषि संबंधी स्थायी समिति ने कृषि और किसान कल्याण, कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग, मत्स्यपालन, डेयरी औऱ पशुपालन और खाद्य प्रसंस्करण के शीर्ष अधिकारियों को इन विभागों के अनुदान मांगों की छानबीन के लिए संसद भवन में तलब किया है। चूंकि पहले बजट का बड़ा हिस्सा बिना चर्चा के ही पास होता था और इसे लेकर संसद की आलोचना होती रहती थी। इस वजह से 1993 से बजट सत्र के बाद से करीब चार सप्ताह के लिए संसद स्थगित रहती है। तब तक संसद की स्थायी समितियां इस विषय पर काम कर सदन को रिपोर्ट देती हैं। सरकारी विभागों में इस दौरान सबसे अधिक हलचल रहती है क्योंकि समितियों के माध्यम से संसद कार्यपालिका पर नियंत्रण भी रखती है।

कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के साथ उससे जुड़े विभागों में इन दिनों काफी सक्रियता देखने को मिल रही है। कृषि संबधी स्थायी समिति का नेतृत्व कर्नाटक से भाजपा के लोकसभा सांसद पर्वतगौड़ा चंदनगौड़ा गद्दीगौदर के हाथों में है। वे खेती-किसानी के अच्छे जानकार हैं लेकिन उनके नेतृत्व में बीती कई रिपोर्टों में कृषि मंत्रालय की काफी खिंचाई हुई है। इस समिति में मुलायम सिंह यादव, वीरेंद्र सिंह, प्रताप सिंह बाजवा, नारायण राणे, सरदार सुखदेव सिंह ढिढसा, वाइको और चौधरी हरनाथ सिंह यादव जैसे दिग्गज सांसद शामिल हैं, जो खेती-बाड़ी के सवालों पर समय समय पर मुखर रहते हैं।

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पहले इस समिति का नेतृत्व विपक्षी सांसदों के हाथ में भी रहा है लेकिन भाजपा ने 2014 के बाद इसका नेतृत्व सत्तारूढ़ दल के हवाले ही किया। इसके पहले पांच सालों तक हुकुमदेव नारायण यादव इसके अध्यक्ष थे। लेकिन स्थायी समितियां चूंकि दलीय आधार पर काम नहीं करती हैं, इस नाते तमाम सवालों पर वे सरकार की आलोचना करने से भी नहीं चूकती। हां, इनकी बैठकें गोपनीय होती हैं, इस नाते ये क्या रिपोर्ट देंगी इसका खुलासा बजट सत्र के दूसरे चरण में ही हो पाएगा।

बजट सत्र के पहले चरण में 12 दिनों में राज्य सभा की उत्पादकता 99 फीसदी रही और सांसदो ने चर्चाओं में 60 फीसदी यानि कुल 27 घंटे 11 मिनट का समय लगाया। दिलचस्प बात यह थी कि दोनों सदनों में विभिन्न दलों के सांसदो ने किसानों के सवाल पर कई लिहाज से सरकार की घेराबंदी की। कई सांसदों का सुझाव था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं सांसदों के साथ किसानों के बीच जाएं और कानूनों को वापस लेने का ऐलान करने के साथ रास्ता निकालें। कुछ सांसदों का सुझाव था कि राजनाथ सिंह को वार्ता के लिए आगे किया जाये। करीब सभी विपक्षी वक्ताओं ने किसानों के सवाल को उठाया और राज्य सभा के सभापति तक को इस मुद्दे पर असमंजस में डाल दिया।

वहीं लोकसभा की उत्पादकता 99.5% रही और 49 घंटे और 17 मिनट की बैठक में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा 16 घंटे 39 मिनट चली जिसमें 130 सांसदों ने भाग लिया। केंद्रीय बजट पर आम चर्चा 14 घंटे 40 मिनट चली। आधी रात के बाद तक सभा की बैठकें हुईं और इन दोनों मौको पर किसान ही छाये रहे। सांसदों ने किसान आंदोलन को बदनाम करने और बार्डर पर कीलें और बैरीकेटिंग आदि करने की आचोलना की। एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने की मांग के साथ मानसून सत्र के दौरान पारित विधेयकों की वैधता पर भी सवाल उठे।

यह किसान आंदोलन की व्यापक सफलता है कि जब इसे अस्त माना जाने लगा था तो 26 जनवरी के बाद इसने एक नयी करवट ली। भारतीय किसान यूनियन और राकेश टिकैत ने इसे एक नयी ताकत दे दी है। पंजाब के किसानो पर जो ठप्पा लगाने का प्रयास हो रहा था उसका उलटा नतीजा सामने आय़ा। वहीं पंजाब से लेकर केरल और उत्तर प्रदेश तक की विधान सभाओं में इसके पक्ष में सवाल उठे और उठना जारी है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ही नहीं अधिकतर मुखर सांसदों ने किसानों से जुड़े मसले को अपने भाषण में प्रमुखता से रखा।

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आरंभ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 29 जनवरी 2021 को अपने अभिभाषण से किया जिसका सबसे अधिक फोकस 10 करोड़ छोटे किसानों पर था। तीनों विधेयकों के बाबत यह कह कर राष्ट्रपति ने सरकार का बचाव किया कि ये व्यापक विमर्श के बाद पारित हुए। तिरंगे और गणतंत्र दिवस जैसे पवित्र दिन के अपमान को बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए राष्ट्रपति ने कई नसीहत भी दी। राष्ट्रपति का अभिभाषण चूंकि मंत्रिपरिषद तैयार करती है इस नाते सरकार की उपलब्धियों पर उनका बयान स्वाभाविक ही था। लेकिन संसदीय इतिहास में यह अनूठा मौका था कि कांग्रेस समेत 20 विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के बहिष्कार किसानों की मांगों के समर्थन में किया। वहीं कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह बिट्टू ने केंद्रीय कक्ष में जाकर तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ नारेबाजी की।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर दोनों सदनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कुछ कहा उसका बड़ा हिस्सा किसानों पर ही केंद्रित था। किसान आंदोलन उनके भाषण के केंद्र में था और तमाम उन आशंकाओं को खुद दूर करने का प्रयास किया जो सत्तारूढ़ दल के शूरमा नहीं कर सके थे। छोटे किसान उनके भाषण के केंद्र में रहे लेकिन उन्होंने पंजाब की तारीफ भी की और किसान आंदोलन को पवित्र भी कहा। हालांकि आंदोलन पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कुछ लोगों को आंदोलनजीवी कहा और इसके बहाने एक चर्चा छेड़ गए। साथ ही यह दावा भी किया कि कृषि मंत्री लगातार किसानों से बातचीत कर रहे हैं।

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी पूरी तैयारी औऱ आंकड़ो के साथ मैदान में उतरे थे। लेकिन विपक्ष ने जिस तरह से तमाम आकंड़ों औऱ तथ्यों के साथ अपनी बातों को रखा उसकी काट सलीके से निकाली नहीं जा सकी। कई विपक्षी सांसदो ने खेती बाड़ी से जुड़े सवालों पर सरकार को निरुत्तर कर दिया। किसान आंदोलन और अतीत के अंग्रेजी राज के किसान आंदोलनों की भी चर्चा सदन में फिर से ताजी हुई। सरकार को भी इस बात का अंदाजा संसद में हो गया कि उसने किसान आंदोलन को आरंभ में हल्के में लेकर गलत किया। इसी नाते मोर्चा संभालने आगे आए प्रधानमंत्री ने यहां तक कह दिया कि कृषि कानून ऐच्छिक है न कि बाध्यकारी।

संसद में सरकार को इस बात का अंदाजा था कि विपक्ष किसान आंदोलन को लेकर हंगामा करेगा। इसी नाते इस पर चर्चा की मांग को स्वीकार ही नहीं किया गया। लेकिन राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के लिए विपक्षी सांसदों की मांग पर 10 घंटे का समय बढ़ाना पड़ा। सारी चर्चा कृषि कानूनों और किसान आंदोलन पर ही केंद्रित रही औऱ उपलब्धियों के तमाम अहम मुद्दे पीछे चले गए। सत्ता पक्ष से जुड़े सांसदों और मंत्रियों को भी अन्य मुद्दों की जगह इसी मुद्दे पर खुद को केंद्रित करना पड़ा।

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बजट सत्र में कई अहम अतारांकित सवाल भी उठे, जिसमें दिल्ली की सीमाओं पर किसान आंदोलन, किसानों पर लाठी चार्ज, आंदोलन को मदद करने वालों को नोटिस देना, कनाडा के प्रधानमंत्री की टिप्पणी, कृषि कानून बनाने के पहले हितधारकों से चर्चा और विदेशो में प्रदर्शन समेत कई अन्य मुख्य विषय थे। सैय्यद नासिर हुसेन और राजमणि पटेल का एक सवाल सुर्खियों में रहा, जो सोशल मीडिया पर भी छाया रहा। इस सवाल के जवाब में सरकार ने माना कि सितंबर 2020 से जनवरी 2021 के दौरान कृषि कानूनों के संबंध में प्रचार अभियान पर सरकार ने 7.95 करोड़ रुपये का व्यय किया। इसमें विज्ञापनों पर 7.25 करोड़ का व्यय हुआ। वहीं 67.99 लाख का व्यय दो फिल्मों पर हुआ।

लेकिन इन सब प्रयासों के बाद भी पंजाब में स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजों और हरियाणा के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की करवट बदल रही राजनीति और गन्ना किसानों की नाराजगी एक नयी चिंता पैदा कर रही है। ऐसे में अगर सरकार ने एमएसपी पर कानून बनाने की पहल करके कोई रास्ता निकाला तो शायद आंदोलन ठंडा पड़ जाये, नहीं तो बजट सत्र के अगले चरण में शायद किसान आंदोलन की और आंच दिख सकती है। 

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