यूपी,एमपी सहित कई राज्यों ने दी श्रम कानूनों में बड़ी ढील, विपक्ष और मजदूर संगठनों ने बताया- 'मजदूर विरोधी'

Update: 2020-05-09 16:06 GMT

कोरोना लॉकडाउन से ठप हुई आर्थिक गतिविधियों को गति प्रदान करने के लिए राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों में ढील देना शुरू कर दिया है। सरकारों का दावा है कि इस कदम से उद्योगों को उबरने का मौका मिलेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे। वहीं विपक्ष और मजदूर संगठनों का कहना है कि श्रम कानूनों में ढील देने से मजदूरों के अधिकार व्यापक स्तर पर प्रभावित होंगे और उनके शोषण का एक और रास्ता खुलेगा।

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सकार ने एक अध्यादेश लाकर अगले तीन साल के लिए 35 श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया। ये नियम यूपी में मौजूद सभी राज्य और केंद्रीय औद्योगिक इकाइयों पर लागू होंगे, जिसके दायरे में 15000 कारखाने और लगभग 8 हजार मैन्युफैक्चरिंग यूनिट आती हैं।

इस अध्यादेश के तहत सिर्फ तीन श्रम कानूनों [बंधुआ मजदूर अधिनियम (1976), कर्मचारी मुआवजा अधिनियम (1923) और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम (1966)] को छोड़कर सभी श्रम कानूनों को समाप्त कर दिया गया है। इसमें औद्योगिक विवादों का निपटान करने, श्रमिकों का वेतन तय करने, श्रमिकों के स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति तय करने, काम करने के घंटे का निर्धारण करने, मजदूर यूनियन बनाने और ठेका व प्रवासी मजदूरों से संबधित कानून शामिल हैं।

हालांकि अभी इस अध्यादेश को केंद्र सरकार और राष्ट्रपति का मंजूरी मिलना बाकी है, जिसके बाद यह प्रभावी होगा। अध्यादेश में काम करने के घंटे को 8 से बढ़ाकर 11 घंटे कर दिया गया है, जिसे विशेष परिस्थितियों में बढ़ाकर 12 घंटा भी किया जा सकता है।

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इस अध्यादेश का विपक्ष और मजदूर यूनियनों ने कड़ा विरोध किया है। वामपंथी दलों समेत सात पार्टियों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को चिट्ठी लिखकर उत्तर प्रदेश में हुए श्रम कानूनों में बदलाव पर आपत्ति जताई है। इस चिठ्ठी में कहा गया है कि कोरोना वायरस की आड़ में सरकार जान-बूझकर श्रम कानूनों को कमजोर कर रही है।

चिट्ठी में कहा गया है, "इन कानूनों के हटने से श्रमिकों के साथ गुलामों की तरह व्यवहार किया जा सकता है। ऐसी स्थिति तक उन्हें लाना न केवल संविधान का उल्लंघन है बल्कि संविधान को निष्प्रभावी बनाना भी है। ये बदलाव आगे चलकर श्रमिकों की जिंदगी को खतरे में डाल सकते हैं, जो देश में लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद से पहले ही अमानवीय स्थिति में हैं।"

वहीं ट्रेड यूनियनों का कहना है कि इन कानूनों से मजदूरों के सुरक्षा और स्वास्थ्य मानदंडों का पालन किए बिना कारखानों को चलाने की सरकारी अनुमति मिल जाएगी। इसके अलावा कंपनियां अपनी सुविधा के अनुसार श्रमिकों को काम पर रखेंगी और उन्हें जब चाहे निकाल देंगी।

आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के अध्यक्ष साजी नारायणन ने कड़े शब्दों में कहा कि यह श्रमिकों के लिए कोरोना से बड़ी महामारी सिद्ध होगी। उन्होंने कहा, "उद्योगों को राहत देने के नाम पर गरीब मजदूरों के हितों की अनदेखी की जा रही है। बीएमएस इस सिलसिले में शुक्रवार को गृहमंत्री अमित शाह से मिलकर इस पर विरोध भी जता चुका है। अगर सरकार ने मजदूरों के हित में कदम नहीं उठाया, तो हम इस पर व्यापक रणनीति बनाकर अपना विरोध दर्ज कराएंगे।"

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वहीं सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के महासचिव प्रेम नाथ राय ने कहा, "यह अध्यादेश लागू होने पर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी, ग्रैच्युटी और दूसरे भत्तों का लाभ नहीं मिल सकेगा। इसके अलावा उनकी कभी भी छंटनी की जा सकेगी, जिससे मजदूरों में सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा का भय हमेशा रहेगा। यह मजदूरों के मनोवैज्ञानिक स्थिति के लिए भी बहुत घातक है। इसके अलावा काम के घंटे बढ़ जाने से उनको मिलने वाला ओवरटाइम भी नहीं मिल सकेगा।"

राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर विरोध जताने वाले राजनीतिक दलों ने कहा कि उत्तर प्रदेश को देखकर दूसरे राज्य भी ऐसा कदम उठा रहे हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब ने फैक्ट्री अधिनियम में संशोधन के बिना काम की अवधि को आठ घंटे प्रतिदिन से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया है। वहीं पंजाब भी राज्य के श्रम कानूनों और आबकारी नीति में बदलाव पर विचार कर रहा है। बिहार सरकार ने भी श्रम कानूनों में छूट देने के संकेत दे दिए हैं।

सबसे बड़ा बदलाव मध्य प्रदेश में हुआ है। मध्य प्रदेश सरकार ने सभी औद्योगिक इकाईयों को सभी श्रम कानूनों से एक हजार दिवस (लगभग तीन साल) के लिए किसी भी जवाबदेही से मुक्त कर दिया है। सरकार ने काम के घंटे को 8 से बढ़ाकर 12 घंटे करने की छूट दी है। हालांकि राज्य सरकार ने कहा है कि मजदूरों को इसके लिए ओवरटाइम भी मिलेगा।

मध्य प्रदेश सरकार ने कुटीर उद्योगों, स्टार्ट अप और छोटे कारोबारों को रोजगार, रजिस्ट्रेशन और जांच से जुड़े जटिल श्रम नियमों से छुटकारा देने का भी आदेश दिया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा, "कारखानों में 61 रजिस्टर और 13 रिटर्न भरने के पुरानी जरूरतों को खत्म कर सिर्फ एक रजिस्टर और रिटर्न भरना होगा। वहीं रिटर्न फाइल करने के लिए सेल्फ सर्टिफिकेशन ही काफी होगा। इस कदम से कारोबारी सुगमता को बढ़ावा मिलेगा।"

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उन्होंने बताया कि नए कानूनों के तहत संबंधित अधिकारी को कंपनियों, दुकानों, ठेकेदारों और बीड़ी निर्माताओं के लिए पंजीकरण या लाइसेंस की प्रक्रिया को केवल एक दिन में ही पूरा करना होगा। पहले यह प्रक्रिया 30 दिन में पूरी होती थी। ऐसा नहीं करने पर अधिकारी पर जुर्माना लगेगा और यह व्यापारी को मुआवजे के तौर पर दिया जाएगा।

इसके अलावा स्टार्टअप को अपने उद्योगों का केवल एक बार ही रजिस्ट्रेशन कराना होगा, वहीं कारखाना लाइसेंस रिन्युअल भी अब हर साल के बजाय हर 10 साल में होगा। लाइसेंस भी अब एक साल के लिए नहीं बल्कि पूरे कॉन्ट्रैक्ट अवधि के लिए मिलेगा। नए कारखानों के रजिस्ट्रेशन अब पूरी तरह ऑनलाइन होंगे और प्रदेश में दुकानें सुबह 6 से रात 12 बजे तक खुली रह सकेंगी।

राज्य सरकार ने 100 से कम श्रमिकों के साथ काम करने वाले उद्योगों को औद्योगिक नियोजन अधिनियम के प्रावधानों से मुक्ति दी है और कहा है कि लघु एवं मद्यम उद्योग (MSME) अपनी जरूरत के हिसाब से श्रमिक रख सकेंगे। ट्रेड यूनियनों और कारखाना प्रबंधन के बीच विवाद होने पर निपटारा सुविधानुसार अपने स्तर पर ही किया जा सकेगा। इसके लिए लेबर कोर्ट जाने की जरूरत नहीं होगी। वहीं 50 श्रमिकों से कम वाली फर्म में कोई सरकारी जांच नहीं होगी, वहीं ऐसे फर्म में रजिस्ट्रेशन की भी कोई जरूरत नहीं होगी। छोटे और मंझोले फर्म्स में भी जांच लेबर कमिश्नर की मंजूरी के बाद ही होगा।

गुजरात ने भी राज्य में स्थापित होने वाले नए उद्योगों को 1200 दिनों के लिए श्रम कानूनों से छूट दी है। ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) की महासचिव अमरजीत कौर कहती हैं, "कोरोना लॉकडाउन की स्थिति में जब मजदूरों के हितों की सबसे ज्यादा रक्षा की जानी चाहिए, तब सरकार उन्हें उद्योगपतियों के रहमों-करम पर छोड़ रही है। अब उनके हितों पर चोट पहुंचाने वालों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई जा सकेगी और ना ही उन्हें कोई कानूनी मदद दिलाया जा सकेगा। यह देश के करोड़ों मजदूरों के हितों के साथ खिलवाड़ है।"

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समाजवादी पार्टी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसे अमानवीय करार देते हुए सीएम योगी के इस्तीफे की मांग की। उन्होंने लिखा, "उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा मज़दूरों को शोषण से बचाने वाले 'श्रम-क़ानून' के अधिकांश प्रावधानों को 3 साल के लिए स्थगित कर दिया है। यह बेहद आपत्तिजनक व अमानवीय है। श्रमिकों को संरक्षण न दे पाने वाली गरीब विरोधी भाजपा सरकार को तुरंत त्यागपत्र दे देना चाहिए।"

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) ने भी बेहद कड़े शब्दों में सरकार की आलोचना करते हुए ट्वीट किया, "यूपी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किए गए बदलावों को तुरंत रद्द किया जाना चाहिए। आप मजदूरों की मदद करने के लिए तैयार नहीं हो, आप उनके परिवार को कोई सुरक्षा कवच नहीं दे रहे और अब आप उनके अधिकारों को कुचलने के लिए कानून बना रहे हो। मजदूर देश निर्माता हैं, आपके बंधक नहीं।"

उत्तर प्रदेश के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने इन आरोपों पर जवाब देते हुए कहा, "मगरमच्छ के आंसू बहाने वालों को नहीं पता लेकिन हमने श्रमिकों के हितों को ध्यान में रखते हुए निवेश के नए रास्ते खोले हैं। हम चाहते हैं कि यूपी लौट रहे प्रवासी श्रमिकों को यहीं रोजगार मिले। यह अध्यादेश मजदूरों, उद्योग और राज्य के हित में है।"

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हालांकि उद्योग जगत से जुड़े लोगों ने श्रम कानूनों में इन बदलाव का स्वागत किया है। एसोसिएशन ऑफ ऑल इंडस्ट्रीज (AOAI) ने अपने एक बयान में कहा, "कोरोना आने के बाद से इंडस्ट्री में बहुत सारी परिस्थितियां बदली हैं। इसके बाद सरकार ने श्रम कानूनों में जो बदलाव किए हैं, वे बहुत ही व्यवहारिक हैं।"

काम करने के घंटे बढ़ाने के सवाल पर AOAI ने कहा कि कोरोना का संकट अभी खत्म नहीं हुआ है। इससे कोरोना काल में कम मजदूर रखकर भी फैक्ट्रियों में काम कराया जा सकेगा, जो मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए ही बेहतर स्थिति है। कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (CII) ने भी काम के घंटों को बढ़ाने और अन्य बदलावों का स्वागत किया।

वहीं उत्तर प्रदेश व्यापारी कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष रविकान्त गर्ग ने कहा, "प्रदेश में औद्योगिक क्रियाकलापों और आर्थिक गतिविधियों को पुनः पटरी पर लाने के लिए सरकार के ये निर्णय काफी अहम साबित होंगे। इस निर्णय के बाद लॉकडाउन से चरमराए उद्योग और व्यापार खासी राहत मिलेगी और प्रदेश में नए निवेश और औद्योगिक प्रतिष्ठान स्थापित करना आसान हो जाएगा। इससे प्रदेश के उद्योगों को नई ऊर्जा मिलेगी।" 

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