पशु और प्रकृति से प्रेम इन आदिवासियों से सीखिए... पशुओं की प्यास बुझाने के लिए 3 महीने गुजारते हैं नदी के किनारे

Update: 2017-05-06 15:02 GMT
दक्षिण गुजरात का डांग जिला भौगोलिक दृष्टि से बेहद खास है।

दक्षिण गुजरात का डांग जिला भौगोलिक दृष्टि से बेहद खास है क्योंकि यह सतपुड़ा, अरावली और साह्याद्री पर्वत श्रृखंलाओं के बीचो-बीच बसा पहाड़ी क्षेत्र है और राज्य की राजधानी गांधीनगर से 420 किमी दूर बसा हुआ शत-प्रतिशत आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र तथा भारत में सबसे कम आबादी वाले जिलों में से एक है।

करीब 1764 स्क्वेयर कि.मी. क्षेत्र में फैले इस जिले की जनसंख्या करीब 2 लाख 26 हज़ार है जिनमें से करीब 75 फीसदी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है। पूरी तरह से पहाड़ी इलाका होने की वजह से यहां के रहवासियों को अपनी दैनिक जीवनचर्या के लिए पूरी तरह से बरसाती पानी पर ही निर्भर रहना होता है।

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पहाड़ों से बहते हुए बरसाती पानी को रोकने के लिए सरकार ने बाकायदा रोक बांध (चेक डैम्स) भी बनाए हुए हैं। करीब 311 गाँवों और 70 ग्राम पंचायतों के आसपास के इलाकों में सरकार ने अब तक करीब 3000 रोक बांध बनाकर ये तय करने की कोशिश जरूर की है कि बरसाती पानी को रोका जा सके लेकिन इन सब प्रयासों के बावजूद भी कई ग्राम पंचायतें और इलाके ऐसे हैं जो सूखे की मार झेलने पर मजबूर हैं लेकिन इस इलाके में विपरीत परिस्थितियों में भी आदिवासियों के पशु और प्रकृति प्रेम की एक जबरदस्त मिसाल देखी जा सकती है।

डांग जिला मुख्यालय आहवा से महज 20 किमी की दूरी पर लिंगा एक छोटा सा गाँव हैं जहां करीब 150 परिवारों में 1200 लोग रहते हैं और सरकारी प्रयासों से लगभग सभी परिवारों को पेयजल आपूर्ति तय की गई है लेकिन गर्मियों के आते ही इस पहाड़ी इलाके में पानी की बेजा किल्लत देखी जा सकती है। अप्रैल माह से सरकारी प्रयासों के चलते जैसे तैसे नलकूप और टैंकर सप्लाई के जरिए आम लोगों के लिए पेयजल व्यवस्था तो संभव हो पाती है लेकिन स्थानीय परिवारों के चौपायों के लिए पेयजल आपूर्ति गर्मियों में एक अजीब समस्या पैदा कर देती है।

गाँव के नजदीकी इलाकों में कोई पोखर, तालाब या पानी के ठहराव की व्यवस्था ना हो पाने की वजह से पालतू पशुओं के लिए पानी की व्यवस्था अपने आप में एक समस्या हो जाती है। सरकारी व्यवस्था को कोसने के बजाय स्थानीय कोंकणी आदिवासी को अपने पशुओं के लिए पानी की व्यवस्था के लिए गाँव से करीब आठ किमी दूर खापरी नदी ही नज़र आती है।

अपने पालतू पशुओं जैसे गाय , भैंस, बकरी, खच्चर और मुर्गियों आदि की पेयजल समस्या से निपटने के लिए गाँव के आधे से ज्यादा आदिवासी परिवार अप्रैल माह की शुरुआत से ही से अपने पूरे परिवार का सारा बोरिया बिस्तर समेटकर घने जंगलों के बीच बह रही नदी के तट पर आ जाते हैं। अप्रैल से लेकर जून अंत यानि लगातार तीन महीनों तक इन परिवारों का ठिकाना खापरी नदी का किनारा ही होता है। हर परिवार नदी के किनारे लकड़ियों से एक झोपड़ी तैयार करता है और अगले तीन महीनों तक यही झोपड़ी इन परिवारों का असल पता होती है।

अपने पालतू पशुओं जैसे गाय, भैंस, बकरी, खच्चर और मुर्गियों आदि की पेयजल समस्या से निपटने के लिए गाँव के आधे से ज्यादा आदिवासी परिवार अप्रैल माह की शुरुआत से ही से अपने पूरे परिवार का सारा बोरिया बिस्तर समेटकर घने जंगलों के बीच बह रही नदी के तट पर आ जाते हैं। अप्रैल से लेकर जून अंत यानि लगातार तीन महीनों तक इन परिवारों का ठिकाना खापरी नदी का किनारा ही होता है। हर परिवार नदी के किनारे लकड़ियों से एक झोपड़ी तैयार करता है और अगले तीन महीनों तक यही झोपड़ी इन परिवारों का असल पता होती है।

मैंने देविनामाल कैंप साइट के नजदीक खापरी नदी के पाट पर एक ऐसे ही परिवार से मुलाकात की और परिवार के मुखिया नारायण देवाजी बागुल से जानकारी मिली कि नदी के किनारे इस प्रकार अपने पूरे परिवार और चौपायों समेत आ बसने की मुख्य वजह इनका चौपायो से विशेष लगाव होना है क्योंकि इन आदिवासियों के लिए आय का मुख्य जरिया खेती और पशुपालन ही है। इन दोनों आय के जरियों के लिए इन्हें पूरी तरह से प्रकृति पर आश्रित रहना होता है और बरसात के आगमन के बाद ही इन्हें खेती और पशुपालन से आय होना शुरू होती है।

जुलाई से लेकर अक्टूबर-नवंबर तक खेती और पशुपालन से जो भी आय अर्जित की जाती है उन्हीं के भरोसे इन्हें अपने परिवार के लालन-पालन की व्यवस्था करनी होती है। सबसे रोचक बात ये लगी कि इन्हें प्रशासन से शिकायत नहीं है। सरकारी सहायता या प्रयासों के बारे में पूछे जाने पर नारायण कहते हैं कि “डांग की भौगोलिक संरचना और जलवायु जिस तरह है ऐसे में पानी को हर एक गाँव में इतनी ज्यादा मात्रा में पहुंचा पाना एक टेढ़ी खीर है।

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ग्रामीणों को तपतपाती गर्मियों में पेयजल आपूर्ति हो पाना बहुत बड़ी बात है।” अकेले नारायण के परिवार में 70 से ज्यादा चौपाये हैं और इन सब के लिए पेयजल उपलब्ध करवाना बेहद मुश्किल काम है ऐसे में नदी की शरण लेना ही इन्हें एकमात्र उपाय सूझता है। मजे की बात ये भी है कि नदी के पाट भी अलग-अलग परिवारों के लोग पहले से चुन लेते हैं। नारायण भाई के सुपुत्र रोहित लिंगा के विद्यालय में कक्षा दसवीं के छात्र हैं और फिलहाल खापरी नदी के किनारे अपनी गर्मियों की छुट्टियां मना रहा है, खानाबदोश होकर।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक हैं.. उनके बाकी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

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