किसान आंदोलनों की बदलती राजनीतिक समझ

शहरों के सामने किसान और कृषि की बदहाली कभी उस रूप में पहुंची ही नहीं कि इस प्रभावी शहरी क्षेत्र का ध्यान खींच सके. मीडिया ने भी कभी वैसी खबरों को चलाया नहीं। इक्का दुक्का आन्दोलन हुए भी तो वो भी गैर संगठित और सालों में कभीकभार हुए।

Update: 2018-12-05 06:37 GMT

मीडिया की लाख अनदेखी के बावजूद पिछले हफ्ते दिल्ली में किसान मार्च एक बड़ी हलचल पैदा कर गया। वैसे ये कोई नई घटना नहीं है। किसान पिछले दो-तीन साल से रह रह कर अपनी व्यथा सुना रहे हैं। लेकिन इस बार के किसान प्रदर्शन में नई बात यह थी कि वे संगठित ज्यादा दिखे। चौबीस राज्यों से 200 से ज्यादा किसान संगठनों का एक साथ दिल्ली चले आना राजनीतिकों के कान जरूर खड़े कर गया होगा। सरकार के लिए गंभीर चिंता इस कारण से भी है कि लोकसभा चुनाव के पहले किसानों ने देश के राजमहल में आकर नारे लगा दिए। आइए देखें कि इस बार की हलचल में और क्या नया जुड़ा। 

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फोटो: अरविन्द शुक्ला

संगठित रूप

किसान की समस्याएं नई नहीं हैं। कई बार बोली बताई जा चुकी हैं। बस इस बार संगठित रूप से दोहराई जा रही हैं। हर राज्य की समस्या क़र्ज़ माफ़ी, फसल का सही मूल्य, बिजली, पानी, मंडी और इन्ही जैसी कुछ मांगों से जुडी है। इनके समाधान तलाशने के लिए एक और नई बात संसद के विशेष सत्र बुलाने से जुड़ी है। तीसरी नई चीज़ किसानों के मुद्दे पर देश के नीतिनिर्माताओं के बीच बातचीत चलवाने की मांग है.

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असरदार दोहराव

पिछले तीन दशकों में किसान आंदोलनों के सफल ना हो पाने की एक बड़ी वजह शहरी समर्थन का ना मिल पाना रहा। शहरों के सामने किसान और कृषि की बदहाली कभी उस रूप में पहुंची ही नहीं कि इस प्रभावी शहरी क्षेत्र का ध्यान खींच सके. मीडिया ने भी कभी वैसी खबरों को चलाया नहीं। इक्का दुक्का आन्दोलन हुए भी तो वो भी गैर संगठित और सालों में कभीकभार हुए। लेकिन इस एक साल में दिल्ली ही नहीं देश के कई शहरों में लाखों किसान बड़े प्रदर्शन और रैली कर चुके हैं। इन रैलियों में पहले से अलग बात यह है कि आंदोलनकारी किसान अब ज्यादा व्यवस्थिति दिखते हैं, भारी संख्या में रहते हुए भी अनुशासन से चलते हुए दिखते हैं, अपनी वेशभूषा और बोली की वजह से उनकी बातें विश्वसनीय लगती हैं और सबसे बड़ा फर्क यह आया है कि वे नियमित अंतराल में ऐसे प्रदर्शन करते जा रहे हैं। जब किसी सन्देश पर जनता का ध्यान दिलाना हो तो उसे बार बार लोगों के सामने लाना पड़ता है। इसे आधुनिक प्रौद्योगिकी की भाषा में हैमरिंग कहते हैं। इसी तरह बार बार अपने घरों के बाहर और शहरी सड़कों पर गाँव के लोगों को देख कर अब धीरे धीरे शहर के पढ़े लिखे और नौकरीपेशा तबके में भी अब किसानों को लेकर जिज्ञासा और चिंता पनपनी शुरू हो रही है।

फोटो: अरविन्द शुक्ला

आंकड़ों के साथ कहना शरू हुआ

किसान अब सिर्फ अपनी व्यथा सुनाकर रोते हुए नहीं दिख रहे हैं. किसान इस बार अपनी बात तर्क और आंकड़ों के साथ रख रहे थे. सरकारी योजनाओं, नीतियों, विज्ञापन और सरकारी नारों पर किसानों के मुंह से टिप्पणियां पहली बार सुनाई दी। स्वामीनाथन रिपोर्ट अब तक एक नारे की तरह सुनाई देती थी लेकिन इस रैली में किसान स्वामीनाथन का पूरा गणित कंठस्थ किए दिखे। इस मामले में तो वे जानकार पत्रकारों को भी समझाते दिखे. न्यूनतम समर्थन मूल्य की चौथाई हकीकत और तीन चौथाई फसाने को किसानों ने जिस तरह बताया उसे सुनकर पत्रकार भी चौंके होंगे। खासतौर पर यह सनसनीखेज बात कि समर्थन मूल्य पर उनकी कितनी थोड़ी सी फसल खरीदी जा रही है। बाकी लगभग 80 फीसद उत्पाद तो उन्हें खुले बाजार में औने पौने दाम पर ही बेचना पड़ रहा है।

उत्पादन बढ़ने का सरकारी तर्क

कमाल तो यह हो गया कि देश में कृषि उत्पादन बढ़ने का सरकारी तर्क किसानों ने अपनी व्यथा का कारण साबित कर दिया। इसी रैली में किसानों ने समझाया कि कृषि उत्पादन बढ़ने के आंकड़े उन्हें किस तरह से घाटे में धकेल रहे हैं। किसी चीज़ की ज्यादा सप्लाई यानी आपूर्ति उसके दाम किस तरह घटाती है? यह बात अब तक अर्थशास्त्री ही समझते थे अब किसान भी समझ गए लगते हैं। बेशक किसी देश के लिए खाद्य पर्याप्तता बहुत बड़ी उपलब्धि है लेकिन अगर वह किसानों की जान की कीमत पर हासिल हो तो उससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या होगा। इस तरह यह भी सिद्ध हुआ कि उत्पादन का बढ़ना यानी जीडीपी का बढ़ना खुशहाली का सूचक नहीं है। उस स्थिति में तो बिल्कुल भी नहीं जब किसी देश की आधी से ज्यादा आबादी यानी किसान बदहाल हों, खासतौर पर वह बदहाल आबादी जिसे खाद्य र्प्याप्तता का श्रेय हासिल हो।

क्या किसान जागरूता इतनी बढ़ गई है

भारतीय किसान भी अगर कृषि निर्यात की बात करने लगा हो तो इसे सुखद आश्चर्य ही समझा जाना चाहिए। इस रैली में कई जागरूक किसानों ने कृषि निर्यात घटने का ज़िक्र भी किया। किसानों को भी यह समझ में आने लगा है कि निर्यात बढ़ने पर दी जाने वाली सबसिडी खत्म करने के लिए हमारी सरकार अंतरराष्ट्रीय दबाव में क्यों आ गई।

क्या किसान आंदोलन की व्यापकता वाकई बढ़ी

बेशक बढ़ी है। इस बार की रैली में 24 प्रदेशों के किसानों ने भागीदारी की। अलग अलग प्रदेशों की भाषा और पहनावा बिल्कुल भी अड़चन नहीं बना। आपस में कोई उत्तर दख्खन नहीं हुआ। मामला किसानों का था सो स्त्री पुरूष या हिंदू मुसलमान की गुंजाइश थी ही नहीं। सो जिन्हें ऐसे आदोलनों से राजनीतिक एलर्जी होने लगती है वे उसे मिटाने के लिए कोई दवा भी नहीं छिड़क पाए। सबसे रोचक और भावुक दृश्य यह था कि अलग अलग भाषा के राज्यों से जो किसान सपरिवार इस रैली में आए थे उनके बच्चे रामलीला ग्राउड के कोने में साथ साथ अपना खेल बनाते भी दिखे। किसान आंदोलन के विस्तार का इसे एक बड़ा संकेतक क्यों न माना जाए।Full View

किसान आंदोलन में राजनीतिक समझ भी बढ़ी

यह एक सुलझा हुआ प्रश्न है कि जब तक किसान की राजनीतिक ताकत नहीं बढ़ती तब तक वह अपना दबाव नहीं बना सकता। इस रैली में साफ साफ कहा गया कि लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र किसानों ने यह समय अपना दबाव बनाने के लिए चुना। इस रैली के कुछ नेताओं ने यहां तक कहा कि सरकार ऐसी गाय है जो पांच साल में एक बार दूध देती है। एक बार यानी चुनाव के पहले। इस लिहाज से देखा जाए तो किसान आंदोलनों में राजनीतिक समझ भी बढ़ चली है।

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इस बार के किसान आंदोलन की समीक्षा के तौर पर कहा जा सकता है कि किसानों ने अब संगठन का महत्व समझ लिया है। अगर 24 राज्यों के दो सौ से ज्यादा संगठन एकजुट होकर दिल्ली में इतना जबरदस्त प्रदर्शन कर गए हैं तो आगे से उनके किसी भी आंदोलन की तीव्रता अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।    

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