टीचर्स डायरी : "जहां कभी शराबियों की महफिल लगा करती, वहाँ आज 350 से ज़्यादा बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल रही है"

संजीव शर्मा, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में अतरौली ब्लॉक के उच्च प्राथमिक विद्यालय राजमार्गपुर के अध्यापक हैं। साथ ही दूसरे राज्यों के शिक्षकों को प्रशिक्षित भी करते हैं। आज टीचर्स डायरी में जानते हैं उनके अनुभव।

Update: 2023-05-17 13:10 GMT

शिक्षक बनने का सपना मैंने अपने घर में ही देखा क्योंकि मेरे पिता जी राजेंद्र प्रसाद शर्मा अतरौली के ही एक प्राथमिक स्कूल में टीचर थे। मेरी प्राथमिक शिक्षा भी पिता जी के ही पास हुई। जब मेरा चयन प्राथमिक विद्यालय में हुआ तो मेरी पहली नियुक्ति दिसंबर 1999 को प्राथमिक विद्यालय अलीगढ़ के राजगहीला में हुई।

यह प्राथमिक विद्यालय बिल्कुल नया बना था, इसका ताला मैंने ही खोला। सेशन जुलाई से शुरू होता था तो मैंने यहाँ छह महीने शिक्षा व्यवस्था को समझने और संचालन करने की रणनीति में लगाया। फिर पिता जी से सलाह लिया कैसे चलाया जाए। तो उन्होंने कहा कि गाँव में घूमों, बच्चों और उनके अभिभावकों से मिलो।

मैंने ऐसा करना शुरू किया इसका असर भी दिखा। जैसे ही जुलाई में सेशन शुरू हुआ लगभग 100 बच्चों का दाखिला हुआ। गाँव के लोगो को जब शिक्षा का महत्व बताया तो वे पूरी तरह से मेरा सहयोग करने लगे और मेरे ऊपर भरोसा भी। गाँव में बहुत गरीबी थी, मैं बच्चों को कॉपी और पेंसिल देता था। किताबें सरकार की ओर मिल जाया करती थी।


मैं बच्चों के साथ फर्श पर ही बैठकर उन्हें पढ़ाता। इसी गाँव में एक लड़का था कुमार पाल, जो अपनी मर्जी से बच्चों को पढ़ाने आता, बाद में वो एक सरकारी टीचर भी बना। साल 2002 में मेरा ट्रांसफर अलीगढ़ के ही प्राथमिक विद्यालय पुरैनी में हो गया।

इस गाँव के लोग पढ़ाई को बिल्कुल भी महत्व नहीं देते थे। यहां मैं और एक प्रधानाध्यापक थे। बच्चों की संख्या सिर्फ 150 थी। मैं हमेशा बच्चों को प्राकृतिक रूप में पढ़ाने की कोशिश करता हूँ । जैसे मुझे संख्या ज्ञान या आकृतियों का ज्ञान कराना है तो पेड़, पौधे, पत्तियाँ, पत्थर, कुर्सी, किताबें, हमारी कक्षा और व्यक्ति का शरीर इन चीजों को लेकर ही मैं बात करता हूँ।

मेरा टीएलएम (सीखाने का सामान) प्राकृतिक रहता है। उदाहरण के तौर पर, मुझे फूलों के बारे में पढ़ाना है तो मैं बच्चों को बगल के सरसों के खेत में ले जाता, फिर एक फूल को तोड़ता और उनको अलग-अलग करके एक-एक चीज बताता। यही अगर मैं किताब से क्लास में बोर्ड पर पढ़ाता तो न ये बच्चे कुछ सीखते न मुझे मज़ा आता।

बच्चों की समझ को विकसित होता देख घर वाले भी बहुत खुश होने लगे। पहले बच्चों की संख्या जो 150 थी वो बढ़कर 250 पहुँच गई। मेरे बात करने के लहजे को देखते हुए विभाग अधिकारी ने जनपद स्तर पर शिक्षकों को प्रशिक्षण के लिए मुझे नियुक्त कर दिया। हालाँकि ये किसी सीनियर टीचर को बनाया जाता है।

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साल 2007 में मेरा प्रमोशन हुआ, मुझे उच्च प्राथमिक विद्यालय, राजमार्ग पुर, अतरौली, अलीगढ़ में बतौर विज्ञान टीचर भेज दिया गया, जहाँ छठीं से लेकर के आठवीं कक्षा को पढ़ाना था।

यहाँ मात्र 75 बच्चों का दाखिला था और दो शिक्षक पहले से थे। इस स्कूल की हालत ये थी कि शराबियों की महफिल लगा करती थी और सुबह तक यह ड्रामा चलता।

जब मैं सुबह-सुबह पहुँचता तो शराब की बोतलें और बदबू का सामना करना पड़ता। मुझसे रहा न गया और मैं प्रधानाध्यापक के पास पहुँचा लेकिन वे भी बेबस नजर आ रहे थे और बुजुर्ग भी थे तो ज़्यादा ज़ोर भी नहीं दिया। सिर्फ यही परेशानी नहीं थी, गाँव के नालों का पानी भी स्कूल में गिरता था। आना जाना भी मुश्किल था। मेन गेट नहीं होने के कारण कोई भी आता जाता रहता था। साल 2008 में एक घटना घटी, एक शराबी ने हमारे प्रधानाध्यापक के साथ बुरा बर्ताव किया, उस समय मैं कक्षा में बच्चों को गणित पढ़ा रहा था। तभी मुझे सर के रोने की आवाज़ आई । उस समय मैं भी नौजवान था तो रहा न गया, फिर मैंने उस शराबी को पकड़ा, तीन-चार थप्पड़ मारे और उसे ले जाकर एक कक्षा में बंद कर दिया।

मैंने सर से कहा बताइए क्या किया जाए। रोते हुए बोले कि मैंने अपने पूरे कैरियर में बेइज्जती कभी नहीं देखी। उसके बाद पुलिस को बुलाकर उसे उनके हवाले कर दिया। फिर गाँव में शोर हो गया कि पंडित जी ने एक को मारा है।

मैंने गाँव वालों से कहा कि जो भी ऐसी हरकत करेगा उसके साथ यही करूँगा। उसके बाद से कोई शराबी मेरी बाइक की आवाज़ सुन लेता तो स्कूल से 100 मीटर तक नज़र नहीं आता। प्रधान की मदद से मुख्य दरवाज़ा लगवाया और अधिकारियों से मिलकर चार दीवारी बनवाई। गंदे पानी को भी स्कूल में गिरने से रुकवाया। वर्तमान में यहाँ 350 से ज़्यादा बच्चों दाखिला है और 10 टीचर हैं।

जैसा कि संजीव शर्मा ने गाँव कनेक्शन के इंटर्न दानिश इकबाल से बताया

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