जमीनी हकीकत : मध्यम वर्ग के ज्यादातर लोगों ने किसान को हमेशा एक बोझ समझा है

Devinder SharmaDevinder Sharma   27 Nov 2017 2:20 PM GMT

जमीनी हकीकत :  मध्यम वर्ग के ज्यादातर लोगों ने किसान को हमेशा एक बोझ समझा हैजैसे किसानों पर एहसान किया जा रहा है।

आप एक किसान की कल्पना करके देखिये। कदाचित आपके सामने एक कृशकाय, मैला सा धोती कुरता धारण किये, सर पर ढीली पगड़ी और टूटा जूता पहने आकृति उभर आएगी। यदि वह आपके घर आएगा तो आप उसे अंदर बुलाकर अपने ड्राइंग रूम में बिछे महंगे कालीन को ख़राब करने की बजाय उससे गेट के बाहर मिलना पसंद करेंगे। हर कोई ऐसा बर्ताव नहीं करता है पर अधिकांश का व्यवहार ऐसा ही होता है।

कल शाम को सैर करते हुए मेरी भेंट एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी से हुई जिन्होंने मुझसे पूछा, 'महाशय किसानों को 10 रूपए से 300 रुपए की अल्प राशि की क़र्ज़ माफ़ी दिए जाने पर मीडिया में इतना हंगामा क्यों किया जा रहा है? क्या किसानों को इस राशि के लिए भी कृतज्ञ नहीं होना चाहिए? आखिरकार वो आयकर नहीं जमा करते, उन्हें भारी सब्सिडी मिलती है और फिर भी उन्हें क़र्ज़ माफ़ी चाहिए। किसलिए? वो लोग आलसी हैं और काम करना नहीं चाहते। अगर वो मेहनत करेंगे तो उनके ऊपर क़र्ज़ चढ़ेगा ही नहीं।"

मैं गुस्से से आग बबूला हो गया पर किसी तरह मैंने स्वयं पर काबू किया और चुपचाप वहां से चला आया। किसानों के 9 पैसे , 19 पैसे, 90 पैसे, 2 रुपए, 6 रुपए जैसी राशि की क़र्ज़ माफ़ी और 4,814 किसानों को 100 रुपए से भी कम राशि की क़र्ज़ माफ़ी की खबरें आग की तरह मीडिया में चारों ओर फैली हुई हैं। रिपोर्टों के अनुसार उत्तर प्रदेश में 11.93 लाख किसानों को जिला मुख्यालयों में भव्य समारोहों में पहले चरण की 7,371 करोड़ रुपए की क़र्ज़ माफ़ी के प्रमाणपत्र बांटे गए हैं। ये उस 36,359 करोड़ रुपए की राशि का एक अंश है जिस राशि की क़र्ज़ माफ़ी का छोटे और हाशिये पर कार्य कर रहे किसानों को उत्तर प्रदेश सरकार ने आश्वासन दिया था।

किसानों की जो छवि हमारे मानसपटल पर अंकित है उसके साथ ये प्रतिक्रिया बिलकुल सही बैठती है।

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4,814 किसानों को 100 रुपए से कम की क़र्ज़ माफ़ी मिली, 6,895 को 100 रुपए से 500 रुपए की क़र्ज़ माफ़ी मिली, 5,583 को 500 रुपए से 1000 रुपए की क़र्ज़ माफ़ी के प्रमाणपत्र प्राप्त हुए। 41,690 को 1000 रुपए से 10,000 रुपए जैसी कम राशि की क़र्ज़ माफ़ी के प्रमाणपत्र प्राप्त हुए। यदि मैं इन संख्याओं को जोड़ता हूँ तो पता चलता है कि 57,982 किसानों को 10,000 रुपए से कम राशि की क़र्ज़ माफ़ी दी गयी। कई लोग कहेंगे कि ये तो बहुत बड़ी राशि है और किसानों को सरकार की उदारता के प्रति आजन्म कृतज्ञ रहना चाहिए। और किसानों की जो छवि हमारे मानसपटल पर अंकित है उसके साथ ये प्रतिक्रिया बिलकुल सही बैठती है।

ये तो बहुचर्चित क़र्ज़ माफ़ी का पहला ही चरण है। अभी 29,000 करोड़ रुपए माफ़ किये जाने हैं। इस दर पर तो नगण्य राशि की माफ़ी मिलने वाले किसानों की संख्या कई लाख हो जाएगी। इसे मज़ाक कहें या मखौल, पर सच तो यही है कि अनुवर्ती सरकारों और अधिसंख्य मध्यम वर्ग ने हमेशा किसान को एक बोझ समझा है जो हमारी भिक्षा अथवा जो भी समाज दान में दे पाए उस पर पल रहा है। एक समय पर जो देश की शान थे अब उनसे शीघ्रताशीघ्र पीछा छुड़ाने का प्रयास किया जा रहा है। परन्तु क्या किसान सच में आलसी है? क्या वो अपनी आजीविका अर्जित करने के लिए कठोर परिश्रम नहीं करता है ?

गांव कनेक्शन के 12 सितम्बर 2017 के संस्करण में प्रकाशित एक खबर में इसका उत्तर है। उस खबर के अनुसार, उत्तर प्रदेश के कृषि विभाग के आकलन में कहा गया है कि एक किसान प्रत्येक माह औसतन 1,307 रुपए का निवल घाटा झेलता है। 6,230 रुपए की लागत पर किसान की मात्र 4,923 रूपए की कमाई होती है। इस हिसाब से किसान की दैनिक आय मात्र 164 रुपए है। पड़ोसी प्रदेश हरियाणा में, हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किये गए एक अध्ययनानुसार गेहूं की खेती से औसतन 800 रूपए प्रति एकड़ कमाई होती है।

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मैं सोच कर उद्देलित हो जाता हूँ कि इतनी कम आय में एक किसान परिवार कैसे जीवनयापन करता होगा। आखिरकार, 1307 रुपए प्रति माह की आय में तो एक गाय पालना भी नामुमकिन है। इससे मेरी उसी बात की पुष्टि होती है जो मैं काफी पहले से कहता आया हूँ :"वर्ष दर वर्ष किसान बम्पर फसल उगाने के लिए कड़ी मेहनत करते रहे हैं. पर वो ये नहीं समझ पा रहे कि जब वो फसल बोते हैं तो वो वास्तव में घाटा बो रहे होते हैं। " मेरा ये आकलन तकरीबन सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों जो फसल की लागत से कम होते है, पर आधारित है।

अगर आप अलग अलग राज्यों में विभिन्न फसलों की लागत को भी देखें और उसकी तुलना किसान को मिल रही कीमत से करें तो भी निवल घाटा वहनीय नहीं होगा। परिणामस्वरूप किसान के पास साहूकार सहित अलग अलग संस्थाओं से क़र्ज़ लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है। फिर किसान कर्ज़ पर कर्ज़ के चक्कर में फंसता चला जाता है। पंजाब, जो फ़ूड बाउल कहलाता है , अध्ययन बताते हैं कि वहां पर 98 प्रतिशत ग्रामीण परिवार कर्ज़े में डूबे हैं और 94 प्रतिशत मामलों में औसत व्यय मासिक आय से अधिक है।

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जब कृषि में अग्रणी प्रदेश पंजाब में ये हाल हैं तो देश के बाकी हिस्सों में किसान परिवार की दुर्दशा अकल्पनीय है। इन हालातों की ज़िम्मेदार अनुवर्ती सरकारें हैं जिन्होंने किसानों को उनके हक़ की आमदनी से वंचित रखा है। शहरी आबादी के लिए कीमतें कम रखने के लिए कृषि क्षेत्र को जानबूझकर खस्ताहाल रखा गया है। अन्य शब्दों में कहा जाये तो वो किसान हैं जो इतने वर्षों से देश को सब्सिडी दे रहे हैं। समय आ गया है कि मध्यम वर्ग को ये समझाया जाये कि देश में पसरे प्रबल कृषि संकट के लिए वो ही प्रत्यक्ष रूप से ज़िम्मेवार हैं।

कृषि क़र्ज़ माफ़ी से किसानों को अल्पावधिक राहत प्राप्त होती है। परन्तु जब ये राहत भी राज्य सरकार लाभार्थियों तक नहीं पहुंचने देती है तो उनकी आशाओं पर तुषारापात हो जाता है। उत्तर प्रदेश में छोटे किसानों के बकाया क़र्ज़ माफ़ किये जाने के सरकार के वादे के अनुसार मार्च 2016 तक लिए गए बकाया क़र्ज़ माफ़ किये जा रहे हैं। परंतु ये माफ़ी केवल उन्हीं किसानों को दी जा रही है जिनके बैंक खाते आधार से जुड़ गए हैं। ये बिलकुल न्यायोचित नहीं है।

किसानों की राह में हैं कई बाधाएं।

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जब उद्योग जगत के असाध्य कर्ज़ों को माफ़ करने की बारी आती है सरकार उद्योग जगत के सामने झुकी जाती है।वित्त वर्ष 2016 -2017 में81,683 करोड़ रुपए के कर्ज़े को चुपचाप बट्टे खाते में डाल दिया गया है। क्या अपने किसी चूककर्ता कंपनी को 100 रुपए , 10,000 रुपए यहां तक कि 1 लाख रुपए की क़र्ज़ माफ़ी मिलते सुना है ? प्रत्येक कंपनी की कई करोड़ रुपए बिना शोर शराबे के माफ़ कर दिए जाते हैं। आर्थिक नीतियों की यही संरचना है। कॉर्पोरेट ऋण को माफ़ करना विकास का अंग माना जाता है जबकि कृषि ऋण की माफ़ी को आर्थिक अनुशासनहीनता और राष्ट्रीय राजकोष का अपव्यय माना जाता है।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma ) उनके सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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