बहुत खास है ये स्कूल, कूड़ा बीनने और भीख मांगने वाले बच्चों के हाथों में कॉपी किताब
उत्तर प्रदेश की राजधानी का ये स्कूल बहुत खास हैं, यहां बेहद गरीब परिवारों, भिखारियों और कूड़ा-कचरा उठाने वाले बच्चों को पढ़ाया जाता है.. पढ़िए पूरी ख़बर..
लखनऊ। सानिया ने जन्म भले ही शिक्षा से वंचित परिवार में लिया हो लेकिन वह भी सभी बच्चों की तरह पढ़ना चाहती है, अपने सपनों को पूरा करना चाहती है। उसने बताया, "मैं डॉक्टर बनना चाहती हूं जिससे बीमार लोगों का इलाज कर सकूं।"
सानिया की तरह इस झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले सैकड़ों बच्चों के कुछ ऐसे ही सपने हैं। अब इनके हाथ में न तो भीख का कटोरा है और न ही अपने परिवार के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी। 'बदलाव पाठशाला' नाम की ये पाठशाला सैकड़ों शिक्षा से वंचित बच्चों की जिन्दगी बदल रही है।
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यहां पढ़ा रहीं इसी बस्ती में रहने वाली दीपिका ने अपने बीते दिनों को याद करते हुए मायूसी से बताया, "मैंने खुद कागज के लिफाफे बनाकर गोमतीनगर में बेचे हैं, जो पैसे इन लिफाफों को बेचकर मिलते थे उससे अपनी पढ़ाई पूरी की है। गरीब घर में जन्म लेना ही हमारा कुसूर है पर सपने देखना हम भी जानते हैं, कई बार इन सपनों को उड़ान मिल जाती है, कई बार गरीबी की वजह से इन सपनों का गला घोंट दिया जाता है।"
दीपिका की इन बातों को सुनकर ऐसा लग रहा था कि उसके मन में बहुत कुछ है जो वो मुझसे कहना चाहती थी। कुछ पल की खामोशी के बाद वो बोली, "मैंने ज्यादा पढ़ाई नहीं की है जिससे मुझे कोई नौकरी मिल सके, पर अब अपनी बस्ती के बच्चों को पढ़ाकर मन को तसल्ली जरूर मिलती है, क्योंकि मैं भी इसी गरीबी में पली बढ़ी हूं। पढ़ाई बहुत अहम है, ये हमारे माता-पिता अपनी गरीबी की वजह से हमें बता ही नहीं पाते हैं।"
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यहां पढ़ा रहे शिक्षकों और बच्चों से दो घंटे बात करने के बाद ये पता चला कि ये लखनऊ की एक झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्ती है, जिसे सरकार ने आवास देकर यहां बसाया है, कुछ के पास कालोनी है तो कुछ अभी भी अपनी झुग्गी में ही रहते हैं। मजदूर वर्ग होने की वजह से माँ-बाप तो मजदूरी करने चले जाते, पर घर का काम बच्चों को करना पड़ता है। इनमें में से कुछ परिवार वो हैं जिन्हें अगर मजदूरी नहीं मिली तो पेट भरने के लिए उनको और उनके बच्चों को भीख तक मांगनी पड़ती, जिससे वो अपना पेट भर सकें।
ऐसी जिन्दगी जी रहे परिवार के बच्चों के लिए पढ़ाई करना किसी सपने से कम नहीं था। लखनऊ में काम कर रही एक गैर सरकारी संस्था 'बदलाव' जो खासकर यहां के भिखारियों पर काम कर रही है, जब संस्था की नजर इस बस्ती पर पड़ी तो गांधी जयंती के अवसर पर वर्ष 2016 को यहां 'बदलाव पाठशाला' की नींव रखी गयी। जिसमें आज पूरी बस्ती के 186 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं और अपने भविष्य की तकदीर गढ़ रहे हैं।
इस बस्ती के आस-पास दो किलोमीटर तक कोई सरकारी पाठशाला नहीं है। ये पाठशाला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हैं, जो जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर दूर दुबग्गा के बसंतकुंज कालोनी सेक्टर-पी में हैं। यहां पढ़ाने वाले शिक्षक न सिर्फ इस पाठशाला में पढ़ाते हैं बल्कि दो किलोमीटर दूर हाइवे पार कराकर हर सुबह इस बस्ती के बच्चों को इकट्ठा करके प्राथमिक विद्यालय पीरनगर में पढ़ाने के लिए लेकर जाते हैं।
पहली कक्षा में पढ़ने वाली रुही (10 वर्ष) के तीन भाई हैं। उसने खुश होकर कहा, "जबसे मैं स्कूल पढ़ने आ रही है बहुत खुश हूं। पहले पूरे दिन घर का काम करती रहती थी, बर्तन मांजती, कपड़े साफ़ करती और खेलती रहती। ये दीदी हमें घर से पढ़ने के लिए लेकर आयीं हैं।"
रुही की तरह इस बस्ती के ऐसे कई बच्चे थे जो घर का काम करते रहते थे। यहां पढ़ा रहे टीचर दिवाकर ने कहा, "हर दिन इन बच्चों के घर जाते इनके माता-पिता को समझाते, तब कहीं जाकर आज इस बस्ती का सारे बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं।" दिवाकर की तरह यहां गुलशन बानो,योगेन्द्र कुमार, दीपिका न्यूनतम मानदेय पर पढ़ाते हैं।
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गुलशन बानो ने खुश होकर कहा, "हम भी असुविधाओं में पले-बढ़े हैं, इन बच्चों को अगर पढ़ा दिया और इनका भविष्य बन गया तो यही हमारी कमाई होगी।"
बानो ने आगे बताया कि हम सभी टीचर इन बच्चों को इस पाठशाला में शाम को नि:शुल्क पढ़ाते ही हैं, इसके साथ ही यहां से दो किलोमीटर दूर सरकारी प्राथमिक विद्यालय में हर दिन इन्हें लेकर जाते और दिनभर वहां मुफ़्त में पढ़ाते हैं।"
संस्था के संस्थापक शरद पटेल ने बताया, "ये लखनऊ का अल्पसुविधा प्राप्त क्षेत्र है। वंचित बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ना हमारी कोशिश है। यहां पढ़ रहे 50 प्रतिशत अल्पसंख्यक और 50 प्रतिशत दलित बच्चे हैं। जितने भी शिक्षक यहां पढ़ाते हैं उन्हें हम ज्यादा मानदेय नहीं दे पा रहे हैं पर फिर भी ये हमें सहयोग कर रहे हैं।"
वो आगे बताते हैं, "पाठशाला को खुले बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए हैं लेकिन इतने कम समय में ही जो बच्चे पहले अपना नाम बताने से झिझकते थे आज वो खुलकर अपना नाम बताते हैं। जो कापी-पेन्सिल से कोसों दूर रहे हों आज वो अपना नाम लिख रहे हैं। अपने विषय को पढ़ रहे हैं समझ रहे हैं, मेरी कोशिश है शिक्षा से कोई भी बच्चा वंचित न रहे ।"