बिहार की टिकुली कला: महिलाओं को सजाने से लेकर उन्हें सशक्त बनाने का सफर

800 साल पुरानी टिकुली की खूबसूरत कला गुमनामी के अंधेरे में कहीं गुम होती जा रही थी। लेकिन यह कलाकार अशोक कुमार बिस्वास का समर्पण भाव ही था जिसने न केवल इस कला को फिर से जिंदा कर दिया बल्कि इसे 300 से ज्यादा महिलाओं के लिए रोजगार का जरिया भी बना दिया।

Update: 2022-04-08 12:01 GMT

पटना, बिहार। अशोक कुमार बिस्वास एक छोटे से कमरे में हरी रंग की चटाई पर बैठे थे। 66 साल का यह कलाकार किसी भी परेशानी या गर्मी से बेखबर, लकड़ी की शीट पर उकेरी गई आकृति में रंग भरने में व्यस्त था।

बिस्वास एक कलाकार हैं और इससे भी बड़ी बात यह है कि वह लगभग 800 साल पुरानी बिहार की टिकुली कला को अकेले ही पुनर्जीवित करने में लगे हैं। राज्य की राजधानी पटना से करीब 12 किलोमीटर दूर नासरीगंज गांव में उनका छोटा सा कमरा ही उनका प्रशिक्षण केंद्र है। यहीं पर राज्य भर की महिलाएं बिस्वास से टिकुली कला की तकनीक सीखती हैं और फिर इसका इस्तेमाल अपनी आजीविका कमाने के लिए करती हैं।

नासरीगंज गांव की आरती देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, "मैं पिछले बारह साल से टिकुली कला बना रही हूं।" 26 साल की आरती ने ये कला अपनी भाभी से सीखी थी और आज वो दोनों मिलकर इससे हर महीने 9,000 रुपये तक कमा लेती हैं। इस कला ने उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया है। आरती ने खुश होते हुए कहा, "मुझे ये सोचकर काफी अच्छा लगता है और गर्व भी होता है कि मैं जो पैसा कमा रही हूं, उससे अपनी बच्चों की स्कूल फीस भर पाती हूं।"

ग्रामीण महिलाओं की सक्रिय भागीदारी से टिकुली कला अब फिर जीवित हो उठी है। फोटो: लवली कुमारी

बिस्वास ने सैकड़ों महिला कलाकारों को इस कला में प्रशिक्षित किया है। यह कला मधुबनी कला, पटना कलाम कला और लकड़ी पर तामचीनी पेंट का इस्तेमाल करने की एक जापानी कला तकनीक की परंपराओं का मिला-जुला रूप है।

बिस्वास को उनके काम के लिए बिहार सरकार और केंद्र सरकार दोनों से सम्मान मिला है। हाल ही में संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ने फरवरी 2022 में टिकुली पेंटिंग (बिहार) के लिए उन्हें गुरु शिष्य परम्परा पुरस्कार से सम्मानित किया था।

पटना की सदियों पुरानी टिकुली कला

कुछ सालों पहले तक टिकुली कला लगभग लुप्त होने की दहलीज पर खड़ी थी। लेकिन अब राज्य में इसे पुनर्जीवित किया जा रहा है। 'टिकुली' शब्द महिलाओं की बिंदी या कहे मांग टीका को दर्शाता है। बिस्वास ने गांव कनेक्शन को बताया, "पुरातात्विक सबूत हैं कि मौर्य युग में कुलीन और शाही परिवार की महिलाओं जिन आभूषणों को पहना करती थीं, टिकुली उसका खास हिस्सा हुआ करती थीं।"

कलाकार ने बताया, "मुगलों ने इस कला को काफी बढ़ावा दिया था। उन्होंने कला से जुड़े लगभग 5000 कलाकारों को संरक्षण दिया था। लेकिन मुगलों के पतन के साथ ही टिकुली कला भी धीरे-धीरे खोने लगी थी।"

'टिकुली' महिलाओं के आभूषण से बाहर निकलकर सजावटी समान के रूप में देखी जाने लगी थी. बिस्वास उस प्रक्रिया के बारे में बताते हैं, "शुरू में टिकुली को पिघले हुए कांच की शीट पर बनाया जाता था। कांच की शीट को विभिन्न आकारों में गोल टुकड़ों में काट कर उस पर आकृतियां उकेरी जाती थीं। इस काम को मुस्लिम कारीगर अंजाम देते थे। उसके बाद इस पर हिंदू कलाकारों द्वारा काम किया जाता था। वह टिकुलियों पर सोने की पतली परत चढ़ाने का काम करते थे।"


कलाकार ने बताया कि कुछ समय बाद महिलाओं ने इस कला को अपने हाथ में ले लिया था। धारदार बांस के औजारों से टिकुलियों पर आकृतियों को उकेरा जाता और उनमें प्राकृतिक रंग भर दिए जाते थे। और फिर टिकुली पर गोंद की एक परत लगा दी जाती थी और उसके बाद इसे इस्तेमाल किया जाता था। पर फिर कच्चे माल और सोने की बढ़ती लागत के कारण दस्तकारी वाली यह टिकुली कला धीरे-धीरे अपनी पहचान खोती चली गई।

लेकिन ग्रामीण महिलाओं की सक्रिय भागीदारी से टिकुली कला अब फिर जीवित हो उठी है। टिकुली कला से कलाकृतियां बनाने में महारत हासिल करने के बाद नासरीगंज गांव की महिलाएं आरती देवी की तरह अपने सपनों को उड़ान देने में लगी हैं। आज टिकुली कला ने उन्हें आर्थिक रुप से मजबूत बना दिया है।

नासरीगंज में रहने वाली 21 साल की सपना कुमारी टिकुली कला की बदौलत ही अपने ग्रेजुएट होने के सपने को पूरा कर पाई है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया "जब मेरे पापा की मौत हुई तो उस समय मैं बहुत छोटी थी। घर के देखरेख की जिम्मेदारी झ पर आ गई थी। लेकिन बिस्वास सर का बहुत-बहुत शुक्रिया, जिनकी बदौलत मैंने टिकुली कला सीखी और उसे अपनी आमदनी का जरिया बना लिया। इससे न केवल मैं अपने परिवार की आर्थिक रूप से मदद कर पाई बल्कि अर्थशास्त्र में स्नातक की डिग्री पाने का अपना सपना भी पूरा किया है।"

एक प्राचीन कला का नया रूप

बिस्वास के अनुसार, 1954 में, कलाकार उपेंद्र महारथी को कांच और सोने के बजाय लकड़ी पर टिकुली का काम करने का विचार आया था। अपने जापान के दौरे पर उन्होंने लकड़ी पर इनेमल पेंट से की गई कलाकृतियों को देखा था। जब वह एक नए विचार के साथ वापस आए तो उन्होंने बिहार की इस टिकुली कला को नया रूप दे दिया और उसके बाद से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।


आज इस कला को बिंदी के रूप में उपयोग की जाने वाली टिकुलियों के बजाय, दीवार चित्रों, कोस्टर, टेबल मैट, ट्रे, पेन-स्टैंड, झुमके, कपड़े और साड़ियों पर उकेरा जा रहा है। चित्रों का विषय आमतौर पर भारतीय लोककथाओं से लिया जाता है, खासकर भगवान कृष्ण की कहानियों से।

सरकारी मदद

कपड़ा मंत्रालय, भारत सरकार, पटना में सहायक निदेशक, डीसी (हस्तशिल्प) मुकेश कुमार, ने गांव कनेक्शन को बताया कि 1984 तक सरकार सीधे कलाकारों से कलाकृति खरीदती थी और उन्हें उनके काम के लिए पैसे दिए जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं किया जाता है।

मुकेश कुमार ने गांव कनेक्शन को बताया, "भारत सरकार आमतौर पर गांधी शिल्प बाजार और देश भर में अन्य राष्ट्रीय कला मेलों जैसे कार्यक्रम आयोजित करती है. जहां कलाकारों को अपना काम सीधे ग्राहकों को बेचने का मौका मिलता है।"

2017 में, बिहार सरकार और डीसी (हस्तशिल्प), कपड़ा मंत्रालय नए कलाकारों के बीच टिकुली कला को बढ़ावा देने के लिए एक नीति- एकीकृत विकास और हस्तशिल्प का प्रचार- लेकर आई थी। मुकेश कुमार बताते हैं, "नए कलाकारों को सहयोग देने के लिए टिकुली कला में प्रशिक्षण दिया जा रहा है और लगभग तीन सौ कलाकारों ने इसका लाभ उठाया है।"

बिस्वास के अनुसार, टिकुली कला खरीदने और बेचने के केंद्र पटना, वाराणसी और कोलकाता हैं। उन्होंने कहा, "कोलकाता की गैर-लाभकारी संस्था 'साशा एसोसिएशन फॉर क्राफ्ट प्रोड्यूसर्स' ने कला और हस्तशिल्प उत्पादों- जिसमें टिकुली भी शामिल है- के लिए एक वैकल्पिक विपणन मंच प्रदान करने के लिए बहुत कुछ किया है।"

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