सामाजिक योजनाओं का चुनावी गणित
ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें सरकारी योजनाओं से राहत मिल सकती थी लेकिन जानबूझ कर इन योजनाओं को कमज़ोर किया गया है।
भारत में लाखों लोगों को ज़िंदा रहने के लिये सरकारी योजनाओं की मदद चाहिये लेकिन न केवल योजनायें ठीक से नहीं चल रही, बल्कि सरकार धीरे-धीरे उन योजनाओं की ऑक्सीज़न को कम कर रही है ताकि वह खुद ही अपनी मौत मर जायें। यह दूसरी बात है कि चुनाव पास आते ही सरकारें इन योजनाओं की ओर मुड़ जाती हैं और यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि वह जन कल्याणकारी राज्य यानी वेलफेयर स्टेट के रास्ते से हटी नहीं हैं।
कुछ दिन पहले मैंने दिल्ली के शेख सराय में रहने वाले रुकम पाल से बात की थी। 63 साल के इस बुजुर्ग को दमे की तकलीफ है फिर भी वह भारी भरकम इस्तरी उठा कर लोगों के कपड़ों की सलवटें दूर करते हैं। इससे उनकी रोज़ी रोटी चलती है। सरकार ने जो वृद्धावस्था पेंशन की घोषणा की उसका फायदा उन्हें नहीं मिला है। यहां पर यह याद दिलाना भी ज़रूरी है कि पेंशन की रकम मात्र 200 रुपये है और देश के 60 जाने-माने अर्थशास्त्रियों की अपील के बावजूद वित्त मंत्री इसे बढ़ाने के लिये टस से मस नहीं हुए हैं।
ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें सरकारी योजनाओं से राहत मिल सकती थी लेकिन जानबूझ कर इन योजनाओं को कमज़ोर किया गया है। अर्थशास्त्री ज्यांद्रेज ने पिछले दिनों अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा जो बताता है कि कैसे चुनावी नाटकबाज़ी में सामाजिक योजनाओं का कबाड़ा हो रहा है।
द्रेज अपने लेख की शुरुआत में ही कहते हैं कि जब नरेंद्र मोदी के सत्ता में आए तो बाज़ार समर्थक (पूंजीवादी) नीतियों के समर्थकों को लगता था कि सामाजिक क्षेत्र में हो रही 'फिज़ूलखर्ची' अब बन्द हो जायेगी और वेलफेयर स्टेट की बात करने वालों पर लगाम लगेगी। कुछ वक्त पहले तक मोदी इस दिशा में काम करते भी दिखे।
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द्रेज़ याद दिलाते हैं कि कैसे 2015-16 के बजट में कई सामाजिक योजनाओं में भारी कटौती की गई। मिड-डे मील और आंगनबाड़ी जैसे कार्यक्रमों में क्रमश: 36 से 50 प्रतिशत कटौती की गई और इसके पीछे न कोई पुख्ता आंकलन था और न सोच। यही हाल प्रधानमंत्री मातृत्व वन्दना योजना और ग्रामीण रोज़गार गारंटी के साथ भी हुआ।
लेकिन यह चुनावी राजनीति का दबाव ही है कि लोकसभा चुनाव से डेढ़ साल पहले 2018 के बजट में सरकार को कुछ ऐसा करने की ज़रूरत महसूस हुई कि उसने एक बार फिर से लोक कल्याणकारी नीतियों की ओर कुछ झुकाव दिखाना शुरू किया।
सरकार ने पहली बड़ी घोषणा प्रधानमंत्री जन स्वास्थ्य योजना के रूप में की जिसे मीडिया में मोदी केयर के नाम से प्रचारित किया गया। इसमें 10 करोड़ परिवारों को 5 लाख प्रति वर्ष की बीमा कवरेज देने की बात थी। लेकिन सवाल यह उठा कि जब सरकारी अस्पतालों और दूरदराज़ के इलाकों में स्वास्थ्य का मूलभूत ढांचा नहीं होगा तो गरीब बीमा लेकर करेगा क्या?
इसे परखने के लिये मैंने दिल्ली से लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में सरकारी अस्पतालों में इलाज करा रहे मरीज़ों से बात की। पिछले साल अगस्त में इसी सिलसिले में रांची के राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान में मेरी मुलाकात जतरू मांझी से हुई। तब वह दुर्घटना में घायल अपने भाई गोपाल को 50 किलोमीटर दूर अपने गाँव से रांची इलाज के लिये लाये थे। दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले जतरू और गोपाल पहले 3 दिनों में ही इलाज पर 6000 रुपये खर्च कर चुके थे। यह पैसा वह रिश्तेदारों से कर्ज़ लेकर आये।
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दोनों भाइयों को सरकार की योजना के बारे में तब पता नहीं था लेकिन उनका यही कहना था कि अगर उनके गाँव या आसपास के इलाके में अच्छी सरकारी स्वास्थ्य सुविधा होती तो उन्हें रांची नहीं आना पड़ता और इलाज मुफ्त में हो पाता। डॉक्टर और नर्सों से लैस अच्छे सरकारी अस्पताल लोगों के लिये बीमा कार्ड से कहीं बेहतर हथियार हैं।
द्रेज सरकार द्वारा घोषित कई दूसरी सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं की ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि वह वोट पाने के लिये दोयम दर्जे की प्लानिंग कर रही है जो लोगों का भला कम और उलझन अधिक पैदा करेगी। चुनावी राजनीति का दबाव ऐसा है कि विपक्ष सरकार के कदमों की सकारात्मक आलोचना करने या रोडमैप सुझाने के बजाय खुद भी उलझन को बढ़ा रहा है।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी सरकार आने पर न्यूनतम आय की गारंटी का जो वादा किया है वह इसी जल्दबाज़ी का हिस्सा है। राहुल गांधी और उनके वित्त मामलों के जानकार पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि अगर कोई व्यक्ति एक न्यूनतम आमदनी से कम कमाता है तो सरकार उस अंतर की भरपाई करेगी। लेकिन हर परिवार की आमदनी और न्यूनतम निर्धारित आय का अंतर पता करना नामुमकिन होगा। द्रेज यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या यह योजना उन लोगों से काम न करने को नहीं कह रही जो अभी न्यूनतम आय से कम कमाते हैं।
अपनी योजनाओं और वादों के लिये राजनेता जनता के साथ वादाखिलाफी और छल करने के लिये जाने जाते हैं। हवाई किले बनाना और वोट पाना और फिर वादों को भूल जाना इस चलन का हिस्सा है। हो सकता है आने वाले दिनों में गरीबों के लिये योजनाओं की यह औपचारिक बहस भी न हो क्योंकि कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले के बाद 'राष्ट्र की सुरक्षा' और 'आतंकवाद के खिलाफ जंग' के नाम पर शुरू हुई बहस सरकार की कई नाकामियों को ढक देगी।
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